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सेहत का पैसा नहीं खर्च कर रहीं सरकारें

raghvendra
Published on: 31 Aug 2018 8:51 AM GMT
सेहत का पैसा नहीं खर्च कर रहीं सरकारें
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लखनऊ: जनता की सेहत के लिए भले ही सरकार भारी रकम खर्च कर रही हो, लेकिन सच्चाई यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बहुत बुरी है। डॉक्टरों व अन्य कर्मचारियों तथा पानी-बिजली और सडक़ संपर्क जैसी बुनियादी जरुरतों की जबर्दस्त कमी बनी हुई है। सुविधाओं की कमी के पीछे पैसे का रोना रोया जाता है, लेकिन हकीकत ये है कि केंद्र से मिला पैसा भी राज्य पूरा खर्च नहीं कर पाते। काफी कुछ पैसा तो अन्य कामों में लगा दिया जाता है।

सीएजी की ताजा ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्राइमरी हेल्थ सेंटरों, कम्युनिटी हेल्थ सेंटरों आदि में स्वास्थ्य कर्मियों की २४ से ३८ फीसदी तक कमी है। जहां तक स्वास्थ्य उपकेंद्रों की बात है तो ७३ फीसदी उपकेंद्र सबसे सुदूर गांव से भी तीन किलोमीटर दूर हैं। २८ फीसदी उप केंद्रों में पहुंचने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुविधा नहीं है और १७ फीसदी सेंटर साफ-सफाई के लिहाज से बहुत खराब हैं। २४ राज्यों के हेल्थ सेंटरों में आवश्यक दवाएं उपलब्ध नहीं थीं। सीएजी ने पाया है कि बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, बंगाल और सिक्किम के हेल्थ सेंटरों पर ५० फीसदी से ज्यादा स्टाफ की कमी थी। बिहार में तो ९२ फीसदी तक स्टाफ की कमी पायी गई। ७७ से ८७ फीसदी सीएचसी बिना विशेषज्ञ डॉक्टरों के चल रहे हैं।

जांच नहीं होती दवाओं की

सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि १४ राज्यों में (उत्तर प्रदेश, बंगाल, त्रिपुरा, तेलंगाना, पंजाब, ओडीशा, मणिपुर, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, झारखंड, हरियाणा, बिहार और असम) निर्धारित गुणवत्ता जांच के बगैर ही मरीजों को दवाएं दी जाती हैं। यहां तक कि एक्सपायरी डेट तक चेक नहीं की जाती। अब स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि आईटी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि इस गड़बड़ी को दूर किया जा सके।

यूपी में नहीं चल रहीं मोबाइल यूनिटें

एनआरएचएम के तहत मोबाइल मेडिकल यूनिट चलाए जाने की व्यवस्था की गयी थी ताकि सुदूर क्षेत्रों तथा जहां स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है वहां लोगों के दरवाजे तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच हो। सर्वे में पाया गया कि उत्तर प्रदेश, मिजोरम, हिमाचल और छत्तीसगढ़ में मोबाइल यूनिटें संचालित नहीं की जा रही हैं। बाकी राज्यों में भी ये सुविधा आंशिक रूप से ही दी जा रही है।

खर्च नहीं हो रहा पूरा पैसा

केंद्र सरकार के नियम के अनुसार राज्य सरकारों को पैसा प्राप्त होने के १५ दिन के भीतर उसे हेल्थ सोसाइटियों को दे देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो राज्य सरकारों को रकम पर वर्तमान बैंक दर के अनुसार ब्याज भरना पड़ेगा। जिन राज्यों ने हेल्थ सेवाओं के लिए पूरा पैसा खर्च नहीं किया उनमें उत्तर प्रदेश भी प्रमुख है। २०११-१२ में यूपी ने ५८ फीसदी पैसा खर्च नहीं किया, २०१२-१३ में भी यही हाल रहा, २०१३-१४ में ये बढक़र ५९ फीसदी हो गया, २०१४-१५ में ५६ फीसदी और २०१५-१६ में ५२ फीसदी रकम खर्च नहीं की गयी।

सरकारी नौकरी को न

ऐसा माना जाता है कि सरकारी नौकरी पाना बहुत बड़ी उपलब्धि होती है और हर कोई सरकारी नौकरी ही करना चाहता है। लेकिन शायद ऐसा नहीं है। राजस्थान में सरकारी नौकरी में डॉक्टरों की भर्ती के नतीजों से तो यही सामने आया है। सरकारी अस्पतालों में मेडिकल ऑफिसर के पद पर भर्ती के लिए हुई परीक्षा में जो एमबीबीएस डॉक्टर पास हुए उनमें से ४० फीसदी ने नौकरी ज्वाइन ही नहीं की। राजस्थान में मेडिकल आफिसरों की भर्ती के लिए सितंबर २०१४ से चार बार भर्ती प्रक्रिया चल चुकी है लेकिन अब भी १४०० पद खाली पड़े हैं।

पंजाब का भी यही हाल है। वहां २०१६ में ३४५ डॉक्टरों का चयन किया गया जिनमें से ९५ ने ज्वाइन नहीं किया और ५२ ने ज्वाइन करने के बाद नौकरी छोड़ दी। २०१५ में ४०४ डॉक्टर चुने गए थे जिनमें से १०४ ने ज्वाइन नहीं किया और ३२ ने बाद में इस्तीफा दे दिया।

22 फीसदी पीएचसी में डॉक्टर नहीं

सीएजी ने आंध्र, अरुणाचल, असम, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडीशा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के ३०५ पीएïचसी का सर्वे किया। इनमें से २२ फीसदी यानी ६७ पीएचसी में कोई डॉक्टर नहीं था। इन्हीं १३ राज्यों में १० फीसदी उपकेंद्रों में एएनएम की तैनाती नहीं थी। २२ राज्यों के ६५ फीसदी उप केंद्रों में पुरुष हेल्थ वर्कर की तैनाती नहीं थी। सीएजी के अनुसार २४ राज्यों-केंद्र शासित क्षेत्रों के २३६ सीएचसी में सिर्फ १३०३ नर्सें पोस्टेड थीं जबकि होनी चाहिएं २३६०। रिपोर्ट में बताया गया है कि १७ राज्यों के ४२८ केंद्रों पर अल्ट्रासाउंड, एक्सरे, ईसीजी मशीनें, ऑपरेशन थियेटर और रक्त भंडारण की सुविधा बनायी गयी है, लेकिन डॉक्टरों व प्रशिक्षित कर्मचारियों की उपलब्धता न होने कारण ये सब बेकार पड़ा हुआ है।

एनएचएम के जरिए राज्यों के लोकल हेल्थ सिस्ïटम, संस्थान और क्षमता को मजबूत करने के लिए पैसा दिया जाता है। लेकिन राज्य ये पैसा भी उपयोग नहीं कर पाते। २०११ से २०१६ तक के पांच साल में केंद्र द्वारा दिए गए पैसे में से २९ फीसदी का उपयोग ही नहीं हो सका। एनएचएम की फंडिंग केंद्र व राज्य मिल करते हैं जिसमें केंद्र ६० फीसदी पैसा देता है। २०१३-१४ तक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय राज्य हेल्थ सोसाइटियों को सीधे पैसा भेजता था, लेकिन अब ये पैसा राज्य सरकारों को दिया जाता है जो उसे हेल्थ सोसाइटियों को एलाट करते हैं।

२०११-१६ के बीच राज्य हेल्थ सोसाइटियों को ११०९३० करोड़ रुपए उपलब्ध थे, लेकिन खर्च किया गया १०६१८० करोड़ रुपया। मेघालय में तो ७६ फीसदी पैसा खर्च ही नहीं हुआ। यूपी का हाल भी ऐसा ही रहा जहां ५२ फीसदी पैसा खर्च नहीं किया जा सका।

यूपी में डॉक्टरों के 7348 पद खाली

उत्तर प्रदेश विधानसभा में मानसून सत्र में सरकार ने बताया है कि प्रदेश में डॉक्टरों के 7348 और स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के 5000 से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। सरकार ने कहा है कि इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है। विधानसभा में समाजवादी पार्टी के सदस्य मनोज कुमार पारस और डॉ. संग्राम यादव ने चिकित्सा एवं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री से सवाल किया था कि क्या प्रदेश में डॉक्टरों की कमी है? इस पर मंत्री डॉ. महेंद्र सिंह ने बताया कि प्रदेश में डॉक्टरों के कुल 8342 पद सृजित हैं, जिसमें 7348 पद खाली पड़े हैं। फिलहाल 2354 रिक्त पदों को भरने के लिए लोक सेवा आयोग से कहा गया है। बसपा के उमाशंकर सिंह ने पूछा कि 5000 से ज्यादा विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी कब पूरी की जाएगी? इस पर मंत्री ने कहा कि एमएचएम के माध्यम से 841 विशेषज्ञ चिकित्सकों की भर्ती की गई है, बाकी खाली पदों पर भर्ती जल्द ही पूरी कर ली जाएगी। उन्होंने बताया कि विशेषज्ञ चिकित्सकों की संविदा नियुक्ति की जाती है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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