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देवबंद की बेमिसाल ऐतिहासिक मस्जिदें, जानें यहां क्‍या है खास

Newstrack
Published on: 6 Jun 2016 11:15 AM GMT
देवबंद की बेमिसाल ऐतिहासिक मस्जिदें, जानें यहां क्‍या है खास
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सहारनपुरः विश्व विख्यात इस्लामिक संस्था दारूल उलूम देवबंद के साथ-साथ फतवों के शहर देवबंद के अंदर बहुत सी ऐतिहासिक इमारते हैं। जिनमें मंदिर मस्जिद और निवास स्थान भी शामिल हैं। लेकिन देवबंद में मौजूद करीब 300 से अधिक मस्जिदों में कुछ मस्जिदे ऐसी हैं, जिनका अपना अलग ही ऐतिहासिक महत्व है। देवबंद की यह ऐतिहासिक मस्जिदें बरबस ही हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए काफी हैं। इन्हीं ऐतिहासिक मजिस्दों में से एक है, यहां की मर्कजी जामा मस्जिद।

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मस्जिद के तीन हिस्से में सात दर और तीन-तीन गुम्बद हैं

दारुल उलूम से कुछ दूरी पर आबादी के बीचों बीच अपने आसमां छूते मीनारों व खूबसूरत गुम्बों से सजी हुई जमा मस्जिद की बुनियाद 1866 में रखी गई थी, जिसके निर्माण कार्य में करीब 4 वर्ष का समय लगा था। दारुल उलूम की स्थापना भी इसी बीच हुई थी। मस्जिद के सहन में सिर उठाए पूरी शान से खड़े आसमां छूते मीनारों पर चढ़कर पूरे नगर व आसपास का नजारा किया जा सकता है। इस मस्जिद के तीन हिस्से में सात दर और तीन-तीन गुम्बद है। मस्जिद के दालानों में लगभग 1200 नमाजियों की जगह है। आरंभिक दौर में दारुल उलूम वक्फ यहीं पर था। बाद में जगह की कमी के चलते इसको दूसरे स्थान स्थानांतरित कर दिया गया था।

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1949 में दारुल उलूम के झगड़े के बाद जब 8 कर्मचारियों और सैकड़ों तलबा को कब्जे के बाद बाहर निकाल दिया गया था, उस समय जामा मस्जिद की इमारत में वक्फ दारुल उलूम कायम किया गया था। जिसके बाद मस्जिद को काफी तरक्की मिली है। देवबंद की दूसरी ऐतिहासिक मस्जिद है छत्ता मस्जिद सन् 1866 में दारुल उलूम का आरंभ इसी मस्जिद छत्ता से हुआ था। यह लखैरी ईटों के बगैर चूने व प्लास्तर की इमारत है इस मस्जिद के हुजरों में सैंकड़ों बुजुर्गो और आलिमों ने अपना समय बिताया है। उलेमा-ए-देवबंद के सरों के ताज मशहूर बुजुर्ग हाजी मोहम्मद आबिद हुसैन, हजरत मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी और हजरत मौलाना मोहम्मद याकूब नानौतवी (दारूल उलूम के सर्व प्रथम मोहतमिम) ने इस मस्जिद में लम्बे समय तक कयाम किया है।

दारुल उलूम के पहले छात्र थे महमूद हसन

मस्जिद के सहन में अनार का ऐतिहासिक पेड़ था जिसके नीचे बैठकर दारुल उलूम देवबंद के पहले उस्ताद मुल्ला महमूद देवंबदी ने पहले छात्र महमूद हसन देवबंदी को सबक पढ़ाया था। बाद में दारुल उलूम की मुख्य इमारत की बुनियाद इसी छत्ता मस्जिद के निकट रखी गई जहां आज विश्वभर में पहचानी जाने वाली दारुल उलूमी की इमारत शान से खड़ी है। दारुल उलूम के पहले छात्र बनने का गौरव प्राप्त करने वाले महमूद हसन देवबंदी अपने इलमी कारनामों की बदौलत बाद में विश्वभर में शेखुल हिंद के नाम से जाने गए। दारुल उलूम देवबंद में इस्लामी तालीमात की शुरुआत का साक्षी बना छत्ता मस्जिद के सहन में लगा वह अनार का ऐतिहासिक पेड़ करीब सो सालों से भी अधिक समय तक हराभरा व फलदार बना रहा, जिसे देखकर लोग अचंभित होते थे। लेकिन करीब दो दश्क पूर्व उलेमा-ए-देवबंद ने बीदत से बचने के लिए अनार के उस ऐतिहासिक पेड़ को कटवा दिया।

देवबंद की तीसरी ऐतिहासिक मस्जिद है मोहल्ला किला स्थित मस्जिद किला। बादशाह सिकंदर शाह लौधी ने 1488 से 1517 ई0 तक अपने शासन काल में बहुत सी मस्जिदें, मदरसे और सराये बनवाए यह बड़ा इल्मी दोस्त बादशाह था। बादशाह सिकंदर शाह लौधी के कार्यकाल में ही सर्वप्रथम हिंदुओं ने फारसी पढ़ना शुरु किया था। देवबंद में मस्जिदे किला का निर्माण भी इसी दौरान कराया गया। बताया जाता है कि मस्जिद के साथ-साथ यहां पर एक किला बनवाया गया था जिसके चलते ही इस जगह को मोहल्ला किला कहा जाता है। हालांकि समय के साथ-साथ किले का नामो निशान समाप्त होगा और बादशाह द्वारा बनाई गई मस्जिद का स्वरूप बदल गया लेकिन अब भी मस्जिद के अंदर स्थित होज उस समय की याद ताजा कराती है।

देवबंदी की चौथी विश्व प्रसिद्ध मस्जिद रशीद है। जिसकी आधारशिला सन 1988 में आधारशिला रखी गई। करीब 65 लाख रुपये की लागत से उस वक्त इस मस्जिद का निर्माण कराया गया था। मस्जिद रशीद का मुख्य द्वार 102 फीट चौड़ा व 50 फीट ऊंचा बनाया गया है। मुख्य द्वार में मस्जिद के अंदर प्रवेश करने के लिए पांच दरवाजें बनाए गए है जिसमें से मध्य में स्थित बड़े द्वार की चौड़ाई 20 फीट है। मस्जिद के द्वार के बाद एक बड़ा सहन है जिसकी लंबाई 180 फीट और चौड़ाई 128 फीट है। सहन के चारों ओर 16 फुट चौड़ा जालियों व पत्थरों से बना हुआ बरामदा है जिसके उत्तर व दक्षिण छोर पर एक-एक प्रवेश द्वार है तथा सेहन के बिल्कुल सामने मस्जिद की आलीशान तीन मंजिला इमारत शान से सिर उठाए खड़ी है।

तीन मंजिला इमारत के बिल्कुल बीचो-बीच एक बेहद खूबसूरत व भरी गुंबद बनाया गया है, जिसकी चौड़ाई 60 गुणा 60 फीट और ऊंचाई 120 फीट है जिसके भीतर कम से कम 200 लोग आराम से नमाज अदा कर सकते हैं। इस पूरी मस्जिद में करीब 12 हजार व्यक्ति एक साथ नमाज अदा कर सकते हैं। मस्जिद के दोनों छोर पर दो गगनचुंबी आलीशान मीनार बनाए गए है। आधुनिक तकनीक से बनाए गए इन मीनारों के बीच में खूबसूरत अंदाज का सीढ़ियां बनाई गई है जो कि मीनार के अंत तक पहुंचती है। मस्जिद के नीचे नमाजियों की सुविधा के लिए एक तहखाना बनाया गया है तथा मस्जिद के मुख्य द्वार से दोनों ओरसे तहखाने को जोड़ने के लिए जमीन के भीतर से रास्ता बनाया गया है जिसमें छात्रों के रहने के लिए कमरे बनाए गए है जिसके चलते मस्जिद के नीचे दारुल उलूम में पढ़ने वाले छात्रों की एक बड़ी बस्ती आबाद है।

राजस्थान से खासतौर पर मंगाए गए मकराना के सफेद संगमरमर व पत्थरों की बारीक नक्काशी से बनाई गई विश्व विख्यात मस्जिद रशीद सैलानियों को अपनी ओर सम्मोहित करती है। उम्दा किस्म के सफेद संगमरमर से बनी यह मस्जिद हर एक मौसम में अपनी खूबसूरती की एक अलग ही छटा तो बिखेरती ही है। वहीं, रात्रि में चंद्रमा की रोशनी में यह मस्जिद अपनी खूबसूरती की अलग ही दास्तां बयान करती है। इसके अलावा यह मस्जिद विख्यात दारुल उलूम देवबंद के दामन में बनी होने के कारण हर समय हजारों नमाजियों से आबाद रहती है। मस्जिद रशीद के निर्माण में जहां मजबूती को अव्वल दर्जा दिया गया है वहीं मस्जिद को खूबसूरत बनाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की गई है। मस्जिद के निर्माण में मजबूती के साथ-साथ बारीक से बारीक खूबसूरती को ध्यान में रखा गया है। आजादी के बाद हिंदुस्तान में बनाई गई सभी मस्जिदों में सबसे मजबूत और खूबसूरत है जिसकी न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी खूब चर्चा है जिसके चलते मस्जिद रशीद को निहारने के लिए भारी संख्या में टूरिस्ट यहां पहुंचते है।

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