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लोकसभा चुनाव: अब तक का सबसे ठंडा चुनाव

seema
Published on: 10 May 2019 11:17 AM GMT
लोकसभा चुनाव: अब तक का सबसे ठंडा चुनाव
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धनंजय सिंह

लखनऊ: लोकतंत्र के 67 साल के सफर में तंत्र से लोक की दूरी निरंतर बढ़ती जा रही है। नेता के पास अब इतना समय और फुर्सत नहीं है कि वह क्षेत्र की जनता से रूबरू होकर उसे अपने रहनुमा होने का अहसास करा सके। अगर पिछले 67 सालों का ठीक से आकलन करें तो भी यह तस्वीर उभरती है कि 2019 का लोकसभा चुनाव अब तक का सबसे ठंडा चुनाव है। पहले लोकसभा का चुनाव तीन से पांच चरणों में संपन्न हो जाता था मगर इस बार सात चरणों में चुनाव हो रहा है। अगर आप मीडिया से कुछ समय के लिए खुद को दूर कर दें तो आपको कहीं भी चुनावी माहौल नहीं दिखेगा। न गाडिय़ों पर चुनावी नारों का शोर, न पोस्टर-बैनर और न ही नुक्कड़ सभाएं। गली-मुहल्लों में लगने वाली चाय-पान की दुकानों पर भी चुनावी चर्चा कम ही दिख रही है। अब तक चुनाव के पांच चरण हो चुके हैं, इसके बावजूद आम आदमी में उत्साह नजर नहीं आ रहा है। कभी चुनाव बड़े उत्सव के रूप में हुआ करते थे, लेकिन इस बार आम आदमी चुनाव में ज्यादा दिलचस्पी लेता नहीं दिख रहा है।

2014 की अपेक्षा मतदान प्रतिशत गिरा

सिर्फ इतना ही क्यों पिछले पांच चरणों में जिस तरह 2014 की अपेक्षा मतदान प्रतिशत गिरा है वह भी किसी अप्रत्याशित परिणाम की ओर इशारा करता लगता है। परिणाम चाहे जो हों, लेकिन इस बार मतदाता बेहद खामोश है। इस बाबत राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शायद इसके पीछे मूल कारण यह है कि इस बार आम मतदाता को इस बात का एहसास हो गया है कि राजनीतिक दल या फिर नेता उनके मुद्दे नहीं उठा रहा है। सिर्फ हिंदू-मुस्लिम, धर्म, जाति-पांति, धर्म-मजहब की बातें हो रही हैं। चुनावी जुमलों की बातें हो रही हैं। कोरे सपने दिखाए जा रहे हैं। आम मतदाता का मानना है कि वह हमेशा से ही ठगा गया। पिछले लोकसभा चुनाव के पहले और बीते विधानसभा के चुनावों में भी जनता से बढ़-चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया, लेकिन दोनों जगहों पर सरकार बनने के बाद उसके मुद्दे हवा हो गए।

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समय के साथ प्रचार का तरीका बदला

पहले के चुनाव प्रचार में और अब के प्रचार में बहुत बदलाव आया है। पहले ना तो बड़े बड़े पोस्टर होते थे और ना ही होर्डिंग्स, बस लोहे की शीट पर प्रत्याशी का नाम व पार्टी का चुनाव लिखकर चुनाव जीतने की अपील की जाती थी। प्रत्याशी पर्चे बांटकर चुनाव में वोट देने की अपील करते थे, लेकिन अब पर्चे का प्रयोग कम हुआ है। बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाए जाते हैं। पहले पार्टियां चुनावी घोषणा पत्र तैयार करती थी, शहर के गणमान्य लोगों को उसकी प्रतियां बांटी जाती थी, इस पर चर्चा होती थी। लेकिन अब नहीं होती। कार्यकर्ताओं को खाने पीने का कोई खर्चा नहीं दिया जाता था। इसलिए खर्चा कम होता था, लेकिन अब चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं के लिए खाने-पीने की पूरी व्यवस्था होती है जिससे चुनाव बहुत खर्चीला हो गया है। आज कोई किसी से पूछने वाला नहीं है कि चुनाव क्यों लड़ा जा रहा है? चुनाव प्रचार के लिए छोटी-छोटी मीटिंग ज्यादा होती थी, लेकिन अब बड़ी मीटिंगों पर पैसा और समय खर्च किया जाता है। पहले के चुनाव प्रचार में भोजपुरी, अवधी और फिल्मी गानों का जबरदस्त इस्तेमाल होता था, जो अब कहीं-कहीं दूरदराज के इलाकों में ही दिखता है। चुनावी माहौल में स्थानीय गीतकार, गायक एवं रिकॉर्डिंग करने वाले भी व्यस्त रहते थे। पोस्टर बैनर का दौर और कारोबार भी अब ठप हो गया है।

बिना संसाधनों के होते थे प्रचार

पहले ना तो इतनी गाडिय़ां होती थीं और न ही इतने न्यूज चैनल और अखबार होते थे। अब तो जमाना ही बदल गया है। वो पुराना दौर कहीं नजर नहीं आ रहा। आजादी के बाद पार्लियामेंट के चुनाव भी असेम्बली के साथ होते थे। बाद में इसमें बदलाव किया गया। चुनाव प्रचार साधारण तरीके से होता था। अब तो छोटे-बड़े सभी कार्यकर्ताओं के पास गाडिय़ां हैं। वो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाते है। इसलिएचुनाव लडऩा पहले से सरल हो गया है। पहले पार्टियों की ओर से गांवों में बिल्ले और झंडे दिए जाते थे,बच्चे बिल्ले इकट्ठे कर कई दिन तक संभालकर रखते थे। उन्हें चुनाव का मतलब ही पता नहीं था, लेकिन अब जागरुकता आने से छोटे बच्चे भी चुनाव का अर्थ समझने लगे हैं। कार्यकर्ता लगातार पांच साल तक जनता के बीच रहकर काम करते थे। सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि अब कार्यकर्ताओं का भावनात्मक लगाव अब खत्म होने लगा है। पार्टी बदलने में समय नहीं लगाते।

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पहले समर्पित होते थे कार्यकर्ता

पहले चुनाव प्रचार दिखावटी नहीं होता था। इसलिए पैसा भी बहुत कम खर्च होता था। चुनाव लडऩे वाले का व्यवहार बहुत मायने रखता था। कार्यकर्ता समर्पित रहता था। अब काफी कुछ बदलाव आया है। जो भी निर्णय लिए जाते थे, सामूहिक रूप से संगठन हित में लिए जाते थे। अब चुनाव में पैसा प्रमुख हो गया है, पैसा नहीं है तो आप चुनाव जीत ही नहीं सकते। चुनाव लडऩे वाला अपनी जेब से पैसा लगाता था, यहां तक की चुनाव में बूथ पर स्टॉल भी कार्यकर्ता अपनी ही जेब से लगाते थे, लेकिन अब कार्यकर्ता पैसा खर्च नहीं करता है। पार्टी या प्रत्याशी के पैसे से ही काम होता है।

हाईटेक हुआ प्रचार

अब प्रचार भी पूरी तरह हाईटेक हो गया है। आपके पास 200 या इससे ज्यादा फॉलोअर्स हैं और आपके ट्वीट्स को काफी रिट्वीट किया जा रहा है, तो आप राजनीतिक पार्टियों के लिए काफी काम के हो सकते हैं। हो सकता है कि बिग डेटा की मदद से आपको ट्रैक भी किया जा रहा हो। कई बार उम्मीदवार अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ नेगेटिव प्रचार के लिए भी ट्वीट का इस्तेमाल करते हैं। करीब तीन करोड़ ट्वीटर यूजर्स में से 200 लोग ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल राजनीतिक प्रचार में खूब हो रहा है। चुनावी दंगल में ट्वीटर कैंपेन काफी चर्चित हो रहा है। इसके अलावा एप्लीकेशन बेस्ड ऑनलाइन म्यूजिक रेडियो स्टेशन जैसे सावन और गाना डॉट कॉम आदि वेबसाइट्स को भी पार्टियां अपने कैंपेन के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। पार्टियां इन वेबसाइट्स पर अपनी प्ले-लिस्ट बना रही हैं।

भाजपा खासकर डिजिटल प्लेटफॉर्म का जमकर इस्तेमाल कर रही है। वॉट्सऐप और ईमेल का इस्तेमाल टारगेट वोटरों को मैसेज भेजने के लिए बहुत हो रहा है। नेता अपने इलाके के वोटरों से अपनी रिकॉर्डेड आवाज में वोट देने की अपील कर रहे हैं।सभी दल अपने यू ट्यूब चैनल पर रैली और दूसरे चुनाव प्रचार के वीडियो भी दिखा रहे हैं। उनके समर्थक फेसबुक और व्हाट्सअप पर ग्रुप बनाकर चुनावी मुहिम में शामिल है। वहीं नेता गूगल हैंगआउट और फेसबुक पेज के जरिये वोटरों से बातचीत कर रहे हैं। वोटरों तक पहुंचने के लिए बिग डेटा का भी काफी इस्तेमाल हो रहा है।

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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