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#KUMBH2019: औपचारिक शुभारंभ, जानिए सुनी-अनसुनी कथाएं
इस समय देश और दुनिया में सिर्फ एक नाम गूंज रहा है और वो है कुंभ का। कुंभ को विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन या मेला माना जाता है। इतनी बड़ी संख्या में सिर्फ हज के दौरान ही मक्का में मानव समुदाय इकट्ठा होता है। कुंभ लोगों को जोड़ने का एक माध्यम है, जो प्रत्येक बारह वर्ष में आयोजित होता है। इतिहासकारों का कहना है कि कुंभ पर्व डेढ़ से ढाई हजार साल पहले शुरू हुआ था।
लखनऊ: इस समय देश और दुनिया में सिर्फ एक नाम गूंज रहा है और वो है कुंभ का। कुंभ को विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन या मेला माना जाता है। इतनी बड़ी संख्या में सिर्फ हज के दौरान ही मक्का में मानव समुदाय इकट्ठा होता है। कुंभ लोगों को जोड़ने का एक माध्यम है, जो प्रत्येक बारह वर्ष में आयोजित होता है। इतिहासकारों का कहना है कि कुंभ पर्व डेढ़ से ढाई हजार साल पहले शुरू हुआ था। कुंभ का प्रथम लिखित प्रमाण बौद्ध यात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है। जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का वर्णन किया गया है।
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इस कुंभ पर्व पर हम आपको बताएंगे उन सभी प्रश्नों के उत्तर जो आपके दिलोदिमाग में उमड़ते रहते हैं।
अपनी बात हम अखाड़ों से शुरू करेंगे
अखाड़ा नाम लेते ही दिमाग में एक अलग छवि उभरती है। वह छवि होती है पुलपुली जमीन पर मिट्टी में सने पहलवान एक-दूसरे पर कुश्ती के दांव आजमाते हुए। हमारे देश में इसकी पुरानी परंपरा रही है। साधु समाज में वही परंपरा दूसरे रूप में आई। इसकी शुरुआत आदि शंकराचार्य ने उस समय की जब सनातन धर्म पर विधर्मी शक्तियां जोर आजमाइश कर रही थीं। शंकराचार्य ने तभी शारीरिक रूप से बलिष्ठ साधुओं को एकत्र कर सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखाड़ा बनाया।
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सधुक्कड़ी भाषा में अखाड़ा उसे कहते हैं जहां साधुओं का जमावड़ा रहता है। सीधे सपाट शब्दों में कहें तो अखाड़े शंकराचार्य की सेना के रूप में थे, जिन्हें धर्म की रक्षा के लिए तैनात किया गया था। एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला वाले सिद्धांत पर इन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा दी गई। व्यवस्था बनाई गई कि शंकराचार्य या उनके द्वारा नामित आचार्य जब कभी सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन अखाड़ों को शस्त्र उठाने का आदेश देंगे, यह अपना काम करेंगे। यानी सेना जैसा आचरण कि सेनापति या मुखिया के आदेश के बिना जैसे अपने विवेक से सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, अखाड़े भी मनमाना निर्णय नहीं ले सकते।
बाद में संत बढ़ते गए, उनके संप्रदाय बढ़ते गए, इनमें शैव और वैष्णव विवाद होता गया। इनकी संख्या में उसी तरह इजाफा होता गया। इन दिनों 13 अखाड़े हैं। इनमें शैवों के सात, वैष्णवों या वैरागियों के तीन और उदासीनों के तीन अखाड़े हैं। ये अखाड़े कुंभ मेले के अवसर पर कुंभ स्थलों पर डेरा डालते हैं और शंकराचार्यों व अपने-अपने अखाड़े के महामंडलेश्वरों की अगुवाई में विशेष स्नान पर्वों पर स्नान करते हैं।
इसी को शाही स्नान कहा जाता है। शैव अखाड़ों मे दशनामी, नागा संत, शाक्त आदि उप संप्रदाय भी होते हैं।
1954 में हुआ अखाड़ा परिषद का गठन
1954 के प्रयाग कुंभ मेले में स्नान को लेकर भगदड़ मची। बहुत लोग मारे गए। उसी समय अखाड़ों ने मिलकर अखाड़ा परिषद बनाया, जिसे अब अखिल भारतीय अखाडा़ परिषद कहा जाता है। इनका एक अध्यक्ष और एक महामंत्री होता है। व्यवस्था यह थी कि अगर अध्यक्ष शैव अखाड़े से होगा तो महामंत्री वैष्णव अखाड़े से, लेकिन समय-समय पर यह व्यवस्था भंग होती रही। जैसे कि इस समय है। इस समय शैव अखाड़े से ही अध्यक्ष भी हैं और महामंत्री भी वहीं से है। इसका भी विवाद चल रहा है।
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बड़े पद के लिये बड़ा खर्चा
अखाड़ों के मुखिया के रूप में महंत, श्रीमहंत जैसे पद होते हैं। इनके ऊपर महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर के पद होते हैं। शास्त्रीय पांडित्य और योग्यतानुसार इनको पद दिए जाते हैं। यह परंपरा 18वीं शताब्दी में शुरू हुई थी। महामंडलेश्वर प्राय: बड़े यानी पैसे वाले संत बनाए जाते हैं जो अखाड़ों का खर्च भी उठाते हैं। समाज में उनका सम्मान भी ज्यादा होता है। एक एक अखाड़े में कई महामंडलेश्वर हो सकते हैं पर आचार्य महामंडलेश्वर का पद एक ही होता है। अखाड़ों से जुड़े संतों के अनुसार 2001 तक अखाड़ों में 100 के करीब महामंडलेश्वर थे। 2013 के प्रयाग कुंभ में यह संख्या 300 तक पहुंच गई थी। ऐसे ही वैष्णव अखाड़ों के महामंडलेश्वरों की संख्या 2013 के प्रयाग कुंभ में 700 तक बताई गई है।
शैव अखाड़े
इनमें प्रमुख रूप से सात अखाड़े हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, दारागंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, दारागंज, इलाहाबाद
3-श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, हनुमान घाट, वाराणसी
4-श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा, दशाश्वमेध घाट, वाराणसी
5-श्री पंच अटल अखाड़ा, चौक, वाराणसी
6-श्री पंचदशनाम अग्नि अखाड़ा, गिरिनगर, भवनाथ, जूनागढ़, गुजरात
7-श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती, त्रयंबकेश्वर, नासिक, महाराष्ट्र
वैष्णव या वैरागी अखाड़े
वैष्णव या वैरागी संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं जिन्हें अनी अखाड़ा भी कहा जाता है। भगवान विष्णु इनके इष्ट हैं। इनमें वल्लभ,निम्बार्क, गौड़ीय ,सखी संप्रदाय, रामानंद, रामानुज ,माध्व आदि उप संप्रदाय हैं।
1-श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी, अयोध्या
2-श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा, धीर समीर मंदिर बंशीवट,वृंदावन, मथुरा
3-श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, शामला जी खाक चौक मंदिर, सांभरकांठा, गुजरात
उदासीन संप्रदाय
उदासीन संप्रदाय के सनातनधर्मी इन संतों के अखाड़ों में सिख संत भी शामिल हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन, कृष्णनगर, कीडगंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन, कनखल, हरिद्वार
3-श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल, हरिद्वार
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धर्मं और विज्ञान में कुंभ
सनातन हिंदू धर्म में कुंभ मेले का बहुत अत्यंत महत्व है। वेदज्ञों के मुताबिक यही एकमात्र मेला, त्योहार और उत्सव है जिसका आनंद सभी हिंदुओं को मिलकर मनाना चाहिए।
कुंभ मेले के आयोजन के पीछे भी विज्ञान है। आपको बता दें, जब-जब कुंभ की शुरुआत होती है सूर्य पर हो रहे विस्फोट बढ़ जाते हैं। ये प्रमाणिक भी है कि प्रत्येक ग्यारह से बारह वर्ष के बीच सूर्य पर परिवर्तन होते हैं।
वैज्ञानिकों अनुसार भी कुंभ और बृहस्पति के योग से धरती का जल पहले की अपेक्षा और ज्यादा साफ हो जाता है।
कुंभ हर तीन वर्ष में एक बार चार अलग-अलग स्थानों पर आयोजित होता है। अर्द्धकुंभ मेला प्रत्येक छह वर्ष में हरिद्वार और प्रयाग में आयोजित होता है जबकि पूर्णकुंभ बारह वर्ष बाद प्रयाग में आयोजित होता है। इसी तरह बारह पूर्ण कुंभ के बाद महाकुंभ 144 वर्ष बाद प्रयाग में आयोजित होता है।
कुंभ कथा
कुंभ का अर्थ होता है घड़ा या कलश। माना जाता है कि संमुद्र मंथन से जो अमृत कलश निकला था उस कलश से देवता और राक्षसों के युद्ध के दौरान धरती पर अमृत छलक गया था। जहाँ-जहाँ अमृत की बूँद गिरी वहाँ प्रत्येक बारह वर्षों में एक बार कुंभ का आयोजन किया जाता है। बारह वर्ष में आयोजित इस कुंभ को महाकुंभ कहा जाता है।
कुंभ आयोजन के स्थान
हिंदू धर्मग्रंथ के अनुसार इंद्र के बेटे जयंत के घड़े से अमृत की बूँदे भारत में चार जगहों पर गिरी- हरिद्वार में गंगा नदी में, उज्जैन में शिप्रा नदी में, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल पर। धार्मिक विश्वास के अनुसार कुंभ में श्रद्धापूर्वक स्नान करने वाले लोगों के सभी पाप कट जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ज्योतिष महत्व
कुंभ मेला और ग्रहों का आपस में गहरा संबंध है। दरअसल, कुंभ का मेला तभी आयोजित होता है जबकि ग्रहों की वैसी ही स्थिति निर्मित हो रही हो जैसी अमृत छलकने के दौरान हुई थी।
मान्यता है कि बूँद गिरने के दौरान अमृत और अमृत कलश की रक्षा करने में सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चंद्र ने कलश की प्रसवण होने से, गुरु ने अपहरण होने और शनि ने देवेंद्र के भय से की रक्षा की। सूर्य ने अमृत कलश को फूटने से बचाया। इसीलिए पुराणिकों और ज्योतिषियों अनुसार जिस वर्ष जिस राशि में सूर्य, चंद्र और बृहस्पति या शनि का संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशि के योग में जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी वहाँ कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
चार नहीं बारह कुंभ
मान्यता है कि अमृत कलश की प्राप्ति हेतु देवता और राक्षसों में बारह दिन तक निरंतर युद्ध चला था। हिंदू पंचांग के अनुसार देवताओं के बारह दिन अर्थात मनुष्यों के बारह वर्ष माने गए हैं इसीलिए कुंभ का आयोजन भी प्रत्येक बारह वर्ष में ही होता है। मान्यता यह भी है कि कुंभ भी बारह होते हैं जिनमें से चार का आयोजन धरती पर होता है शेष आठ का देवलोक में। इसी मान्यता अनुसार प्रत्येक 144 वर्ष बाद महाकुंभ का आयोजन होता है जिसका महत्व अन्य कुंभों की अपेक्षा और बढ़ जाता है।
क्या होती है पेशवाई
कुंभ क्षेत्र में आगमन के समय अखाड़े पेशवाई निकालते हैं। पेशवाई का अर्थ होता है शोभायात्रा पेशवाई में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में भी शाही खर्च जारी है युद्ध कौशल की भी प्रस्तुति होती है।
आपको बता दें, पेशवाइयों में सबसे पहले गुरु महाराज अखाड़े के आचार्य संत एवं फिर देवता फिर निशान इसके बाद डंका और फिर महामंडलेश्वर एवं अंत में संन्यासी चलते हैं। इन पेशवाइयों में अस्त्र-शस्त्रों के प्रदर्शन के साथ ही ऊंट, घोड़े, हाथी भी संतों की सवारी लिए चलते हैं। इस दौरान नागा संयासी युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते चलते हैं।
माना जाता है कि पेशवाई में भागीदार संतों के दर्शनमात्र से ही गंगा स्नान के बराबर पुण्य प्राप्त हो जाता है। माघ पूर्णिमा का पर्व 12 वर्ष के बाद एक अनूठे योग में होने से भी इसका माहात्म्य बढ़ गया है।
अखाड़े पहले प्रयाग में नगर प्रवेश करते हैं और उसके कुछ दिन बाद जब मेला क्षेत्र में अखाड़ों को भूमि आवंटित हो जाती है तब पूरी सज-धज के साथ पेशवाई जुलूस निकलते हैं। पेशवाई जुलूस अखाड़े के कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रतीक हैं। हर अखाड़े का अपना एक अलग पेशवाई जुलूस निकलता है। यह जुलूस कुंभ का पहला आकर्षण होता है। पहले के जमाने में इसे शोभा यात्रा कहा जाता था बाद में मुगलों के समय में इसे पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा।
पेशवाई हो जाने के बाद अखाड़ों के बसने की प्रक्रिया शुरू होती है।
पेशवाई के निकलने का इतिहास कितना पुराना है। इसका कोई सटीक समय तो नहीं ज्ञात है लेकिन इस परंपरा की शुरुआत उस समय से हुई थी। जब साधू-संत कहीं जाते थे तो वहां के सम्मानित लोग साधू- संतो की अगवानी करते थे. किसी समय में ऐसा हुआ होगा कि अखाड़ों ने शोभा यात्रा आदि निकालना शुरू किया होगा और बाद में उसे पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा होगा।
कितना बदल गई पेशवाई
निर्मोही अखाड़े के श्री महंत राजेन्द्र दास के मुताबिक पहले साधुओं की मंडली मेला क्षेत्र से 40 किमी दूरी डेरा डालती थी। पहले साधू समूह में आते थे। इसे शोभा यात्रा कहा जाता था। बाद में पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा। उस समय आस - पास के लोग स्वागत करते थे। आधुनिक युग जब आया तब से संत – महात्मा गाड़ियों एवं रथों में सवार होकर आने लगे। पहले यह सब कुछ नहीं हुआ करता था। आज काफी विकास हो गया है। काफी सुविधाएं बढ़ गयी हैं इसलिए अब पेशवाई जुलूस काफी साज - सज्जा के साथ निकलता है। सन्यासियों के अखाड़े थोड़ा पहले अपना पेशवाई जुलूस निकालते हैं। उसके बाद बैरागियों के अखाड़े पेशवाई जुलूस निकालते हैं।
ये अखाड़े निकालेंगे पेशवाई जुलूस
कुम्भ मेला में श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा , श्री पंच दश नाम आवाहन अखाड़ा , श्री शंभू पंच अटल अखाड़ा, श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी , श्री पंचायती अखाडा महा निर्वाणी , श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा , श्री पंच अग्नि अखाड़ा , श्री निर्मोही अनी अखाड़ा , श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा, श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन , श्री पंचायती बड़ा उदासीन एवं श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा अपनी- अपनी पेशवाई निकालते हुए कुम्भ मेला क्षेत्र में प्रवेश् करेंगे . तीर्थो के राजा तीर्थराज प्रयाग में आखाड़ो का स्वागत होने के बाद भूमि पूजन होगा। फिर अखाड़ो की बसावट शुरू होगी।
स्नान और शाही स्नान
पहले जानिए स्नान क्या होता है, शरीर की शुद्धि के लिए स्नान का महत्व है। शास्त्रों में 4 प्रकार के स्नान वर्णित हैं- भस्म स्नान,जल स्नान, मंत्र स्नान एवं गोरज स्नान।
आग्नेयं भस्मना स्नानं सलिलेत तु वारुणम्।
आपोहिष्टैति ब्राह्मम् व्याव्यम् गोरजं स्मृतम्।।
मनुस्मृति के अनुसार भस्म स्नान को अग्नि स्नान, जल से स्नान करने को वरुण स्नान, आपोहिष्टादि मंत्रों द्वारा किए गए स्नान को ब्रह्म स्नान तथा गोधूलि द्वारा किए गए स्नान को वायव्य स्नान कहा जाता है।
अब जानिए कैसे जन्मा शाही स्नान
संन्यासी योद्धाओं के कहने पर पृथ्वीराज चौहान ने राष्ट्र-ध्वज और धर्म-ध्वज को अलग कर दिया। धर्म-ध्वज को ज्यादा संवेदनशील माना गया और इसे रक्षा के लिए संयासियों को सौंप दिया गया। जबकि, राष्ट्र ध्वज को राजा ने अपने पास रखा। संन्यासियों ने धर्म-ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया।
धर्म-ध्वजा की रक्षा किए जाने के सम्मान में राजाओं ने अपनी सम्पदा एक दिन के लिए इनके हवाले कर दी और कुंभ में सबसे पहले स्नान करने का अधिकार दिया। इसी के चलते इस स्नान को ‘शाही’ स्नान नाम दिया गया।
राजा अपनी सम्पदा को दे साबित करता था कि राज्य में संन्यासियों, बैरागियों का स्थान बहुत ऊंचा है। उनके सामने राजा की अपनी हैसियत भी कुछ नहीं है।
बाद के समय में सन्तों के लिए शाही स्नान में शामिल होना एक महत्त्वपूर्ण घटना हो गया।
शाही स्नान किसी भी कुंभ का सबसे बड़ा आकर्षण बनते हैं। अखाड़ों से जुड़े सन्त सोने-चांदी की मढ़ी पालकियों, रथों, हाथी-घोड़ों पर सवार होकर स्नान के लिए जाते हैं।
कुंभ में युद्ध
वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया।
वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई।
वर्ष 1760 में शैव सन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ।
वर्ष 1796 में शैव संयासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे।
आपको हैरत होगी, अवध के नवाबों की सेना में 10 हजार गोसाईं सैनिक भी मौजूद थे ।
महाकुंभ प्रयागराज में ही क्यों
पुराणों में लिखा है कि परम पिता ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने के बाद सबसे पहला यज्ञ इसी स्थान पर किया था।
पुराणों में लिखा है,प्रयागस्य पवेशाद्वै पापं नश्यति: तत्क्षणात्।”अर्थात् प्रयाग में प्रवेश मात्र से ही समस्त पाप कर्म का नाश हो जाता है।
भगवान ब्रह्मा ने प्रयाग में प्रथम यज्ञ किया था। इसी प्रथम के प्र और यज्ञ से मिलकर प्रयाग बना था।
संस्कृत में प्रयाग का एक अर्थ‘बलिदान का स्थान जगह’भी है।
प्रयाग में ही ऋषि भारद्वाज,दुर्वासा और पन्ना को परम ज्ञान की अनुभूति हुई थी।
वर्ष 1575 में मुग़ल सम्राट अकबर ने इलाहाबास नाम से शहर की स्थापना की इसका अर्थ है- अल्लाह का शहर।
वर्ष 1858 में अंग्रेजों ने इसे नाम दिया इलाहाबाद।
इसके बाद अंग्रेजों ने इसे आगरा-अवध संयुक्त प्रांत की राजधानी घोषित कर दिया।
राजा हर्षवर्धन ने 644 सीइ में यहीं अपना सबकुछ त्याग दिया था।
भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इसका उल्लेख किया है।
ह्वेन त्सांग ने जो कुछ भी लिखा उसे कुंभ मेले का ऐतिहासिक दस्तावेज माना जाता
देश के प्रथम पीएम जवाहर लाल नेहरू यहीं के रहने वाले थे।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय इलाहाबाद देशभक्तों का मुख्य गढ़ रहा था।
महामना मदनमोहन मालवीय ने अंग्रेजी हुकूमत के सामने इसका नाम प्रयाग करने के लिए सबसे पहले आवाज उठाई थी।
वर्ष 1996 के बाद से अखाड़ा परिषद अध्यक्ष महंत नरेद्र गिरी ने नाम बदलने की मुहिम को धार दी।
देश जब स्वतंत्र हुआ तो पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू और उनेक बाद इंदिरा गांधी के सामने इलाहाबाद का नाम बदलने की मांग की गई।