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UP News: औद्योगिक क्रांति और विश्व युद्ध के बाद बीसवीं सदी की नस्लें चारों ओर से पुकारती रहीं 'क्या करें?

UP News Today: युवाओं को रोज़गार नहीं, मज़दूरों के पास काम नहीं, जिनके पास काम वे न्यूनतम वेज पर काम करने को बाध्य हैं।

Anant kumar shukla
Published on: 22 Jan 2023 5:40 PM IST (Updated on: 22 Jan 2023 5:51 PM IST)
UP News: औद्योगिक क्रांति और विश्व युद्ध के बाद बीसवीं सदी की नस्लें चारों ओर से पुकारती रहीं क्या करें?
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Lenin Theory: इस बेचैनी में गति है, तनाव है लेकिन नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की जिस 'परिंदे' कहानी को पहली आधुनिक हिन्दी कहानी का दर्ज़ा दिया; उस कहानी की पात्र लतिका परिंदों की मार्फ़त जिस 'क्या करूँ? कहाँ जाऊं?' से जूझ रही है उसमें गति नहीं है। यह आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता के विभ्रम की तैयारी है जो सत्य के वस्तुगत रूप की जिज्ञासा की बजाय सत्य को झिलमिल-झिलमिल करता है। यही कारण है कि परिंदे की नायिका तनावग्रस्त होकर भी सत्य की ठोस पहचान नहीं करती। वह अलगाव से गुज़रते हुए आत्मग्रस्त होती है। आत्मग्रस्तता को ही द्वंद्व और तनाव समझती है। पूंजीवाद की बुनियाद से उपजे अलगाववाद के कारण अब यह प्रश्न और भयावह हो गया है कि – 'क्या करें?'

युवाओं को रोज़गार नहीं, मज़दूरों के पास काम नहीं, जिनके पास काम वे न्यूनतम वेज पर काम करने को बाध्य हैं। मध्यवर्ग उत्तर-आधुनिकता के रास्ते उत्तर-सत्य में विचर रहा है। बौद्धिक शास्त्रार्थ विलास को ज्ञान समझकर मगन हैं। स्त्रियां और दलित अपने-अपने स्त्रीवाद और दलितवाद के खोल में स्वतन्त्र हैं।


क्रांति से पहले 1902 में प्रकाशित लेनिन की महत्वपूर्ण किताब 'क्या करें' ऐसे ही बिखरे हुए समाज को संगठित करने की योजनाबद्ध किताब है। एक ऐसे समाज में जहाँ तमाम विभ्रम अब सिद्धांत बन गए हैं लेनिन की यह किताब कितनी ज़रूरी है; यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है। हालांकि यह किताब पार्टी संगठन के संदर्भ में तत्कालीन कथित मार्क्सवादी विचारकों को एक जवाब है। रोबेचेये मीस्ल को इस्क्रा पत्रिका की ओर से जवाब है; बावजूद इसके यह किताब हमारे समय के विभ्रमों से उबरने के लिए ज़रूरी किताब है। सामाजिक-जनवादियों ख़ासतौर पर बर्नस्टीन जिनका मानना था कि सामाजिक क्रांति सुधार की मार्फ़त भी क्रांति कर सकती है। लेनिन ने इस किताब में बर्नस्टीन को परत दर परत उघाड़ दिया है और उनके भीतर के अवसरवाद और अर्थवाद आइने की तरह साफ़ कर दिया है।

लेनिन अन्याय के ख़िलाफ़ जनता के स्वतःस्फूर्त भावना को समझते हैं लेकिन स्वतःस्फूर्तता को अगर राजनीतिक चेतना से तेज़ न किया जाय तो वह जनता का पवित्र अनियोजित आक्रोश भीड़ भर है। क्रांति को सुधार के रस्ते ले जाकर जनता स्वतःस्फूर्तता पर छोड़ने वाले अवसरवादियों का लेनिन ने पर्दाफ़ाश किया है। इसी तरह मज़दूरों की हिमायत के नाम पर केवल ट्रेड यूनियन करने वाले अर्थवादियों की भी लेनिन ने धज्जियां उड़ा दी हैं।

अर्थवाद और अराजकतावाद को स्पष्ट कर दिया। संगठित होने के नौसिखुएपन पर उन्होंने ठोस लिखा-

" इस काल में समस्त विद्यार्थी युवकों का समुदाय मार्क्सवाद में डूबा हुआ था। ज़ाहिर है कि यह विद्यार्थी मार्क्सवाद में केवल एक सिद्धांत के रूप में नहीं डूबे हुए थे, बल्कि यूं कहें कि वे एक सिद्धांत के रूप में उसकी ओर इतना ज्यादा नहीं हुए थे जितना इसलिए कि वह उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देता था "क्या करें?", उसे वे दुश्मन के खिलाफ मैदान में उतर पड़ने के आह्वान के रूप में देखते थे। और यह नए योद्धा बहुत ही भोंडे हथियार और प्रशिक्षा लेकर मैदान में उतरते थे। बहुत से उदाहरणो में तो उनके पास प्रायः एक भी हथियार और ज़रा भी प्रशिक्षा नहीं होती थी। वे इस तरह लड़ने चलते थे, मानों किसान खेत में अपने हल छोड़कर और केवल एक-एक लाठी हाथ में उठाकर वहां से लड़ने के लिए दौड़ पड़े हों।"

समाज में आलोचना की स्वतंत्रता के नाम पर वर्चस्वशाली बुर्जुवा वर्ग की स्वतंत्रता काबिज़ थी। मार्क्सवादी पार्टियां सिद्धांत पर काम नहीं कर रही थीं। वे नितांत व्यवहारवादी हो रही थीं। आलोचना की स्वतंत्रता के माहौल में बुरुजुवा अवसरवाद संगठनों में पैठ बना चुका था कारण है- सिद्धान्त से समझौता। लेनिन ने सिद्धांत पर बल दिया और उसका मिलान व्यवहार से लगातार बनाये रखा। उन्होंने कहा- "जिस आलोचना का इतना शोर है उसका मतलब एक सिद्धांत की जगह पर दूसरे सिद्धांत की स्थापना नहीं बल्कि पूरे समेकित तथा सुविचारित सिद्धांत से छुटकारा पाना होता है, उसका मतलब होता है कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा जमा करके कुनबा जोड़ना! उसका मतलब होता है सिद्धांतहीनता।"

"हरावल दस्ते की भूमिका केवल वही पार्टी अदा कर सकती है जो सबसे उन्नत सिद्धांत से निर्देशित होती हो।"

लेकिन जनता के बीच काम करने के कारण लेनिन का व्यापक सिद्धांत कभी भी यांत्रिक नहीं हुआ।

हम साफ़ देख रहे हैं कि किस तरह समय-समय पर सिद्धांत से समझौते हुए। जनता के बीच न होने के कारण यांत्रिक सिद्धांत रटाए गए या संसदीय राजनीति की ख़ातिर प्रतिभाशाली युवाओं को अर्थवादी बनाया गया और वे क्रमशः सिद्धांत से दूर हो गए।

लेनिन ने अवसरवाद पर बराबर चोट की है- "जो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की बेवकूफी या पाखण्ड है, यह वर्ग-संघर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावों को देना है।"

मार्क्सवादी दर्शन भौतिकवादी दर्शन है। न वह यांत्रिक सिद्धांत में जीवित रह सकता है न भावववादी व्यवहार के तात्कालिक धरातल पर कुछ ख़ास बदल सकता है।

वह सिद्धान्त और व्यवहार के क्रम का गतिशील वैज्ञानिक सिद्धांत है जिसका नायाब उदाहरण लेनिन का काम है।

हमारा समय 'क्या करें?' के सवालों से बंधा हुआ है। चीख़ रहा है। आईये हम लेनिन को पढ़ें और संगठित हों।

Anant kumar shukla

Anant kumar shukla

Content Writer

अनंत कुमार शुक्ल - मूल रूप से जौनपुर से हूं। लेकिन विगत 20 सालों से लखनऊ में रह रहा हूं। BBAU से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएशन (MJMC) की पढ़ाई। UNI (यूनिवार्ता) से शुरू हुआ सफर शुरू हुआ। राजनीति, शिक्षा, हेल्थ व समसामयिक घटनाओं से संबंधित ख़बरों में बेहद रुचि। लखनऊ में न्यूज़ एजेंसी, टीवी और पोर्टल में रिपोर्टिंग और डेस्क अनुभव है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर काम किया। रिपोर्टिंग और नई चीजों को जानना और उजागर करने का शौक।

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