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आज भी मैला ढो रहीं है महिलाएं, आजादी के बाद भी जारी हैं कुप्रथा
लखनऊ: आम तौर पर लोग चिप्स के पैकेट और फलों के छिलकों को भी यहां-वहां फेंकने से बाज नहीं आते। वहीं दूसरी तरफ शहर में कुछ औरतें ऐसी भी हैं जो सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं। इतना पढ़ कर एक बार में लगेगा कि शायद यहां नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान से जुड़ी कोई नई-पुरानी बात हो रही हैं। मगर ऐसा नहीं है। असल में ये एक अनोखी मगर शर्म की बात है जो इत्तेफाक से स्वच्छता अभियान से भी जुड़ती हुई दिखती है।
एक तरफ पूरे देश में सफाई की सिर्फ बातें ही नहीं हो रहीं बल्कि गंदगी के खिलाफ अभियान भी चल रहे हैं, लेकिन सेंट्रल मिनिस्ट्री में पीएम के बाद नम्बर 2 मंत्री राजनाथ सिंह के संसदीय क्षेत्र और राजधानी लखनऊ में कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहां आज भी शुष्क शौचालय बने हुए हैं और मैला ढोने की कुप्रथा आजादी के 67 साल बाद भी जारी है। ये अलग बात है कि ग्लोबलाइजेशन के शुरुआती दौर में ही इस कुप्रथा के खिलाफ कानून बन चुका था। लेकिन लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में कल्बे आबिद वार्ड है। यहां 20 से 25 घर ऐसे हैं जहां अभी भी शुष्क-शौचालय और मैला ढोने को मजबूर औरतें ऐसी कुप्रथा के खिलाफ बने कानून की परतें खोलते दिखते हैं।
कब बना था कानून?
मौजूदा वक्त से 14 साल पहले साल 1993 में कांग्रेस पावर में थी और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। इसी दौरान संसद में कानून बनाकर इस पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसके तहत शुष्क शौचालय बनाने और मैला ढोने के लिए कर्मचारी नियुक्त करने पर सजा का प्रावधान है।
आजादी के बाद लगभग चौथे दशक में सरकार को देश की उस जनता का ख्याल आया जिन्हें लोग आज भी गिरी हुई नजरों से देखते हैं और मुंह फेर लिया करते हैं। सरकार को लगा कि सर पर मैला ढोना ग्लोबलाइजेशन के दौर में ठीक नहीं। इसके लिए कानून बनाया गया और तय किया गया कि 2007 की दिसंबर 31 तक इस प्रथा को पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा।
कानून बनाने के बाद सरकार ने इस बारे में सुध तक नहीं ली, लेकिन 14 साल बाद होश आने पर सरकार को लगा कि इस प्रथा को खत्म करने में वो अब तक नाकाम रही है। एक मौका खुद को और देते हुए सरकार ने अब फिर ऐलान किया है कि 31 मार्च 2009 तक इस कुप्रथा को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा। लेकिन सत्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। यानी, इस महीने इस 'हवाई ऐलान' को पूरे सात साल हो जाएंगे!
क्या हैं मौजूदा हालात ?
कल्बे अाबिद वार्ड के इन 20-25 घरों में शुष्क शौचालय का इस्तेमाल होने के साथ-साथ सुबह और शाम के वक्त औरतें मैला ढोने आती हैं। 20-25 रुपए प्रति घर के हिसाब से मेहनताना कमाने वाली ये औरतें अपने पास एक डलिया रखती हैं जिसमें उठाया गया मैला रख कर अपने सर पे ढोती हैं।
क्या कहती हैं औरतें?
जब इन औरतों से इनके काम और समाज में इनकी स्थिति के बारे में पूछा गया तो इनका दर्द ऐसे बाहर आया जैसे जबान पर ही रखा हो। हाथ में झाड़ू लिए कमलावती (बदला हुआ नाम) ने बताया- "मैला ढोने के काम की वजह से लोग न तो पास फटकते न ही बात करते हैं। अगर कोई दूसरा काम करना चाहें तो लोग वो भी नहीं करने देते।", वहीं लतारानी (बदला हुआ नाम) का कहना है- "मेरा बेटा मुझे ये काम करने से मना करने लगा है।", इन औरतों के बच्चों का कहना है कि लोग हमारे पास नहीं आते और पास बिठाते भी नहीं।
एक तरफ देश में मेक इन इंडिया का काॅन्सेप्ट आ चुका है जिससे आधुनिकता की तरफ बढ़ते हुए देश, तरक्की के नए मुकाम हासिल करने की पुरजोर कोशिशों में लगा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ देश ऐसी कुप्रथाओं से बाहर आना नहीं चाहता। कुछ और हो न हो, लेकिन ये दृश्य देखकर कहीं न कहीं इंसानियत जरूर शर्मिंदा होती है। सबसे बड़ी बात ये है कि समृद्ध समाज इसे बेशर्मी से देख कर भी अनदेखा कर रहा है।