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ज्ञानवापी मस्जिद का सच, जानें कैसे हुए इसका निर्माण
काशी विश्वनाथ मंदिर कई बार तोड़ा गया और कई बार बनाया गया है। अब तो मूल मंदिर का कोई अवशेष दिखाई भी नहीं पड़ता है।
लखनऊ: अयोध्या की तरह अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का राज पता किया जाएगा। खुदाई होगी और साक्ष्य निकाले जायेंगे कि मस्जिद के नीचे आखिर क्या है। वाराणसी की एक अदालत ने आदेश दिया है कि पुरातात्विक विभाग खुदाई और सर्वेक्षण का काम करे। कोर्ट के इस फैसले के बाद अयोध्या की तरह अब ज्ञानवापी मस्जिद की भी खुदाई कर मंदिर पक्ष के दावे की प्रमाणिकता को परखा जाएगा। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को सुलझाने के लिए अदालत ने पुरातात्विक खुदाई में निकली चीजों को बतौर साक्ष्य स्वीकार किया था। अदालत के फैसले से न सिर्फ काशी बल्कि मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि की ऐतिहासिक प्रमाणिकता सामने आने का रास्ता खुल गया है।
क्या है मामला
वाराणसी के एक वकील विजय शंकर रस्तोगी ने स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विशेश्वर की ओर से 2019 में वाराणसी की अदालत में एक याचिका देकर मांग की थी कि ज्ञानवापी मस्जिद का पुरातात्विक सर्वेक्षण कराया जाए ताकि इसका असली इतिहास सामने आ सके। स्वयंभु ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर के 'वाद मित्र' के रूप में दायर याचिका में कहा गया था कि ज्ञानवापी परिसर में स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर का पुराना मंदिर था और उसमें 100 फुट का ज्योतिर्लिंग मौजूद था। इस औरंगजेब ने 1669 में मंदिर को ध्वस्त करा दिया था और उसके एक हिस्से पर स्थानीय मुसलमानों द्वारा एक ढांचा बना दिया गया था, जिसे वो मस्जिद कहते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं।
15 अगस्त 1947 को इसकी धार्मिक स्थिति क्या थी, ये तय करने के लिए ये सबूत सामने आना जरूरी है कि विवादित ढांचा बनने के पहले यहाँ पुरातन विश्वेश्वर मंदिर का अवशेष है कि नहीं और ये बिना पुरातात्विक खुदाई के मुमकिन नहीं है। मंदिर-मस्जिद की कानूनी लड़ाई 11 अगस्त, 1936 को शुरू हुई थी जब दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद दाखिल किया और दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति है। लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया और 24 अगस्त 1937 को वाद खारिज कर दिया गया।
इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने इस अपील को भी खारिज कर दिया। कानूनी गुत्थियां साफ होने के बावजूद मंदिर-मस्जिद का मसला आज तक फंसा हुआ है।यही नहीं, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिलामजिस्ट्रेट वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।
मूल मंदिर का अस्तित्व ही नहीं बचा
काशी विश्वनाथ मंदिर कई बार तोड़ा गया और कई बार बनाया गया है। अब तो मूल मंदिर का कोई अवशेष दिखाई भी नहीं पड़ता है। सबसे पहले 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना ने कन्नौज के राजा को पराजित करने के बाद काशी का ये प्राचीन मंदिर ध्वस्त कर दिया था और यहाँ पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करा दिया। मंदिर को इल्तुतमिश के राज के दौरान दोबारा बनाया गया लेकिन फिर ढहाया गया। बाद में अकबर के शासन में 1585 में उनके मंत्री टोडरमल ने ये मंदिर बनवाया।
1669 में ये मंदिर फिर तोड़ा गया, इस बार औरंगजेब की सेना द्वारा। औरंगजेब ने टूटे मंदिर के मलबे से मस्जिद बनवा दी और इसका नाम औरंगजेब की मस्जिद रख दिया। टोडरमल द्वारा बनवाये गए मंदिर के अवशेष ज्ञानवापी कुएं के पास देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि मंदिर का मूल शिव लिंग इसी कुएं में बहुत नीचे कहीं है। आज की तारीख में जो विश्वनाथ मंदिर है उसका नाम विशेश्वर मंदिर था जिसे 1776 में अहिल्या बाई ने बनवाया था।
क्या है इतिहास
काशी विश्वनाथ मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। कई इतिहासकारों ने 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र किया है और उसके विध्वंस की बातें भी लिखी हैं।
- मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था।
- लेखक फ्यूहरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। फ्यूहरर के दस्तावेजों को अयोध्या के मामले में अदालत ने संज्ञान में लिया था।
- 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में लिखा कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
- इतिहासकार डॉ. ए.एस. भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में लिखा है कि महाराजा टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। इसके बाद 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान कोलकाता की विश्वप्रसिद्ध एशियाटिक लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित रखा है।
- साकी मुस्तइद खां की पुस्तक 'मासीदे आलमगिरी' में भी इस विध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक मस्जिद बनाई गई जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
बहरहाल, कई इतिहासकारों के अनुसार इस प्राचीन मंदिर को 1194 में तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया लेकिन एक बार फिर इसे 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। इसके बाद 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। लेकिन 1632 में शाहजहां ने इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी लेकिन हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण सेना विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
मराठों ने लड़ी लड़ाई
1752 से 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाहआलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया लेकिन तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का पुनरुद्धार रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र लगवाया था। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
कृष्ण जन्मभूमि
अयोध्या और काशी की तरह मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मभूमि को लेकर भी विवाद है। यह मंदिर तीन बार तोड़ा और चार बार बनाया जा चुका है। अभी भी इस जगह पर मालिकाना हक के लिए दो पक्षों में कोर्ट में विवाद चल रहा है। जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह बना हुआ है।
इतिहासकारों का मत है कि जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत समय बाद दूसरा मंदिर विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था। लेकिन 1017-18 में महमूद गजनवी ने इस मंदिर को तोड़ दिया। 32 साल बाद महाराजा विजयपाल देव के शासन में फिर मंदिर बनवाया गया। मंदिर को 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने तोड़ डाला था।
इसके लगभग 125 वर्षों बाद जहांगीर के शासनकाल के दौरान ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने इसी स्थान पर चौथी बार मंदिर बनवाया। लेकिन इसे औरंगजेब ने 1660 में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक बड़ी ईदगाह बनवा दी, जो कि आज भी मौजूद है। इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से एक मंदिर स्थापित किया गया लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है, क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
यहां प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि इस मंदिर के चारों ओर एक ऊंची दीवार का परकोटा मौजूद था। मंदिर के दक्षिण पश्चिम कोने में एक कुआं भी बनवाया गया था। इस कुएं से पानी 60 फीट की ऊंचाई तक ले जाकर मंदिर के प्रांगण में बने फव्वांरे को चलाया जाता था। इस स्थान पर उस कुएं और बुर्ज के अवशेष अभी तक मौजूद है।
इतिहासकार डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने कटरा केशवदेव को ही कृष्ण जन्मभूमि माना है। विभिन्न अध्य।यनों और साक्ष्यों के आधार पर मथुरा के राजनीतिक संग्रहालय के कृष्णदत्त वाजपेयी ने भी स्वीकारा है कि कटरा केशवदेव ही कृष्ण की असली जन्मभूमि है।
मिल चुके हैं पुरातात्विक अवशेष
- ब्रिटिश लेखक ए. डब्लू एंटविसल ने अपनी पुस्तक 'ब्रज – सेंटर ऑफ़ कृष्णा पिलग्रिमेज' में लिखा है कि कृष्ण भगवान् की जन्मभूमि को समर्पित एक मंदिर उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने बनवाया था। इसे कतरा केशवदेव भी कहा जाता था। इसी किताब में लिखा है कि इस स्थल पर हुए पुरातात्विक उत्खनन में ईसापूर्व छठ्वीं सदी के बरतन और टेराकोटा से बनी चीजें मिली थीं। इस उत्खनन में कुछ जैन प्रतिमाएं और गुप्त काल का एक यक्ष विहार भी मिला था।
- ब्रिटिश सेना के मेजर जनरल सर एलेग्जेंडर कनिंघम ने इतिहास पर कई किताबें लिखी हैं और उनके दस्तावेजों को बतौर साक्ष्य अयोध्या के केस में भी इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने मथुरा के बारे में लिखा है कि ये मुमकिन है कि पहली शताब्दी में यहाँ वैष्णव मंदिर का निर्माण किया गया हो।
- महमूद गजनवी के एक समकालीन लेखक अल उत्बी ने 'तारीख-ए-यामिनी' में महावन में हज्नावी की लूटपाट और मथुरा का जिक्र किया है। उसने लिखा है – शर के बीच में एक विशाल और भव्य मंदिर था जिसके बारे में लोग मानते थे कि उसे इंसानों ने नहीं, बल्कि फरिश्तों ने बनाया था। मंदिर की सुन्दरता का वर्णन अल्फाज या चित्र नहीं कर सकते हैं।
- महमूद गजनवी ने खुद लिखा है कि – अगर कोई इसके जैसा मंदिर बनाना कहेगा तो वो 10 करोड़ दीनार खर्च करके भी ऐसा मंदिर नहीं बना पायेगा। और सबसे हुनरमंद कारीगरों को भी इसे बनाने में 200 साल लग जायेंगे।
- एफ.एस ग्रोव्स ने अपनी किताब 'मथुरा वृन्दावन – द मिस्टिकल लैंड ऑफ़ लार्ड कृष्णा' और फजी अहमद ने 'हीरोज़ ऑफ़ इस्लाम' में लिखा है कि महमूद गजनवी ने सभी मंदिरों को जलाने और ध्वस्त करने का आदेश दिया था और सैकड़ों ऊंटों पर सोने – चांदी की मूर्तियाँ लाद कर ले गया था।
- हांस बेकार ने अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्रेड प्लेसेस इन इंडिया' में लिखा है कि विक्रम संवत 1207 में यहाँ आसमान छूता विशाल मंदिर बनवाया गया था।
- स्टीफन नैप ने 'कृष्णा डेयतीज एंड देयर मिराक्ल्स' में लिखा है कि 16 सदी की शुरुआत में वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु और वल्लभाचार्य मथुरा आये थे।
- मुग़ल शहंशाह जहाँगीर के समय के लेखक अब्दुल्लाह ने अपनी किताब 'तारीख-ए-दौदी' में लिखा है कि दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोधी ने सोलहवीं शताब्दी में मथुरा और उसके मंदिरों को तहस-नहस कर दिया था।
बनारस के राजा ने खरीदा
ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1815 में एक नीलामी के दौरान बनारस के राजा पटनीमल ने इस जगह को खरीद लिया। वर्ष 1940 में यहां पंडित मदन मोहन मालवीय आए और तीन वर्ष बाद 1943 में उद्योगपति जुगलकिशोर बिड़ला मथुरा आए। वे श्रीकृष्ण जन्मभूमि की दुर्दशा देखकर बड़े दुखी हुए। इसी दौरान मालवीय जी ने बिड़ला को श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पुनर्रुद्धार को लेकर एक पत्र लिखा। मालवीय की इच्छा का सम्मान करते हुए बिड़ला ने सात फरवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खरीद लिया। इससे पहले कि वे कुछ कर पाते मालवीय का देहांत हो गया। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, बिड़ला ने 21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की।
ट्रस्ट की स्थापना से पहले ही यहां रहने वाले कुछ मुसलमानों ने 1945 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट दाखिल कर दी। इसका फैसला 1953 में आया। इसके बाद ही यहां कुछ निर्माण कार्य शुरू हो सका। यहां गर्भ गृह और भव्य भागवत भवन के पुनर्रुद्धार और निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जो फरवरी 1982 में पूरा हुआ।