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Lucknow News: मूर्तिकार पिता की निशानी पाने के लिए न्याय की बाट जोह रही विधवा पत्नी और बेटियां

Lucknow News: जाने माने मूर्तिकार के घर वाले उस कलाकार के निधन के बाद आर्ट्स कॉलेज लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा लगातार असहयोगात्मक रवैए के चलते उपेक्षा का शिकार हो रहें हैं। अपने मृत पिता की उन मूर्तियों को अंतिम निशानी के तौर पर वापस लेने के लिए पिछले 20-25 सालों से चक्कर लगा रहे हैं।

Jyotsna Singh
Published on: 5 Sep 2023 1:48 PM GMT (Updated on: 5 Sep 2023 2:11 PM GMT)
Lucknow News: मूर्तिकार पिता की निशानी पाने के लिए न्याय की बाट जोह रही विधवा पत्नी और बेटियां
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Dinesh Pratap Singh Arts

Lucknow News: जिस मूर्तिकार की उंगलियों के जादू ने न जाने कितनी कलाकृतियों को गढकर लोगों से वाहवाही बटोरी होगी और अपनी अद्भुत कला की पहचान के चलते न जाने कितने प्रशस्ति पत्र और सम्मान पत्र से अलंकृत किया गया होगा, उस जाने माने मूर्तिकार के घर वाले उस कलाकार के निधन के बाद आर्ट्स कॉलेज लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा लगातार असहयोगात्मक रवैए के चलते उपेक्षा का शिकार हो रहें हैं। अपने मृत पिता की उन मूर्तियों को अंतिम निशानी के तौर पर वापस लेने के लिए पिछले 20-25 सालों से चक्कर लगा रहे हैं पर विश्वविद्यालय प्रशासन के कान में जूं नहीं रेंग रही है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (ललित कला संकाय) में मूर्ति कला विभाग में रीडर रहे स्व. दिनेश प्रताप सिंह के परिजन वाराणसी में रहते हैं। उनका लखनऊ विश्वविद्यालय के आर्टस कालेज में पेंटिग में दाखिले के बाद जब उनके पिता को श्रीधर महापात्र की मूर्तिकला देखने का अवसर मिला। तो उन्होंने बाद में मूर्तिकला में दाखिला ले लिया। अपनी विलक्षण प्रतिभा और विनम्र स्वभाव की वजह से गुरूओं और छात्रों में बेहद प्रिय रहे दिनेश प्रताप सिंह को उनकी लगभग सभी कलाकृतियों को अवार्ड मिलते रहे हैं।

यहां तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपालानी ने उन्हे अदभुत मूर्तियों को गढ़ने लिए सम्मानित किया। उस दौरान हर समाचार पत्र में उनकी मूर्ति कला के चर्चे होते रहे। स्वाभिमानी और ईमानदार व्यक्तित्व के धनी दिनेश प्रताप सिंह ने अपनी कलाकृति को कभी बेचने का प्रयास नहीं किया। यहां तक कि उनकी कला के चर्चे खजुराहो की गलियों में भी गूंजने लगे। जिस कारण उन्हें खजुराहो फेस्टिवल में भी आमंत्रित किया गया।

अपने ही पिता की धरोहर को पाने के लिए करना पड़ रहा संघर्ष

दिनेश प्रताप सिंह ने अपनी कालजई कृति समुद्र मंथन, सूर्य प्रतिमा समेत अन्य मूर्तियों की एक कला प्रदर्शनी भी लखनऊ विश्वविद्यालय के ललित कला अकादमी में लगाई। उस कला प्रदर्शनी की समाप्ति के बाद अपनी उन मूर्तियों को वापस लाने के लिए दिनेश प्रताप सिंह को ललित कला संकाय द्वारा 1986 में पत्र द्वारा सस्तुति भी प्राप्त हो गई। लेकिन इसी दौरान उन्हें कैंसर जैसी घातक बीमारी ने घेर लिया। जिसमें एक लंबा समय बीत गया। इस बीच 11 मार्च, 1990 को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के उपरांत उनकी विधवा पत्नी, बेटियों और बेटों ने इन मूर्तियों को पाने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी, इस लड़ाई को लड़ते-लड़ते दिनेश प्रताप सिंह के बड़े बेटे की भी मृत्यु हो गई। अब उनकी अति वृद्ध पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा हताशा के साथ इस लड़ाई में जीत हासिल करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं।

दिनेश प्रताप सिंह के निधन के बाद 1994 से उनकी पत्नी और बेटियां लगातार लखनऊ विश्वविद्यालय के चक्कर लगा रहे हैं। इस सम्बन्ध में न जाने कितने मंत्रियों और विभागों को अपने पति की मूर्तियों को वापस लेने के लिए घर वाले प्रार्थना पत्र दे चुके हैं। मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर भी प्रार्थनापत्र दिया जा चुका है। पर विश्वविद्यालय प्रशासन लगातार उन्हे टरकाने का काम कर रहा है। संकाय प्रमुख रतन कुमार भी मूर्तियों को वापस देने के लिए तैयार नहीं है। उनका कहना है कि इसको घर ले जाकर क्या करेंगें। जबकि खुले आसमान के नीचे रखी ये कालजई कृति अब धीरे-धीरे अपना अस्तित्व समाप्त कर रही है। अब जबकि दिवंगत दिनेश प्रताप सिंह के घर वालों के पास इसके अधिकार के लिए कई प्रमाणिक साक्ष्य मौजूद हैं। बावजूद इन सारे साक्ष्यों को अनदेखा कर ललित कला संकाय लखनऊ एक होनहार मूर्तिकार के परिजनों को लगातार टरकाने का काम कर रहा है।

क्या कहते हैं परिजन?

इस सम्बन्ध में दिवंगत दिनेश प्रताप सिंह की पुत्रियां,जो कि बनारस में स्वयं कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य कर रहीं, रेवा और रेखा एवम उनकी पत्नी का कहना है कि दिनेश प्रताप सिंह ने अपने अध्ययन काल के दौरान लखनऊ कला महाविद्यालय में अनेकानेक कालजयी कृतियों का सृजन किया था। उनमें से तीन मूर्तियाँ सागर मंथन, वात्सल्य और अवधि जिन्हें पिताजी ने अपने मेटेरियल से बनाया था, आज भी महाविद्यालय में ही रखी हैं। 1965 में पिताजी की नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर हो गई और वो बनारस आ गये। कुछ वर्ष बाद ही उन्हें गले का कैंसर हो गया। उस समय कैंसर लाइलाज था, चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। ये खबर जंगल की आग की तरह पूरे कला जगत में फैल गई। कुछ निम्नस्तरीय मानसिकता के कलाकार सक्रिय हो गये और उनकी मूर्तियों को हड़पने का षडयन्त्र रचने लगे। ईश्वर की कृपा से पिताजी बच गये। उपचार के बाद जब पिताजी लखनऊ आर्ट्स कालेज गये तो अपनी अनमोल कृतियों की दुर्दशा और अपने अथक परिश्रम का अपमान देख कर बहुत दुखी हुए। उनकी मूर्तियों पर रंग की मोटी मोटी परतें चढ़ा दी गईं थीं जिस पर पिताजी ने कड़ी आपत्ति की। उसी समय उन्होंने अपनी मूर्तियों को बनारस लाने का निर्णय ले लिया। 1986 में उन्होंने तत्कालीन विभागाध्यक्ष (मूर्तिकला विभाग) अवतार सिंह पवार से लिखित अनुमति ले ली पर 1990 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

उनके जाते ही निम्नस्तरीय कलाकारों का वो समूह पुनः सक्रिय हो गया। उनकी मूर्तियों को हड़पने का फिर से षडयन्त्र रचने लगा। हमने 1990 से लगातार लखनऊ आर्ट्स कालेज के प्रिंसिपल से ले कर मुख्यमंत्री तक सभी को आवेदन दिया पर किसी ने भी हमें कोई उत्तर नहीं दिया। व्यक्तिगत रूप से मिलने पर सब कोई ना कोई बहाना बना देते थे। विडम्बना ये है कि लखनऊ आर्ट्स कालेज के जो भी प्रिंसिपल हुए वो सभी पिताजी को बहुत अच्छी तरह से जानते थे। 1994 में तत्कालीन प्रिंसिपल रघुनाथ महापात्र की अनुमति से उनमें से सिर्फ एक मूर्ति ही बनारस लाई जा सकी। सीमेन्ट से बनी इन भारी मूर्तियों को एक साथ लाना हमारे लिए संभव नहीं था । क्योंकि हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हम उस समय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे थे जो आज तक जारी है। कला जगत के निकृष्ट कलाकारों ने आपस में साठ गाँठ कर हर कदम पर हमें परेशान किया। उन्होंने हमें कला जगत से दूर रखने के लिए भरसक प्रयत्न किए। हमें अपनी पढ़ाई तक के लिए संसद तक आवाज उठानी पड़ी। उन्होंने हमें ना तो कोई स्कालरशिप मिलने दी ना ही कहीं नौकरी ही लगने दी।

अभी अप्रैल,2023 में हमने वर्तमान प्रिंसिपल रतन कुमार को मूर्तियों की वापसी हेतु आवेदन दिया पर उन्होंने हमें उत्तर तक देने की जरूरत नहीं महसूस की। हमारे पास स्वयं पिताजी द्वारा लिया गया अनुमति पत्र है फिर भी रतन कुमार को मूर्तियाँ वापस करने में आपत्ति है। क्यों ? उन्हें और क्या प्रमाण चाहिये ? उन्हें मेरे पिता की मूर्तियों को रखने का कोई अधिकार नहीं। रतन कुमार के इस उदासीन रवैये को देखते हुए अब हमारे पास मुख्यमंत्री जी से गुहार लगाने के अलावा और दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा है। इसी के साथ सन 1965 में राज्य ललित कला अकादमी की प्रदर्शनी में पिताजी द्वारा निमित कृति ‘सूर्य’ प्रदर्शित हुयी थी, जिस पर उन्हें अवार्ड भी मिला था। सीमेंट से निर्मित यह मूर्ति आसानी से उठायी नहीं जा सकती थी।

अतः प्रदर्शनी के खत्म होने के बाद भी यह मूर्ति अकादमी मे ही रखी रही, इस बीच 1965 मे ही पिताजी की नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद पर हो गयी। पिताजी ने अपने घर में अपनी मूर्तियों के स्थान को सुनिश्चित कर रखा था। अपने आवास के ऊपरी हिस्से में आर्च के ऊपर पिताजी सूर्य प्रतिमा को स्थापित करने वाले थे। वो उसे बनारस ला पाते इससे पहले ही दुर्भाग्यवश 1990 में उनका आकस्मिक निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद जब हमने राज्य ललित कला अकादमी को सूर्य प्रतिमा की वापसी हेतु आवेदन किया तो उन्होंने उसे अपने रजिस्टर में डोनेटेड कृति के रूप दर्ज बताया। डोनेशन की एक प्रक्रिया होती है, इतनी बड़ी संस्था बिना दान पत्र भरे या बिना किसी लिखा पढ़ी के किसी कृति को डोनेटड कैसे कह सकती है? अकादमी आज तक हमें पिताजी द्वारा लिखित कोई साक्ष्य नहीं उपलब्ध करा पायी है। राज्य ललित कला अकादमी जैसी संस्थायें जो कलाकारों के हितों की रक्षा हेतु बनायी गयी हैं यदि वही सम्मानित कलाकारों के साथ अन्याय करने लगेंगी ते ऐसी संस्थाओं के होने का क्या औचित्य है?

Jyotsna Singh

Jyotsna Singh

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