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Mahakumbh 2025: नेपाल से लेकर अफगानिस्तान तक फैली हैं अघोर पंथ की जड़ें, जानिए अघोरपंथ से जुड़े रहस्यों के बारे में

Aghori Koun Hote Hain:अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी शमशान में तंत्र क्रिया करने वाल ऐसे साधू हैं, जिनकी वेशभूषा डरावनी होती है।

Jyotsna Singh
Written By Jyotsna Singh
Published on: 7 Dec 2024 2:07 PM IST
Aghori Koun Hote Hain
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Aghori Koun Hote Hain (Photo- Social Media)

Aghori Koun Hote Hain: सामाजिक दुनिया से दूर शिव की उपासना में लीन रहने वाले नागा और अघोरियों को कुंभ के दौरान देखा जा सकता है। अपनी विशेष वेशभूषा और कई पारलौकिक शक्तियों के धनी इन संतों के दर्शन पाने के लिए लोगों के भीतर विशेष उत्सुकता बनी रहती है। आधी रात के बाद घोर अंधकार के समय जब हम सभी गहरी नींद में सोए रहते हैं, उस समय घोरी-अघोरी-तांत्रिक श्‍मशान में जाकर तंत्र-क्रियाएँ करते हैं। घोर साधनाएँ करते हैं। अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी शमशान में तंत्र क्रिया करने वाल ऐसे साधू हैं, जिनकी वेशभूषा डरावनी होती है। वहीं नागा साधु ब्रह्मकाल में उठकर स्नानादि करके अपने ईश की उपासना में लीन हो जाते हैं। आइए जानते हैं कि नागा साधू और अघोऱी दोनों के जीवन शैली कितनी अलग होती है और अघोर पंथ की क्या विशेषता होती है-

ये होती है उपासना की परंपरा

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव को अघोर पंथ का प्रणेता माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शिव जी ने ही अघोर पंथ की उत्पत्ति की थी। जिसके अनुसार अघोर शास्त्र के गुरु भगवान शिव के अवतार भगवान दत्तात्रेय हैं।

वहीं नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में गुरु बनाना अनिवार्य माना जाता है। गुरु अखाड़े का मुखिया या अखाड़े का ही कोई बड़ा विद्वान होना चाहिए। क्योंकि नागा साधु बनने की प्रक्रिया तभी पूरी होती है जब गुरु की शिक्षा उचित तरीके से प्राप्त की जाए। नागा साधु प्रशिक्षित योद्धा होते हैं। वहीं अघोरी बाबा बनने के लिए किसी गुरु की जरूरत नहीं होती है। क्योंकि उनके गुरु स्वयं भगवान शिव हैं और अघोरियों को भगवान शिव का पांचवां अवतार माना जाता है। वहीं अघोरी श्मशान में बैठकर तप करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से उन्हें दैवीय शक्तियां प्राप्त होती हैं।

Photo- Social Media

नागा और अघोरी शब्द का ये होता है मतलब

साधु वेश धारण करने वाला नागा संत और अघोरियों के बीच क्या फर्क होता है । आमतौर पर लोग इस रहस्य से अनभिज्ञ होते हैं। शिव उपासक होने के बावजूद दोनों की जीवन शैली और उपासना के तरीकों में जमीन आसमान का अंतर होता है।

बात नागा साधुओं की करें तो ’नागा’ शब्द को लेकर मान्यता है कि यह शब्द संस्कृत के ’नागा’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ ’पहाड़’ से होता है और इस पर

रहने वाले लोग ’पहाड़ी’ या ’नागा’ कहलाते हैं। वहीं बात अघोरियों की करें तो अघोर विद्या वास्तव में डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना होता है। अघोर का अर्थ है अ$घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। सरल बनना बड़ा ही कठिन है। सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है। साथ ही इस शब्द को पवित्रता और सभी बुराइयों से मुक्त भी समझा जाता है।

ये होता है रहन सहन का तरीका

अघोरियों को रहन-सहन और तरीके इसके विपरीत दिखते हैं। शिव साधना की इस अनोखी शाखा अघोरपंथ का अपना विधान है, अपनी अलग विधि है, अपना अलग अंदाज है। ज्यादातर अघोरी श्मशान घाट पर रहते हैं। वहीं कई अघोरी गुफाओं और सूनसान इलाकों में भी रहते हैं। अघोरपंथी साधक अघोरी कहलाते हैं। खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। वहीं नागा संन्यासी पैदल भ्रमण के दौरान कुछ दिन एक गुफा में रहते हैं फिर दूसरी गुफा में चले जाते हैं। इसके चलते उनकी सटीक स्थिति का पता लगाना मुश्किल होता है। अखाड़ों के ज्यादातर नागा साधु हिमालय, काशी, गुजरात और उत्तराखंड में स्थापित अखाड़ों में रहते हैं।

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दोनों की ऐसी होती है वेशभूषा

नागा साधु और अघोरी बाबा, दोनों के शरीर पर धारण किए जाने वाली वस्तुओं के बीच काफी अंतर है। नागा साधु जहां नग्न होकर घूमते हैं तो वहीं अघोरी बाबा अपने शरीर के निचले हिस्से को ढकने के लिए जानवरों की खाल या कोई अन्य कपड़ा पहनते हैं। अघोरी पोस्टमार्टम अनुष्ठानों में संलग्न होते हैं और अक्सर वे खंडहर भूमि में रहते हैं। अघोरी अपने शरीर पर श्मशान की राख लगाते हैं और कपाल और आभूषण बनाने के लिए मानव शवों की हड्डियों का इस्तेमाल करते हैं।

ऐसा होता है दोनों का खान-पान

एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी इसी तरह गुफाओं को बदलते और भोले बाबा की भक्ति में डूबे नागा जड़ी-बूटी और कंदमूल के सहारे पूरा जीवन बिता देते हैं। कई नागा जंगलों में घूमते-घूमते सालों काट लेते हैं। वो बस कुंभ या अर्ध कुंभ में नजर आते हैं। 24 घंटे केवल एक ही समय भोजन करने वाले नागा साधु भिक्षा मांग कर लिया गया भोजन ग्रहण करते हैं। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार होता है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। वहीं अघोरियों के लिए ये बात प्रचलित है कि उनके पंथ में इंसान का कच्चा मांस खाने की प्रथा है। अक्सर ये अघोरी श्मशान घाट की अधजली लाशों को निकालकर उनका मांस खाते हैं, वे शरीर के द्रव्य भी प्रयोग करते हैं। इसके पीछे उनका मानना है कि ऐसा करने से उनकी तंत्र करने की शक्ति प्रबल होती है। वहीं जो बातें आम जनमानस को वीभत्स लगती हैं, अघोरियों के लिए वो उनकी साधना का हिस्सा है।

ब्रह्मचर्य को लेकर दोनों पंथों में ये होती हैं मान्यताएं

नागा संत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। ब्रह्मचारी की 12 वर्ष की परीक्षा के बाद ही इनके पांच गुरु या पंच परमेश्वर शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। वहीं अघोरी अन्य साधुओं की तरह ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते। बल्कि शव पर राख से लिपटे अघोरी मंत्रों और ढोल नगाड़ों के बीच शारीरिक संबंध बनाते हैं। यह शारीरिक सम्बन्ध बनाने की क्रिया भी तंत्र साधना का ही हिस्सा होती है। कहा जाता है कि ऐसा करने से अघोरियों की शक्ति बढ़ती है।

दोनों पंथों में इन जीवों को दी जाती है महत्ता

भगवान शिव के उग्र रूप काल भैरव का वाहन काला कुत्ता है। यही वजह है कि अघोरियों का कुत्तों से काफी जुड़ाव होता है। वहीं गाय, बकरी जैसे जानवरों से दूरी बनाने वाले अघोरी अपने साथ और आस-पास कुत्ता रखना पसंद करते हैं। जबकि नागा साधुओं के अखाड़ों में गौसेवा का बहुत महत्व है।

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तीन तरह की साधनाएं करते हैं अघोरी

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव को अघोर पंथ का प्रणेता माना जाता है। अघोरी खुद को पूरी तरह से शिव में लीन करना चाहते हैं। शिव के पांच रूपों में से एक रूप ’अघोर’ है।

अघोरी श्‍मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्‍मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। ऐसी साधनाएँ अक्सर तारापीठ के श्‍मशान, कामाख्या पीठ के श्‍मशान, त्र्यम्‍बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्‍मशान में होती है।

इस तरह होती है अंधेरी रात में अघोरियों की साधना

रात के समय शिव साधना करने वाले अघोरी पंथ में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पाँव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है। शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्‍मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहाँ प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है। और श्मशान साधना, जहां हवन किया जाता है। ऐसी साधनाएँ अक्सर तारापीठ के श्‍मशान, कामाख्या पीठ के श्‍मशान, त्र्यम्‍बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्‍मशान में होती है।

हर जाति धर्म के लोग होते हैं इस पंथ में शामिल

'औघड़पनथ' के अनुयायियों में सभी जाति के लोग, मुस्लिम तक शामिल हैं।पश्चिम के कुछ विद्वानों ने भी इस पंथ पर अपने अध्ययन में चर्चा भी की है।

जिसमें हेनरी बालफोर और विलियम क्रुक का नाम शामिल है। विलियम क्रुक ने अघोरपन्थ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपूताना के आबू पर्वत को बतलाया है, किन्तु इसके प्रचार का पता नेपाल, गुजरात एवं समरकन्द जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है और इसके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है। वहीं हेनरी बालफोर की खोजों से विदित हुआ है कि इस पंथ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं। अघोरियों का मानना है कि हर व्यक्ति अघोरी के रूप में जन्म लेता है। उनका कहना है कि जैसे एक अबोध बालक के समान अघोरी भी हर गंदगी और अच्छाई को एक ही नजर से देखते हैं।

अघोर पंथ का ये है प्रमुख ग्रन्थ

’विवेकसार’ अघोर पन्थ का एक प्रमुख ग्रन्थ है, जिसमें बाबा किनाराम ने ’आत्माराम’ की वन्दना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य पुरुष व निरंजन है, जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्त रूपों में वर्तमान है। जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रन्थ में उन अंगों का भी वर्णन है, जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टि रहस्य, काया परिचयय, पिंड ब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है।

अगले तीन में योगसाधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में सम्पूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है। बाबा किनाराम ने इस पन्थ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमशः चार मठों की स्थापना की। जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है।

नेपाल से लेकर अफगानिस्तान तक स्थापित हैं अघोर पंथियों के तांत्रिक पीठ

भारतीय परम्परा की एक कड़ी अघोर पंथ की दुनिया कितनी व्यापक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पंथ के सिद्ध पीठ नेपाल से लेकर अफगानिस्तान तक स्थित हैं। जिनमें से कुछ मुख्य सिद्ध पीठों से यहां आपको अवगत कराया जा रहा है।

विंध्याचल-

विंध्याचल की पर्वत श्रृंखला जगप्रसिद्ध है। यहां पर विंध्यवासिनी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थल में तीन मुख्य मंदिर हैं- विंध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा। इन मंदिरों की स्थिति त्रिकोण यंत्रवत है। इनकी त्रिकोण परिक्रमा भी की जाती है।

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कहा जाता है कि महिषासुर वध के पश्चात माता दुर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गई थीं। भगवान राम ने यहां तप किया था। वे अपनी पत्नी सीता के साथ यहां आए थे। इस पर्वत में अनेक गुफाएं हैं जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं। आज भी अनेक साधक, सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहां भेंट हो सकती है।

कालीमठ

हिमालय की तराइयों में नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है। यहां अनेक साधक रहते हैं।


यहां से 5,000 हजार फीट ऊपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है, जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। कालशिला में भी अघोरियों का वास है। माना जाता है कि कालीमठ में भगवान राम ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है

हिंगलाज धाम

हिंगलाज धाम अघोर पंथ के प्रमुख स्थलों में शामिल है। हिंगलाज धाम वर्तमान में विभाजित भारत के हिस्से पाकिस्तान के बलूचिस्तान राज्य में स्थित है। यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से 120 किलोमीटर और समुद्र से 20 किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर-पश्चिम में 125 किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है।



माता के 52 शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है। यहां हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कट कर गिरा था। यह अचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है। इसे भावसार क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है।

मदुरई

दक्षिण भारत में औघड़ों का कपालेश्वर का मंदिर है। आश्रम के प्रांगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है और भी समाधियां हैं।


मंदिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि-विधान से की जाती है।

कोलकाता का काली मंदिर

रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां काली का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं।


इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।

तारापीठ

तारापीठ को तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सबमें समान रूप से प्रमुख और पूजनीय माना गया है। इस स्थान पर सती पार्वती की आंखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं इसलिए यह शक्तिपीठ बन गया।

चित्रकूट

अघोर पंथ के अन्यतम आचार्य दत्तात्रेय की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिए तीर्थस्थल है। औघड़ों की कीनारामी परंपरा की उ‍त्पत्ति यहीं से मानी गई है। यहीं पर मां अनुसूया का आश्रम और सिद्ध अघोराचार्य शरभंग का आश्रम भी है। यहां का स्फटिक शिला नामक महाश्मशान अघोरपंथियों का प्रमुख स्थल है।

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जगन्नाथ पुरी

जगतप्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और विमला देवी मंदिर, जहां सती का पाद खंड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी स्थित है, जिसे वशिष्ठ कहते हैं। इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है।


इस श्मशान के पार्श्व में मां तारा मंदिर के खंडहर में ऋषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएं स्थापित हैं। जगन्नाथ मंदिर में भी श्रीकृष्णजी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है।

नेपाल

नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही स्थित हैं। अघोरेश्वर भगवान राम के शिष्य बाबा सिंह शावक रामजी ने काठमांडू में अघोर कुटी स्थापित की है।


उन्होंने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन रामजी ने समाजसेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परंपरा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है।

अफगानिस्तान

अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परंपरा के संतों को दान में दिया था। इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं। औघड़ रतनलालजी यहां पीर के रूप में आदर पाते हैं। उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियां इस स्थल पर आज भी श्रद्धा-नमन के लिए स्थित हैं।



Shashi kant gautam

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