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मनरेगा की 160 रुपए की मजदूरी से आखिर कैसे परिवार का पेट भरे किसान ?

Newstrack
Published on: 7 Feb 2016 3:07 PM GMT
मनरेगा की 160 रुपए की मजदूरी से आखिर कैसे परिवार का पेट भरे किसान ?
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महोबा: पेट की भूख जब जलाती है तो आदमी घास की रोटी तक खाने को मजबूर हो जाता है। इतिहास के अनुसार, अकबर की सेना से लड़ते हुए जंगलों में भटक रहे चितौड़ के राजा महाराणा प्रताप को भी घास की रोटी खानी पड़ी थी। वह तो देशभक्त थे और अपने राज्य को बचाने के लिए मुगल सेना से लड़ रहे थे, लेकिन यहां तो मामला यूपी के बुंदेलखंड का है, जो प्राकृतिक संसाधनों से खुशहाल है, लेकिन पिछले कई साल से सूखे का ऐसा ग्रहण इस इलाके को लगा कि सबकुछ बर्बाद होता दिखाई दे रहा है। खेत सूखे हैं। पीने का पानी नहीं है। खाने को अनाज नहीं है। लोग कहीं और नौकरी के लिए पलायन कर चुके हैं। जो बचे हैं वह दो वक्त की रोटी के लिए अपने परिवार के साथ जद्दोजहद कर रहे हैं। मजबूरी में लोग पेट भरने के लिए घास की रोटी तक खाने को मजबूर हैं।

सूखे पड़े खेतों से नाउम्मीद हो चुके किसानों ने अब मनरेगा का फावड़ा थाम लिया है। इससे मिलने वाली मजदूरी इनके परिवार के लिए नाकाफी साबित हो रही है। किसानों का पूरा परिवार मनरेगा में मजदूरी कर भूख से लड़ रहा है। कभी घर से नहीं निकलने और घूंघट से चेहरा नहीं निकालने वाली महिलाएं भी मजदूरी करने के लिए विवश है।

मनरेगा से पूरी नहीं हो रहीं जरूरतें

खेतों से निराश और कर्ज से डूबे किसान की एकमात्र उम्मीद अब मनरेगा ही है। ये उनकी जरूरतों को तो पूरा नहीं करती, लेकिन दो जून की रोटी जरूर दे रही है। शहरों में यदि पूरा परिवार कमाने वाला हो तो उसे उच्च धनाढ्य की श्रेणी में रखा जाता है, लेकिन बुंदेलखंड में यह सिर्फ दो समय की रोटी का जरिया बन कर रह गया है। बढ़ती महंगाई में मुट्ठी में भी नहीं समाने वाली मजदूरी नाकाफी है।

पेट पालने के लिए मनरेगा में काम करते किसान पेट पालने के लिए मनरेगा में काम करते किसान

11 लाख हैं जॉबकार्ड धारक

बुंदेलखंड के सातों जिलो में मनरेगा के 11 लाख जॉबकार्ड धारक हैं। इसमें सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित महोबा जिला है, जहां मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों की संख्या पांच गुना बढ़ गई है। मजदूरी से दो वक्त की रोटी तो मिल रही है, लेकिन घर के और काम रुके हुए हैं। यहां और काम से मतलब बच्चों की शिक्षा उनके स्कूल फीस तथा कपड़ों से नहीं है। पढ़ने वाली छात्रा शिवानी भी तालाब खुदाई में काम कर अपने परिवार को आर्थिक तंगी से उबारने का प्रयास कर रही है। उसे इस काम के बदले 160 रुपये बतौर मेहनताना मिलता है जो उसके परिवार के लिए पूरा नहीं पड़ता।

दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहे हैं किसान

किसान बल्लू अपने परिवार को पालने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहा है। मनरेगा की मजदूरी से मगर उसका परिवार नहीं पल पा रहा। मिलने वाले 160 रुपए परिवार की अपेक्षा कम पड़ रहे हैं। इस बात का जवाब किसी सरकार या चल रही अनाज सुरक्षा योजना को चलाने वाले विभाग के पास नहीं है कि 150 दिन की मजदूरी के बाद साल के बाकी बचे 215 दिन मजदूरी कर रहा किसान क्या करेगा।

वोटों की फसल काटने आते हैं नेता। वोटों की फसल काटने आते हैं नेता।

क्या कहते हैं मुख्य विकास अधिकारी ?

मुख्य विकास अधिकारी शिवनारायण दावा करते हैं कि जिले में सभी को मनरेगा में काम दिया जा रहा है। रोजगार दिवस मनाकर भी लोगों को मनरेगा के प्रति जाग्रत किया गया है। जॉब कार्ड न भी होने पर इच्छुक व्यक्ति को काम दिया जा रहा है।

वोटों की फसल काटने आते हैं नेता

राजनीतिक दल गरीबों की पेट की आग बुझाने तो नहीं आते। हां उनके वोटों की फसल काटने जरूर आ रहे हैं, मौसम जो चुनाव का आ रहा है। कोई आता है और कहता है बुंदेलखंड को 7,500 करोड़ रुपए दिए गए थे। पैसे कहां गए। तो कोई कह रहा है केन्द्र बुंदेलखंड के लिए पैसे नहीं दे रहा क्या करें। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है, लेकिन संवेदनहीन राजनीतिक दल उसकी ओर ध्यान कहां दे रहे हैं।

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