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Hashimpura Massacre Wiki Hindi: हाशिमपुरा नरसंहार-जानें पूरी कहानी जिसमें 35 मुसलमानों को मारी थी गोली
Hashimpura Massacre Brief History: सांप्रदायिक हिंसा का वीभत्स अध्याय- 22 मई 1987 का दिन भारतीय इतिहास के काले अध्यायों में दर्ज है।
Hashimpura Massacre: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार मामले में दोषी ठहराए गए 10 अभियुक्तों को जमानत प्रदान की। यह मामला उत्तर प्रदेश प्रॉविंशियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी (PAC) के जवानों द्वारा 35 लोगों की गोली मारकर हत्या करने से जुड़ा है। जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ के समक्ष वरिष्ठ वकील अमित आनंद तिवारी ने तर्क दिया कि दिल्ली हाईकोर्ट ने तथ्यों का गलत मूल्यांकन करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने चार दोषियों की ओर से पेश एडवोकेट अमित आनंद तिवारी की दलीलों पर गौर करते हुए यह फैसला सुनाया।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा, उन्हें बरी करने के लोवर कोर्ट के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा पलटे जाने के बाद से ही वो लंबे समय से जेल में हैं। समी उल्ला, निरंजन लाल, महेश प्रसाद और जयपाल सिंह का हवाला देते हुए उन्होंने यह भी कहा, वो हाईकोर्ट के फैसले के बाद से छह साल से अधिक समय से जेल में हैं, अपीलकर्ताओं को लोवर कोर्ट से बरी किया जा चुका है, अदालती सुनवाई और अपील प्रक्रिया तक उनका आचरण अच्छा रहा है, ऐसे में जमानत दी जानी चाहिए। ट्रायल कोर्ट ने 2015 में, घटना के करीब 28 साल बाद, सबूतों की कमी का हवाला देते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। हालांकि, 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने 16 आरोपियों को दोषी ठहराते हुए उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। वकील तिवारी ने दलील दी कि हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और दोषी 2018 से जेल में बंद हैं। इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देने का निर्णय लिया।
हाशिमपुरा नरसंहार-
सांप्रदायिक हिंसा का वीभत्स अध्याय- 22 मई 1987 का दिन भारतीय इतिहास के काले अध्यायों में दर्ज है। कहा जाता है कि उस दिन उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के हाशिमपुरा इलाके में प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (PAC) के जवानों ने निहत्थे मुस्लिम पुरुषों और लड़कों को हिरासत में लेकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इस घटना ने न केवल अल्पसंख्यक समुदाय को झकझोर कर रख दिया, बल्कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था और प्रशासनिक मशीनरी पर भी गंभीर सवाल खड़े किए।
पृष्ठभूमि: सांप्रदायिक तनाव और दंगे
1987 में मेरठ सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहा था। उस समय बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद ने देश भर में तनाव फैला रखा था। मेरठ के हालात बेहद खराब थे और दंगे व आगजनी की घटनाएं लगातार हो रही थीं। हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सेना और प्रांतीय सशस्त्र बलों की तैनाती की गई थी।
मेरठ के हाशिमपुरा इलाके में PAC और सेना के जवानों ने सर्च ऑपरेशन चलाया। इस दौरान PAC की दो राइफलें लूट ली गईं और एक मेजर के रिश्तेदार की हत्या कर दी गई। इस घटना से इलाके में और तनाव बढ़ गया।
घटना का विवरण: निहत्थों की हत्या
22 मई,1987 को PAC ने हाशिमपुरा इलाके में छापा मारा और 42 से 45 मुस्लिम पुरुषों और लड़कों को हिरासत में ले लिया।बताया जाता है कि वे उनमें से लगभग 40-45 लोगों को, जिनमें से ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर और बुनकर थे । इन लोगों को एक पीले रंग के ट्रक में भरकर थाने ले जाने का दावा किया गया। लेकिन थाने पहुंचाने के बजाय इन्हें गाजियाबाद की गंग नहर के पास ले जाया गया।यहां बेहद सुनियोजित तरीके से इन लोगों को गोली मारी गई।कुछ शवों को गंग नहर में और कुछ को हिंडन नदी में फेंक दिया गया।इस नरसंहार में 38 लोग मारे गए।केवल पांच लोग किसी तरह बच गए। उन्होंने गोलीबारी के दौरान मरने का नाटक किया और नहर में कूदकर अपनी जान बचाई।बचने वालों ने इस नरसंहार की पूरी कहानी उजागर की। उनके गवाह बनने की वजह से मामला कानूनी कार्रवाई तक पहुंचा।
घटना के प्रभाव
जैसे ही घटना की खबर मीडिया में फैली, अल्पसंख्यक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार संगठनों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया। प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने 30मई को मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ शहर और दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया । मानवाधिकार निकाय, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ( पीयूसीएल ) ने एक जांच समिति नियुक्त की, जिसमें तत्कालीन पीयूसीएल अध्यक्ष, (पूर्व न्यायाधीश) राजिंदर सच्चर , आईके गुजराल (जो बाद में भारत के प्रधान मंत्री बने ) और अन्य शामिल थे, और समिति ने 23 जून, 1987 को अपनी रिपोर्ट पेश की।
1988 में उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश पुलिस की अपराध शाखा केंद्रीय जांच विभाग (सीबीसीआईडी) द्वारा जांच का आदेश दिया । पूर्व महालेखा परीक्षक ज्ञान प्रकाश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आधिकारिक जांच दल ने 1994 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, हालांकि इसे 1995 तक सार्वजनिक नहीं किया गया, जब पीड़ितों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का रुख किया ।
हाशिमपुरा नरसंहार ने भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया। इस घटना ने अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति प्रशासनिक रवैये और न्यायिक प्रणाली की विफलता को उजागर किया। पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी आलोचना हुई।
जांच और चार्जशीट
घटना के बाद इस मामले की जांच CB-CID (क्राइम ब्रांच - क्रिमिनल इंवेस्टिगेशन डिपार्टमेंट) को सौंपी गई.1996 घटना के 9 साल बाद गाजियाबाद की एक आपराधिक अदालत में चार्जशीट दाखिल की गई।लेकिन आरोपियों को अदालत में पेश करने के लिए जारी किए गए 20 से अधिक वारंट बेनतीजा रहे।आखिरकार, पीड़ितों के परिवारों की याचिका पर मामला दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया।
न्यायिक प्रक्रिया और ट्रायल कोर्ट का फैसला
2006 में दिल्ली की ट्रायल कोर्ट ने हत्या, आपराधिक साजिश, अपहरण, सबूत मिटाने, और दंगा भड़काने जैसे आरोपों में 19 अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमा चलाया।आरोपियों के बयान दर्ज करने में 8 साल का समय लग गया।इस दौरान तीन आरोपियों की मौत हो गई।2015 में ट्रायल कोर्ट ने सबूतों की कमी का हवाला देते हुए बाकी 16 आरोपियों को बरी कर दिया।कोर्ट ने कहा कि आरोपियों को हत्या से जोड़ने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे।
दिल्ली हाईकोर्ट का हस्तक्षेप और फैसला
ट्रायल कोर्ट के फैसले को पीड़ितों और उनके परिवारों ने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी।हाईकोर्ट ने मामले की गहराई से समीक्षा की और नई जांच के तहत अतिरिक्त सबूतों को शामिल किया।हाईकोर्ट ने मामले में आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (हत्या), 364 (अपहरण), 201 (सबूत नष्ट करना), और 120-B (आपराधिक साजिश) के तहत दोषी ठहराया। 31 अक्टूबर, 2018 को, नरसंहार के 31 साल बाद, दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटते हुए सभी 16 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई।हालांकि, दोषियों ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और वर्तमान में मामला वहां लंबित है।
सुप्रीम कोर्ट में अपील-हाईकोर्ट के फैसले के बाद दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।2023 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों की याचिका पर सुनवाई करते हुए कुछ को जमानत दी।यह मामला अभी भी न्यायालय में लंबित है।
हाशिमपुरा नरसंहार के सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
इस घटना ने अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति प्रशासन और सुरक्षा बलों की असंवेदनशीलता को उजागर किया। पीड़ितों को न्याय पाने में 31 साल का लंबा समय लगा।घटना ने सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा किया और प्रशासन पर विश्वास कम किया।उस साल गर्मियों में मलियाना में जो हुआ, वो हिंसा की अकेली घटना नहीं थी. 14 अप्रैल को एक धार्मिक जुलूस में दंगा भड़कने के बाद से ही मेरठ में सांप्रदायिक तनाव शुरू हो गया था। सांप्रदायिक हिंसा में हिंदू-मुसलमान दोनों समुदायों के दर्जन भर लोग मारे गए थे। कर्फ़्यू लगा दिया गया था। लेकिन तनाव बरक़रार था। अगले कुछ हफ़्तों के दौरान रह-रह कर दंगे भड़कते रहे। आधिकारिक आंकड़ों में दंगों में मरने वालों की संख्या 174 बताई गई थी। लेकिन गैर आधिकारिक रिपोर्टों में यह संख्या 350 से अधिक थी। इसके साथ ही अरबों रुपये की संपत्ति नष्ट होने की भी रिपोर्ट थी। इस हत्याकांड के बाद पुलिस ने जो शिकायत दर्ज की थी, उनमें सिर्फ़ 93 स्थानीय हिंदुओं के नाम अभियुक्त के तौर पर दर्ज किए गए थे। लेकिन मुक़दमे की सुनवाई के दौरान 23 अभियुक्तों की मौत हो गई और 31 'लोगों का कोई सुराग़' नहीं मिल सका।
बता दें कि जब मेरठ में दंगे का दौर 14 अप्रैल को गुलमर्ग से शुरू हुआ था। इसके बाद शहर में बवाल होता रहा, जिस कारण मई में कर्फ्यू लगाना पड़ा था। 19 मई 1987 को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री पी चिदंबरम, यूपी के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, सांसद मोहसिना किदवई तथा प्रदेश के गृह मंत्री गोपीनाथ दीक्षित मेरठ पहुंचे थे। शहर के हालात का जायजा लेने के बाद उन्होंने शांति बनाने के संबंध में आला अफसरों को निर्देश दिया था। इसके तीन दिन बाद हाशिमपुरा कांड हो गया था।
पी चिदंबरम के खिलाफ याचिका
जनता पार्टी अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन गृह राज्यमंत्री पी चिदंबरम की भूमिका की जांच कराने के लिए तीस हजारी कोर्ट में याचिका डाली थी। अभियोजन पक्ष का तर्क दिया था कि इस मामले में तीन जांच अधिकारी थे। उनसे बहस नहीं हो सकी क्योंकि तीनों की मृत्यु हो चुकी है। विशेष लोक अभियोजक सतीश टमटा ने सुनवाई के दौरान कहा था कि ऐसे आरोपों का कोई आधार नहीं है और इंसाफ के लिए पीड़ितों का इंतजार और लंबा हो जाएगा। इसके चलते सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका खारिज कर दी गई थी।
शुक्रवार को निचली अदालत की ओर से अभियुक्तों को छोड़ने के मामले को आलोचकों ने 'इंसाफ़ का मज़ाक' बताया है। हाशिमपुरा नरसंहार भारतीय इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय है, जिसने हमारे समाज और प्रशासनिक तंत्र को गहराई से झकझोर दिया। यह घटना न केवल न्यायिक प्रक्रियाओं की धीमी गति और साक्ष्य जुटाने में प्रशासन की असफलता को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सांप्रदायिक तनाव के समय कैसे टारगेट किया गया।हाईकोर्ट का फैसला और दोषियों को दी गई सजा भले ही देर से आई हो। लेकिन यह घटना हमेशा भारतीय न्याय प्रणाली और समाज के लिए एक सबक और चेतावनी के रूप में जानी जाएगी।