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मेरठ के मंशा देवी मंदिर में पूरी होती हैं भक्तों की मुरादें
मेरठ: उत्तर प्रदेश में मेरठ जिले में मेडिकल कॉलेज के पास मेरठ-कालियागढ़ी, जागृति विहार स्थित मंशा देवी मंदिर का सैकड़ों वर्ष पुराना है। सिद्धपीठ मंशा देवी मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक है। नवरात्र में यहां मेला लगता है। मान्यता है कि मां मंशा देवी यहां आने वाले अपने सभी भक्तों की मुरादें पूरी करती हैं।
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मंशा देवी के सिद्धपीठ होने से जुड़ी कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि लंका नरेश रावण हिमालय से तपस्या करके देवी शक्ति साथ लाए थे। उन्हें यह शक्ति बीच रास्ते में नहीं रखनी थी। रावण को जब लघुशंका आई तो उन्होंने एक ग्रामीण को यह पकड़ा दी। रावण के हाथ से निकलते ही देवी शक्ति यहां स्थापित हो गर्इ। इसके बाद यह शक्ति मां मंशा देवी के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुर्इं। बताया जाता है कि मां मंशा देवी की यहां मिट्टी की छोटी मूर्ति थी, बाद में यहां मंदिर का निर्माण कराया गया।
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मंदिर के पुजारी भगवत गिरि का कहना है कि यहां सच्चे मन से की गर्इ प्रार्थना मंशा देवी जरूर सुनती हैं। मनोकामना पूरी करने के बाद श्रद्धालुओं द्वारा देवी के भंडारे का आयोजन किया जाता है, जिसका विशेष महत्व है। उन्होंने कहा कि सेना में भर्ती आैर देश की सीमा पर ड्यूटी करने वाले सैनिक देवी से आशीर्वाद मांगने जरूर आते हैं।
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मंदिर में वैसे तो रोजाना ही भक्त माता के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं, लेकिन नवरात्र में मां मंशा देवी के दर्शन करने के लिए मेरठ ही नहीं अन्य शहर और प्रदेशों से भी भक्त यहां पहुंचते हैं। दुर्गा अष्टमी और नवमी को यहां सबसे अधिक भीड़ होती है। इस दौरान भक्तों की सुरक्षा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारी पुलिस बल तैनात रहता है।
बताया जाता है कि यह मंदिर कभी जंगल में हुआ करता था। उस वक्त भी यहां पूजन के लिए भक्त दूर-दूर से आते थे। भक्तों को मां मंशा देवी की पूजा पर इतना विश्वास है कि जो बेटियां शादी होने के बाद किसी अन्य शहर व प्रदेश चली गयी वह अभी भी पूजन को यहां आती हैं।
मंदिर में भक्तों को व्रत के नौ दिन मां के नौ रूपों के दर्शन कराए जाते हैं। सोमवार को आसमानी व मंगलवार को लाल या नारंगी रंग, बुधवार को मां को हरे रंग का चोला, गुरुवार को पीला, शुक्र को सफेद, शनिवार को नीला या काला, रविवार को लाल रंग और का चोला चढ़ाया जाता है।
बताते हैं कि बहुत पहले माता मंशा देवी कालियागढ़ी और आसपास की बस्तियों की कुल देवी हुआ करती थीं। तब बियाबान जंगल में माता की छोटी सी मठिया होती थी। समय बदला तो माता की छोटी से मठिया विशाल मंदिर में परिवर्तित हुई। यह मराठाकालीन मंदिर है।
इसलिए इस मंदिर की मूल बनावट तो मराठाकालीन मंदिरों की तरह ही गुंबदनुमा है। मराठाकाल 1790 से 1803 के बीच का माना जाता है। 90 के शुरुआती दशक में श्रद्धालुओं की भीड़ को देखते हुए यहां नया भवन बना, लिहाजा बाहर से यह आधुनिक मंदिर की तरह ही दिखता है।
मंदिर में नवरात्र में विशेष-पूजा अर्चना होती है। रोजाना श्रद्धालु भंडारे करते हैं। प्राचीन काल में यहां केवल मां मंशा देवी का ही मंदिर होता था, लेकिन अब मंदिर परिसर में शिव व हनुमान जी की मूर्ति भी स्थापित हो चुकी हैं। इसके साथ ही यहां शनि मंदिर भी है।
मां मंशा देवी को कालियागढ़ी सहित आसपास रहने वाले परिवार अपनी कुलदेवी मानते थे। पुजारी भगवत गिरि बताते हैं कि उनकी ही पीढ़ी मां मंशा की सेवा करती आ रही है। पूरा प्रयास किया जाता है कि मंदिर आने वाले भक्तों को कोई दिक्कत न हो। मां सभी की मुरादें पूरी करती हैं।