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Kanshi Ram Ki Punyatithi: ख़ास मायने रखती है कांशीराम की 'चमचा युग'

Kanshi Ram Ki Punyatithi: कांशीराम ने दलित चेतना के क्रम में 1982 में एक किताब लिखी ‘द चमचा युग।’ इस किताब में उन्होंने दलित नेताओं के लिए चमचा शब्द का इस्तेमाल किया था।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Shreya
Published on: 9 Oct 2021 10:33 AM IST
Kanshi Ram Ki Punyatithi: ख़ास मायने रखती है कांशीराम की ‘चमचा युग’
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कांशीराम (फोटो साभार- सोशल मीडिया)  

Kanshi Ram Ki Chamcha Yug: कांशीराम ने दलित चेतना के क्रम में 1982 में एक किताब लिखी 'द चमचा युग (The Chamcha Yug)।' इस किताब में उन्होंने दलित नेताओं (Dalit Leaders) के लिए चमचा शब्द (Chamcha) का इस्तेमाल किया था। उनका कहना था कि दलित लीडर केवल अपने निजी फायदे के लिए भारतीय जनता पार्टी (BJP) और कांग्रेस (Congress) जैसे दलों के साथ मिलकर राजनीति करते हैं।

यह किताब आम्बेडकर के अभ्युदय से लेकर पूना पैक्ट, शोषित समाज के नकली नेतृत्व से होती हुई स्थायी समाधान तक पहुंचती है। चार चैप्टर की इस किताब को मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया। कांशीराम ने इस पुस्तक के बारे में लिखा है कि - "इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य दलित शोषित समाज को और उसके कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को दलित शोषित समाज में व्यापक स्तर पर विद्यमान पिट्ठू तत्वों के बारे में शिक्षित, जागृत और सावधान करना है। इस पुस्तक को जनसाधारण को और विशेषकर कार्यकर्ताओं को सच्चे एवं नकली नेतृत्व के बीच अन्तर को पहचानने की समझ पैदा करने की दृष्टि से भी लिखा गया है। उन्हें यह समझना भी आवश्यक है कि वे किस प्रकार के युग में रह रहे हैं और कार्य कर रहे हैं यह पुस्तक इस उद्देश्यह की पूर्ति भी करती है।"

काशीराम ने किताब चमचा युग में लिखा है कि- बाबा साहेब मानते थे कि वर्तमान मतदान प्रणाली दलित बहुजन को अपने सच्चे प्रतिनिधि चुनने के काम नहीं आयेगी। हिन्दू जिन आरक्षित सीटों में दलित बहुजन को खड़ा करेंगे वे दलितों के नहीं वरन हिन्दुओं के चमचे (हितैषी) होंगे।

कांशीराम (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चमचा की परिभाषा

कांशीराम ने चमचे की परिभाषा (Chamcha Ki Paribhasha) लिखी है - चमचा एक देशी शब्द है, जो ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो अपने आप क्रियाशील नहीं हो पाता है बल्कि उसे सक्रिय करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्ति उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है, जो स्वयं चमचे की जाति के लिए हमेशा नुकसानदेह होता है।

चमचों के छह प्रकार (Chamcho Ke Cheh Prakar)

कांशीराम ने पुस्तक में चमचों को छह भागों में बांटा है :

- जाति या समुदायवार चमचे।

- अनिच्छुक चमचे जिन्होंने संघर्ष करके उज्जवल युग में प्रवेश करने का प्रयास किया लेकिन गांधी और कांग्रेस ने अनिच्छुक चमचा बना दिया।

- नवदीक्षित चमचे, जिन्हें दलितों के संघर्ष के कारण पहचान एवं अधिकार मिल गया लेकिन ये अपने उत्पीड़क को अपना हितैषी समझते है।

- महत्वकांक्षी चमचे, ओबीसी वर्ग ये अब महसूस करते हैं कि वे दलितों से भी पीछे हो गये हैं इसलिए इनकी महत्वकांक्षा बहुत है। इसी कारण बहुजन आंदोलन से जुड़ रहे है।

- अल्पसंख्यक समुदाय के मजबूर चमचे - इसाई, मुसलमान, सिक्ख, बौध्द ये मजबूर चमचे हैं क्योंकि ये शासक जातियों के रहमों करम पर हैं।

- पार्टीवार चमचे - ये चमचे अपने आपको दलीय अनुशासन में जकड़े होने का हवाला देकर समाज विरोधी कार्य करते हैं।

- अबोध या अज्ञानी चमचे ऐसे लोग हैं, जो अपने शोषकों को ही अपना उध्दारक मानते हैं।

- ज्ञानी चमचे या अम्बेडकर वादी चमचे - ये वो लोग हैं जो बड़ी- बड़ी बाते करते हैं। ये लोग अम्बेडकर को पढ़ते और कोट भी करते हैं लेकिन आचरण उसके विपरीत करते हैं।

- चमचों के चम्मच - ये राजनैतिक चम्मच अपनी जाति या समुदाय में पैठ दिखाने के लिए अपने चमचे बनाते है। जो शासक जातियों की पूरी सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। शिक्षित और नौकरी पेशा वाले लोग अपने निजी फायदे के लिए इन चम्मचों की चमचागिरी करते हैं।

- विदेशी चमचे - विदेशों में रहने वाल अछूत जिन्हें लगता है कि भारत में चमचों की कमी है तो वे भारत आकर शासक जाति की चमचागीरी चालू करते हैं और अपने आपको आम्बेडकर समझने लगते है। जैसे ही दलित बहुजन आंदोलन गति पकड़ेगा वे पुनः खुले रूप में बाहर आ जायेंगे।

'चमचा युग' में कांशीराम ने डॉ. आंबेडकर की कुछ किताबों का उल्लेख किया है। ये वे किताबें हैं जिनमें डॉ. आंबेडकर ने अपने सपनों, आदर्शों, विचारों के साथ बदलाव का ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। ये किताबें हैं: भारत में जातियाँ: उनका तन्त्र, उत्पत्ति और विकास (1916), जाति का विनाश (1936), श्री गांधी और अछूतों का उद्धार (1943), कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया (1945), राज्य और अल्पसंख्यक (1947)।

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