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Hapur News: खत्म होने के कगार पर है रजाई उद्योग, नुकसान झेल रहे रुई कारीगर
Hapur News: समय बदलने के साथ लोगों की पसंद भी बदलती जा रही है। पहले लोग ठंड में रजाइयां बनवाते थे और इसको रखने के लिए घरों में ट्रंक बनवाते थे। समय बदला लोगों ने रजाई से मुंह फेर लिया, इसकी जगह कंबल ने ले ली है।
Hapur News: समय बदलने के साथ अब लोगों की पसंद भी बदलती जा रही है। एक समय था कि ठंड में लोग नई रजाइयां बनवाते थे, इसको रखने के लिए घरों में अलग से ट्रंक बनवाए जाते थे। समय बदला तो लोगों ने रजाई से मुंह फेर लिया, इसकी जगह कंबल ने ले ली है। इसका प्रमुख कारण दाम तो है ही साथ सिमटते घरों के चलते रजाइयां रखने में लोगों को दिक्कतें भी आने लगी।
रजाई उद्योग खत्म के कगार पर
आज बाजार में एक से एक ब्रांड के कंबल मौजूद है। जो ठंड से राहत तो देते ही हैं, साथ ही लंबे समय तक चलते भी हैं। इसके चलते रजाई उद्योग आज खत्म होने की कगार पर है। एक समय था कि रजाई-गद्दे घर की शान होते थे। सामूहिक परिवारों में तो इसकी संख्या कई दर्जनों में होती थी। कुछ घरों में तो इसके लिए बड़-बड़े बॉक्स या ट्रंक बनवाए जाते थे। घर के एक कमरा सिर्फ इन बिस्तरों के लिए होता था। समय बदला, सामूहिक परिवार टूटे। लोग बड़े घरों से फ्लैटों में रहने लगे तो रजाइयों के रखने के लिए जगह का अभाव होने के कारण उन्होंने ठंड से बचने के लिए कंबलों का सहारा लेना शुरू कर दिया।
एक से एक ब्रांड के मार्केट में कम्बल है मौजूद
आज बाजार में एक से एक ब्रांड के कंबल मौजूद हैं। सिंगल बेड के कंबल 400 रुपये से लेकर 2000 तक जबकि डबल बेड के कंबल 800 से 4000 तक की रेंज में उपलब्ध हैं। इसके अलावा कश्मीरी समेत अन्य बेहतरीन ब्रांड के कंबल 10 हजार के ऊपर की रेंज में बाजार में बिक रहे हैं। कोठी गेट मार्केट में रजाई व कंबल के विक्रेता परवेज ने बताया कि अब रजाई की मांग न के बराबर हैं। सर्दियों का सीजन शुरू हो गया है।
महज अभी 10 से 20 रजाइयां ही बिकी हैं। इसके अपेक्षा कंबल की खूब मांग हैं। लोग यात्रा करने के लिए पोलो, एकरेलिक कंबल खूब पसंद करते हैं। घर में इस्तेमाल के लिए सिंक कंबल की खूब डिमांड है। इसके अलावा दान आदि करने के लिए लोग जामेवार कंबल खरीदते हैं। लोग अब घर के बुजुर्गों के लिए ही रजाई खरीदते हैं। शहर में इसका प्रचलन खत्म होने के कगार पर है।
इन जगह भी रजाई की डिमांड हुई कम
उन्होंने बताया कि पहले होटलों, धर्मशालाओं समेत टेंट हाउस में रजाइयों की मांग थी। लेकिन रखने की पर्याप्त जगह न होने के कारण वह भी कंबलों पर आश्रित हो गए हैं। नगर के मेरठ रोड के आवास विकास कालोनी के सलीम ने बताया की उनका ये कारोबार करीब 20 वर्ष पुराना है। जहाँ वह रजाई-गद्दे बनाने का काम करते आ रहे है। आज रूई का दाम करीब 30 रुपये प्रति किलो है जबकि कपड़े पर भी करीब 600 रुपये की लागत आती है।
इसके अलावा धुनाई, भराई व धागे का काम व बिजली या डीजल का खर्च अलग से। उन्होंने बताया कि सिंगल बेड की रजाई की कीमत 15 से 18 सौ व डबल बेड की कीमत 22 से 23 सौ रुपये हैं। पहले डिमांड होने पर सर्दी के सीजनों में मांग पूरी नहीं कर पाते थे, अब तो दिन में कुछ घंटे ही मशीन चलती है। उन्होंने बताया कि पहले शहर में करीब आधा दर्जन मशीनें लगी हुई थी अब मात्र एक दो बची हैं। कंबल की ओर रुख करने से यह धंधा खत्म होने के कगार पर है।