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4 हजार की चोरी पर चार क्रांतिकारियों को फांसी, काकोरी कांड के 100 साल पूरे, जानिए पूरा इतिहास

Kakori Kand History: रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग काकोरी कांड में शामिल हुए। 8 अगस्त को तय हुआ कि अगले दिन यानी 9 अगस्त 1925 को ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा जाएगा।

Sidheshwar Nath Pandey
Published on: 9 Aug 2024 3:06 PM IST (Updated on: 9 Aug 2024 4:10 PM IST)
Kakori Kand History
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Kakori Kand History (Pic: Newstrack)

Kakori Kand History: 4 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई। देश की अधिकतर आबादी गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का सामना कर रही थी। यह आंदोलन गांधी जी के बड़े पैमाने के सत्याग्रह के पहले संगठित कार्यों में से एक था। इस आंदोलन ने देश को एक उम्मीद दी। मगर चौरी-चौरा की घटना के बाद 4 फरवरी 1922 को इसे अचानक समाप्त कर दिया गया। आजादी का सपना देख रहे लोगों को बड़ा झटका लगा। मगर भारत मां ने एक नहीं अनेक क्रांतिकारी पैदा किए हैं। आंदोलन की समाप्ती के बाद 9 अगस्त 1925 को काकोरी (Kakori Kand) स्टेशन पर कुछ युवा क्रांतिकारियों ने बंदूक की नोक पर अंग्रजों का खजाना लूट लिया। यह अंग्रेजों के लिए बड़ा संदेश था। साथ ही देश के इतिहास में यह घटना सुनहरे अक्षरों में दर्ज हुई। आज उस क्रांतिकारी घटना के 100 साल पूरे हो गए हैं। Newstrack की इस रिपोर्ट में जानिए काकोरी कांड का पूरा इतिहास।


काकोरी कांड की शुरुआत

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की ओर से प्रकाशित विज्ञापन और उसके संविधान के साथ दल के नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल को बंगाल और योगेशचन्द्र चटर्जी को कानपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों के पास HRA के संविधान की ढेर सारी प्रतियों जब्त की गई थी। दोनों प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सारा भार राम प्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर आ गया। उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी उन्हीं पर था। पार्टी को चलाने के लिए पैसे की जरूरत थी। इसके लिए बिस्मिल ने दो डकैती डाली। 7 मार्च 1922 को बिचपुरी और 22 मई 1922 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। (Kakori Kand) हालांकि उनमें ज्यादा पैसे मिले नहीं मगर दो लोगों की मौत हो गई। दो की मौत से बिस्मिल की आत्मा को चोट पहुंची। तब निश्चय हुआ की केवल सरकारी खजाना ही लूटा जाएगा।

बिस्मिल के घर इमरजेंसी मीटिंग

8 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल के घर इमरजेंसी मीटिंग हुई। इसमें अगले दिन यानी 9 अगस्त 1925 को ट्रेन लूटने की योजना बनी। बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग इसमें शामिल हुए। शाहजहाँपुर से बिस्मिल के साथ अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल इसका हिस्सा बने। बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी और केशव चक्रवर्ती, बनारस से चन्द्रशेखर आजाद और मन्मथनाथ गुप्त, औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल हुए। योजना बनी कि लखनऊ से करीब 8 मील दूर काकोरी (Kakori Kand) से चलने वाली 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में रखे सरकारी खजाने को लूटा जाएगा। 9 अगस्त को क्रांतिकारी ट्रेन में सवार हुए।

जर्मन माउजर

जर्मन माउजर से लैश क्रांतिकारी

ट्रेन लूटने के लिए चढ़े क्रांतिकारियों के पास पिस्तौल तो थी ही साथ में जर्मन माउजर भी थी। जर्मन माउजर को तब का एक-47 कहा जा सकता है। माउजर के बट में कुंदा लगा लेने से वह छोटी और ऑटोमेटिक रायफल की तरह लगती थी। इससे सामने वाले को डर ज्यादा लगता था। ट्रेन अभी काकोरी (Kakori Kand) से चली ही थी कि उसका चेन खींचकर उसे रोक दिया गया। रक्षक की डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिराकर खोलने का प्रयास किया गया। खोलने की कोशिश कर रहे थे अशफाक उल्ला खाँ। बक्सा नहीं खुला। अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ाया और हथौड़े से लगे बक्सा तोड़ने।

इसी थैली में था सरकारी खजाना

4,679 रुपये, 01 आना और 06 पाई लूटे

मन्मथनाथ गुप्त के हाथ में माउजर थी। उनसे हड़बड़ी में चूक हुई। उन्होंने जल्दबाजी में माउजर का ट्रिगर दबा दिया। गोली अहमद अली नाम के यात्री को लगी और वह मौके पर ही ढेर हो गया। अब तक अशफाक उल्ला खाँ ने बक्से का ताला तोड़ दिया था। जल्द ही चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागना था। ऐसा हुआ भी, मगर जल्दबाजी में एक चादर वहीं छूट गई। अगली सुबह अखबार के पन्नों में काकोरी कांड़ (Kakori Kand) पहली हेडलाइन बनी। साथ में छूटी हुई चादर भी। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने 4,679 रुपये, 01 आना और 06 पाई लूट लिए।

चादर बनी कफन

इस कांड की जांच खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने की। सरकार ने जगह-जगह पोस्टर लगाकर क्रांतिकारियों पर इनाम घोषित कर दिया। पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती (Kakori Kand) की पोल खोल दी।

कोर्ट के आदेश की कॉपी

सुनाई गई फांसी की सजा

लूट में 10 लोग शामिल थे। 5 फरार थे। केस का नाम दिया गया "सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य"। पाँच फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्र नाथ बख्शी को भागलपुर से तब गिरफ्तार किया गया जब काकोरी-काण्ड के मुख्य प्रकरण का फैसला सुनाया जा चुका था। विशेष न्यायाधीश जे० आर० डब्लू० बैनेट की न्यायालय में काकोरी काण्ड (Kakori Kand) का केस दर्ज हुआ। 13 July 1927 को इन दोनों पर भी सरकार के खिलाफ साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।

फैसले को दी गई चुनौती

सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 July 1927 को अवध चीफ कोर्ट में चुनौती दी गई। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले (Kakori Kand) पेश हुए। वकील जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया। सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

'बिस्मिल' की वकालत

राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की। उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया। मुकदमा लखनऊ में चला। वकील जगतनारायण मुल्ला और बिस्मिल दोनों शायर भी थे। कोर्ट में बिस्मिल ने अंग्रेजी में बहस कर सबको चौंका दिया। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् ने बिस्मिल से अंग्रेजी में पूछा - "Mr. Ramprasad! from which university you have taken the degree of law ?" (श्रीमान राम प्रसाद ! आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - "Excuse me sir! a king maker doesn't require any degree" (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।)

"मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" पर चुटकी

पण्डित जगतनारायण मुल्ला ने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। इस पर 'बिस्मिल' ने फब्ती कसी।

"मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;

अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।

पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;

कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं"

पंडित बिस्मिल के कहने का मतलब था कि मुलाजिम वे नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। बिस्मिल तो राजनीतिक बन्दी हैं इसलिए उनके साथ तमीज से पेश आयें। मुल्ला जी की वकालत धरी की धरी रह गई। बाद में मुल्ला ने षड्यंत्र रच कर बिस्मिल को अपनी पैरवी करने से रोक दिया। वही वकील लक्ष्मीशंकर मिश्र को पैरवी के लिए लगाया गया जिसे बिस्मिल ने ठुकरा दिया था। नतीजतन, बिस्मील केस (Kakori Kand) हार गए।

अशफाक उल्ला खां

आखिरी फैसला

मात्र 4000 रुपये की लूट (Kakori Kand) पर कार्रवाई के लिए सरकारी कवायद में 08 लाख रुपये से अधिक खर्च हुए। इस क्रम में अंग्रेजी हुकूमत ने 40 लोगों को बंदी बनाया और 29 पर अभियोग चलाया। 22 अगस्त 1927 को आखिरी फैसला आया। राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खाँ को IPC की दफा 1(ए) व 120(बी) के तहत आजीवन कारावास और 302 व 396 के तहत फाँसी दी गई। ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं 10 साल की सजा और अगली दो दफाओं के तहत फाँसी दी गई। दो को कालापानी सहित 16 अन्य लोगों को 04 से 14 वर्ष तक की अलग-अलग सजा सुनाई गई। 14 को साक्ष्य न मिलने पर छोड़ दिया गया।

अशफाक उल्ला खां की शायरी

17 दिसंबर, 1927 को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा में, 19 दिसंबर को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला खां को फैज़ाबाद, रोशन सिंह को इलाहाबाद की जेल में फांसी की सजा दी गई। सरदार भगत सिंह ने पंजाबी पत्र किरती में लिखा कि जब अशफाक उल्ला खां को फांसी दी जा रही थी तब उन्होंने जाते हुए कुछ शेर पढ़े थे।

'फ़नाह हैं हम सबके लिए, हम पै कुछ नहीं मौकूफ़

वक़ा है एक फ़कत जाने की ब्रिया के लिए'

इसके अलावा उन्होंने कहा

'तंग आकर हम उनके जुल्म से बेदाद से,

चल दिए सूए अदम ज़िन्दाने फ़ैज़ाबाद से'

अशफाक उल्ला खां से इतर जब रामप्रसाद बिस्मिल को 19 की शाम को फांसी दी गई, तब वो बड़े ज़ोर से वंदे मातरम और भारत माता की जय के नारे लगाने लगे। उसी वक्त राम प्रसाद बिस्मिल ने कहा

'मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे

बाक़ी न मैं रहूं, न मेरी आरज़ू रहे

जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे

तेरी ही जिनेयार, तेरी जुस्तजू रहे'

जब राम प्रसाद बिस्मिल फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो उन्होंने फिर शेर पढ़ा,

'अब न अहले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,

एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है'।



Sidheshwar Nath Pandey

Sidheshwar Nath Pandey

Content Writer

मेरा नाम सिद्धेश्वर नाथ पांडे है। मैंने इलाहाबाद विश्विद्यालय से मीडिया स्टडीज से स्नातक की पढ़ाई की है। फ्रीलांस राइटिंग में करीब एक साल के अनुभव के साथ अभी मैं NewsTrack में हिंदी कंटेंट राइटर के रूप में काम करता हूं। पत्रकारिता के अलावा किताबें पढ़ना और घूमना मेरी हॉबी हैं।

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