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Mulayam Singh Yadav Birthday: जानें क्यों और कैसे बना 1988 मुलायम सिंह के लिए टर्निंग प्वाइंट

Mulayam Singh Yadav: मुलायम सिंह उन दिनों प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा सम्पादित अखबार 'जन' तथा 'चौखम्भा' से वे बहुत प्रभावित थे।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 22 Nov 2022 6:40 AM IST (Updated on: 22 Nov 2022 6:41 AM IST)
Netaji Mulayam Singh Yadavs to-the-point political journey, know why and how 1988 became the turning point for Mulayam Singh
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जानें क्यों और कैसे बना 1988 मुलायम सिंह के लिए टर्निंग प्वाइंट: Photo- Newstrack

Mulayam Singh Yadav: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव और साधारण किसान परिवार से राजनीति में आए मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने अपनी राजनीतिक समझ और वैचारिक दृढ़ता से न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर अपनी जो पहचान बनायी, वह बेमिसाल है। वे सही अर्थों में उत्तर प्रदेश में गैर-कॉंग्रेसवाद के ध्वजवाहक बने। मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने वैसे तो अपने जीवन का पहला विधानसभा चुनाव वर्ष 1967 में लड़कर जीता और उस वक्त के सबसे युवा विधायक (Mulayam Singh Yadav becomes youngest MLA) बने। लेकिन उनके जीवन में राजनीति का अंकुरण वर्ष 1960 में तभी हो गया था जब वे जनपद इटावा के के.के. डिग्री कॉलेज में छात्र थे।

'जन' तथा 'चौखम्भा' से प्रभावित

मुलायम सिंह उन दिनों प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डॉ. राममनोहर लोहिया (Dr. Ram Manohar Lohia) द्वारा सम्पादित अखबार 'जन' तथा 'चौखम्भा' से वे बहुत प्रभावित थे। उसी के चलते यादव ने छात्र राजनीति में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना शुरु कर दिया था। उन में समाजवादी विचारधारा के प्रति लगाव इसी काल से शुरू हो गया था। आगे के वर्षों में उन्होंने स्थानीय स्तर पर सहकारिता के चुनाव भी जीते थे। वर्ष 1974 और 1977 का विधानसभा चुनाव उन्होंने जीता था।


रामगोपाल यादव कहते हैं

मुलायम सिंह यादव के बारे में उनके चचेरे भाई और सपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफेसर राम गोपाल यादव ठीक ही कहते हैं," एक किसान परिवार से आये। जिन्हें कोई राजनीतिक विरासत नहीं मिली। यह सिर्फ उनकी कड़ी मेहनत का नतीजा था कि मुलायम एक जन समर्थन का आधार तैयार कर पाए और देश में इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत बन पाए। दरअसल, यह समाजवादी विचारधारा में संघर्ष का वह तत्त्व था, जिसने उनकी कामयाबी की राह प्रशस्त की।"

1977 में सहकारिता मंत्री बने

वर्ष 1975 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी द्वारा देश में आपातकाल लगाए जाने के बाद वर्ष 1977 में आम चुनाव कराए गए। इन चुनावों में नवगठित जनता पार्टी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए केन्द्र और कई राज्यों में अपनी सरकारें बनाई थीं। उत्तर प्रदेश में भी रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें मुलायम सिंह यादव सहकारिता और पशुपालन मन्त्री थे। यद्यपि कालान्तर में रामनरेश यादव को हटाकर बनारसी दास को मुख्यमन्त्री बनाया गया। लेकिन मुलायम सिंह यादव सहकारिता मन्त्री बने रहे।


गैर कॉंग्रेसवाद के पहले ध्वजवाहक

वर्ष 1980 आते-आते जनता पार्टी का विघटन हो गया। केन्द्र की सरकार गिर गई। आम चुनाव कराए गए। इस चुनाव में यद्यपि मुलायम सिंह हार गए। लेकिन वे विधान परिषद में चुने गए। वहाँ नेता प्रतिपक्ष बने। इसी काल में वे लोकदल के प्रदेश अध्यक्ष भी बने जो बाद में जनता दल में विलीन हुआ। सही अर्थों में कहा जाय तो मुलायम सिंह यादव ही उत्तर प्रदेश में गैर कॉंग्रेसवाद के पहले ध्वजवाहक बने। वर्ष 1967 में जब पूरे देश में कॉग्रेस का बोलबाला था, तब मुलायम संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा के बैनर पर चुनाव लड़े और विजय हासिल की।

रामसेवक यादव का संरक्षण

उस समय प्रख्यात समाजवादी नेता रामसेवक यादव संसोपा के राष्ट्रीय महामन्त्री थे। इनका राजनीतिक संरक्षण मुलायम सिंह यादव को मिला। रामसेवक यादव डॉ. राममनोहर लोहिया के शिष्य थे। उनके साथ समाजवादी कार्यक्रमों में भाग लेने अनेक बार विदेश भी गए थे। समाजवाद के प्रचार-प्रसार में रामसेवक यादव की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसी के साथ तत्कालीन समाजवादी पुरोधा मधुलिमये, राजनारायण तथा कर्पूरी ठाकुर जैसों के साथ का मुलायम सिंह यादव पर काफी असर पड़ा। मुलायम के मन में समाजवाद के प्रति दृढ़ता आयी।

चरण सिंह के संपर्क में आना

लोहिया की राजनीतिक विचारधारा और चौधरी चरण सिंह की दृढ़ता का समन्वय मुलायम सिंह में था। कालान्तर में मुलायम सिंह यादव तत्कालीन वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और लोकदल के प्रणेता चौधरी चरण सिंह के सम्पर्क में आए। उनकी किसान राजनीति से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश के किसानों की बेहतरी के लिए चरण सिंह के कार्यों को अमली जामा पहनाना शुरू किया।


टर्निंग प्वाइंट

वर्ष 1980 में मुलायम सिंह यादव को लोकदल की उत्तर प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। मुलायम सिंह ने अत्यन्त मेहनत और सूझ-बूझ से इस दायित्व को निभाया और पार्टी तथा अपने व्यक्तित्व दोनों को निखारा। वर्ष 1987 में चौधरी चरण सिंह का निधन हो गया। उसी के बाद वर्ष 1988 में उत्तर प्रदेश में दो विधानसभा और एक लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव होने थे। यह उपचुनाव मुलायम सिंह के लिए बड़ा परिवर्तनकारी साबित हुआ। एक तरह से कहें तो यह उनके राजनीतिक जीवन का 'टर्निंग प्वाइन्ट' था।

टाण्डा सीट जिताने की जिम्मेदारी

उत्तर प्रदेश की टाण्डा विधानसभा (तत्कालीन जनपद फैजाबाद) तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की छपरौली विधानसभा क्षेत्रों में तथा इलाहाबाद लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव होने थे। टाण्डा सीट तत्कालीन कैबिनेट मन्त्री तथा कद्दावर नेता जयराम वर्मा के निधन से खाली हुई थी। इलाहाबाद सीट से अमिताभ बच्चन सांसद थे जिन्होंने बोफोर्स तोप कांड में अपना नाम आने से लोकसभा से अपना इस्तीफा दे दिया था। टाण्डा सीट पर गोपीनाथ वर्मा लोकदल से प्रत्याशी थे। पार्टी की तरफ से टाण्डा सीट पर चुनाव जिताने की जिम्मेदारी मुलायम सिंह यादव को सौंपी गई, छपरौली सीट की जिम्मेदारी चरणसिंह के पुत्र चौधरी अजीत सिंह को तथा इलाहाबाद लोकसभा सीट, जिस पर वी.पी. सिंह चुनाव लड़ रहे थे, की जिम्मेदारी चौधरी देवीलाल को सौंपी गई थी।

पश्चिम का नेता पूरब में छा गया

इस चुनाव में एक खास बात यह हुई कि मुलायम सिंह वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते रहे। लेकिन टाण्डा जैसी पूर्वी उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीट पर चुनाव कार्य देखने के कारण इस क्षेत्र की उनकी समझ बढ़ी। यहाँ के नेताओं व पार्टी कार्यकर्ताओं से भी उनका करीबी सम्पर्क बना जो आगे चलकर उनको पूरे प्रदेश का नेता बनाने में बहुत काम आया। मुलायम सिंह ने अपनी राजनीतिक समझबूझ तथा अथक परिश्रम से टाण्डा विधानसभा सीट पर पार्टी प्रत्याशी गोपीनाथ वर्मा को जिता दिया। उनकी धाक बन गई।

सीएम पद के लिए अजीत को किया चित

इस चुनाव के तत्काल बाद के दिनों में तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में और खासकर मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन में भारी परिवर्तन आया। मुलायम सिंह की ऐसी ही राजनीतिक सूझबूझ का नतीजा था कि आने वाले दिनों में प्रदेश में मुख्यमन्त्री बनने को लेकर उनके और चौधरी अजीत सिंह के बीच जो विकट राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता चली उसमें मुलायम सिंह विजयी होकर निकले थे।


विपक्षी एकता पर देवीलाल के साथ

इलाहाबाद में वी.पी. सिंह की भारी मतों से जीत और कॉंग्रेस प्रत्याशी सुनील शास्त्री की हार से उत्साहित होकर चौधरी देवीलाल ने विपक्षी नेताओं को सुझाव दिया कि बिखरे हुए छोटे-छोटे दलों को एक होकर एक बड़ी और दमदार पार्टी बनानी चाहिए। मुलायम सिंह, देवीलाल के विचारों के समर्थन में थे और एक बयान में उन्होंने कहा कि परिवर्तन की राजनीति में उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही अहम् भूमिका का निर्वाह किया है और आगे भी करता रहेगा। उन्होंने कहा कि मैं समान विचारों वाले दलों के साथ उत्तर प्रदेश में विलय के लिए तैयार हूँ।

बहुगुणा से नाइत्तफाकी

स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा उस समय लोकदल के अध्यक्ष थे। वह इस तरह के ढीलेढ़ाले गठबन्धन के खिलाफ थे। उन्होंने सुझाव दिया कि सारे विपक्षी समूहों को साझी विचारधारा के आधार पर एक किया जाना चाहिए। मुलायम और देवीलाल अपने नेता के इन विचारों से इक्तफाक नहीं रखते थे। जल्द ही बहुगुणा और देवीलाल में मतभेद होने लगा। वे एक दूसरे की आलोचना करने लगे। इसी बीच लोकदल (ब) के राज्य विधायक दल ने देवीलाल के एकता प्रस्ताव का समर्थन कर दिया।

बहुगुणा अलग थलग पड़े

मुलायम ने विपक्ष को एक करने का जिम्मा खुद उठा लिया ताकि कॉंग्रेस को सत्ता से बाहर किया जा सके। अगस्त 1988 के आखिर में देवीलाल द्वारा बुलाई गई एक बैठक में संचालन समिति का गठन किया गया ताकि विलय के मुद्दे पर चर्चा की जा सके। यह संचालन समिति बाद में बंगलौर में फिर मिली ताकि नई पार्टी के गठन को हरी झंडी दी जा सके। जैसी कि उम्मीद थी, हेमवती नन्दन बहुगुणा ने उस बैठक से दूर रहने का फैसला किया। क्योंकि वह अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ गए थे। ऐसे तमाम असन्तोषों को दरकिनार कर बंगलौर सम्मेलन ने जनता पार्टी, लोकदल और जनमोर्चा के विलय की मन्जूरी दे दी और 01 अक्टूबर, 1988 को जनता दल का गठन किया गया।


मुलायम यूपी में सबसे मजबूत

इस प्रकार भारी उथल-पुथल के दो-तीन वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने खुद को उत्तर प्रदेश में विपक्ष का सबसे मजबूत नेता बना लिया। मुलायम सिंह को नवगठित जनता दल का उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और चौधरी अजित सिंह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बने। उधर केन्द्र में वी.पी. सिंह ने बोफोर्स मुद्दे को गरम कर रखा था। इधर अक्टूबर 1989 में मुलायम सिंह लोहिया ट्रस्ट का गठन कर एक चतुराई भरा कदम चले ताकि इसी बैनर पर सारे समाजवादियों को एक मंच पर लाया जा सके क्योंकि चुनाव काफी नजदीक आ रहे थे।

कांग्रेस ने कर डाली बड़ी गलती

उधर, कॉंग्रेस बोफोर्स काण्ड की वजह से बुरी तरह फँस गई थी। उसने लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ करवाने का फैसला किया। क्योंकि वह प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी पर किए जा आरोपों के हमले से लोगों का ध्यान बँटाना चाहती थी। मुख्यमन्त्री नारायण दत्त तिवारी भी चुनाव चाहते थे क्योंकि वे सोच रहे थे कि ऐसा होने से विपक्ष असमंजस में आ जाएगा। चुनाव के नजदीक 27 सितम्बर 1989 को उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद को अयोध्या के विवादित परिसर में शिलान्यास की अनुमति दे दी। कॉंग्रेस की यही वह गलती थी जिसका खमियाजा आज तक वह चुनावों में भुगतती रही है।

मुलायम अजीत ने मतभेद भुलाए

बहरहाल, इन सब राजनीतिक परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि मुलायम और अजीत सिंह जो कटु राजनीति विरोधी थे, ने बड़े हितों के लिए अपने मतभेद भुला लिए और टिकट बँटवारे के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग पर राजी हो गए। दूसरी तरफ मुलायम के इस कदम से तिलमिलाई काँग्रेस ने उनके मर्मस्थल पर चोट करने के लिए कभी मुलायम के दाहिने हाथ रहे दर्शन सिंह यादव को अपने पाले में करने का फैसला किया। दर्शन सिंह यादव उस समय मुलायम सिंह यादव से नाराज चल रहे थे क्योंकि इटावा जिला परिषद की अध्यक्षता के लिए हुए चुनाव में मुलायम ने अपने चचेरे भाई रामगोपाल यादव को उम्मीदवार बना दिया था।

जनता दल विजयी हो कर उभरा

बहरहाल, आम चुनाव घोषित हुए और कई महीनों की जोड़-तोड़ और तमाम समझौतों के बाद नवगठित जनता दल ने 1989 का लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव जीत लिया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनता दल को 208, कॉंग्रेस को 94 और भाजपा को 57 सीटें मिलीं। 29 नवम्बर 1989 को प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और जनता दल ने वी.पी. सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में अपनी सरकार बना ली।


यूपी में सीएम पद की लड़ाई

लेकिन उत्तर प्रदेश में अपनी भारी जीत पर जश्न मनाने के बजाय जनता दल में मुख्यमन्त्री पद के लिए झगड़ा शुरु हो गया। चुनाव में दिख रही सारी एकता गायब हो गई। सबने अपनी-अपनी तलवारें खींच लीं। लड़ाई की मुख्य भूमिका में मुलायम सिंह और अजित सिंह थे। जबकि सूत्रधार थे वी.पी. सिंह और अरुण नेहरु। चूँकि मुलायम सिंह ने न सिर्फ चुनावों में सफल नेतृत्व किया था बल्कि जनता दल के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि मुख्यमन्त्री उन्हें ही बनाया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और इसके लिए भारी राजनीतिक नाटक किया गया।

चंद्रशेखर वीपी की रस्साकशी

केन्द्र में 02 दिसम्बर, 1989 को वी.पी. सिंह ने प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली। इस दौरान मुलायम सिंह ने भॉप लिया था कि उत्तर प्रदेश की गद्दी प्राप्त करने के लिए उन्हें वी.पी. सिंह की मदद चाहिए होगी क्योंकि उत्तर प्रदेश जनता दल के विधायकों की एक बड़ी संख्या वी.पी. सिंह की भक्त थी। यही कारण था कि दिल्ली में जब जनता दल के सांसदों की बैठक में चन्द्रशेखर और वी.पी. सिंह के बीच नेता चयन की रस्साकशी चल रही थी तो मुलायम सिंह ने खुलकर वी.पी. सिंह की तरफदारी की थी और एक समय के अपने गुरु चन्द्रशेखर को नाराज कर दिया था।

चंद्रशेखर को झटका

शुरू में बी.पी. सिंह ने सांसदों की बैठक में प्रधानमन्त्री पद के लिए चौधरी देवीलाल का नाम प्रस्तावित किया था। लेकिन एक बड़ा बलिदान करते हुए जाट नेता देवीलाल ने बी.पी. सिंह के लिए कुर्सी छोड़ दी और उनको प्रधानमन्त्री बनाने का सुझाव दिया। उस सुझाव का तत्काल अजित सिंह ने समर्थन किया और वी.पी. सिंह भारत के सातवें प्रधानमन्त्री चुन लिए गए। चन्द्रशेखर ने इसे अपने लिए धोखा माना क्योंकि वह अंतःपुर के राजनीतिक षडयन्त्रों से अवगत नहीं थे और वे हमेशा खुद को इस पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार मानते आए थे। उन्होंने महसूस किया कि वी.पी. सिंह ने उनके सामने से गद्दी छीन ली है। उन्होंने अपने विश्वस्तों से उस वक्त कहा भी था कि देवीलाल के इनकार करने पर उनको प्रधानमन्त्री बनाया जाना चाहिए था।

अजीत सिंह ने सीएम पद पर दावेदारी ठोंकी

इस बात को याद किया जाना चाहिए कि वर्ष 1977 की जनता पार्टी की ही तरह जनता दल भी कई राजनीतिक समूहों का गठजोड़ था जो सिर्फ सत्ता के लालच में एक जगह जमा हुआ था। उसकी कोई साझी विचारधारा नहीं थी। एक बार जब दिल्ली में गर्दी- गुबार थमा तो नेताओं ने उत्तर प्रदेश की ओर ध्यान दिया। लेकिन इसके पहले कि जश्न शुरु होता और जैसे कि माना जा रहा था कि मुलायम सिंह यादव ही प्रदेश के मुख्यमन्त्री होंगें- दिल्ली से एक आफत लखनऊ आ पहुँची। चौधरी अजित सिंह ने भी मुख्यमन्त्री के लिए अपनी दावेदारी ठोंक दी और लखनऊ आ धमके।

वी.पी. -अरुण नेहरु का षडयन्त्र

मुलायम सिंह के समर्थकों ने इसे वी.पी. और अरुण नेहरु दोनों का षडयन्त्र करार दिया क्योंकि अतीत में इन दोनों के ही साथ मुलायम के सम्बन्ध कटु रह चुके थे। 1980 के दशक में जब वी.पी. सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री थे तो उनके डकैत उन्मूलन अभियान का मुलायम सिंह ने खुलकर विरोध किया था। उसी वजह से उन्हें मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ा था। उधर चरण सिंह की विरासत को लेकर मुलायम और अजित सिंह जमकर लड़े थे।

वीपी सिंह ने सलाह अनसुनी की

इस चुनाव में केन्द्र और देश के पाँच राज्यों में जनता दल की सरकार बनी थी। हर जगह आम राय से नेता का चुनाव किया गया था । लेकिन उत्तर प्रदेश में इसके लिए चुनाव करवाने का निर्णय लिया गया जिससे मुलायम सिंह ने खुद को ठगा महसूस किया। लेकिन मुलायम के समर्थक उनके इर्द-गिर्द जमा हो गए और कहा कि हम सब आपके साथ हैं। वी.पी. सिंह के कुछ समर्थको ने उन्हें राय दी कि उन्हें बीच बचाव में उतर कर अजित सिंह को मैदान से हट जाने के लिए राजी कर लेना चाहिए। लेकिन वी.पी. सिंह इस विचार में नहीं थे।

अजीत सिंह को लगा ये खतरा

दूसरी तरफ अजीत सिंह के समर्थक उन्हें अलग ही उकसा रहे थे। उनका कहना था कि उनके पिता चौधरी चरण सिंह की राष्ट्रीय राजनीति में तभी महत्ता बनी जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। दूसरी तरफ अपने पड़ोस के राज्य हरियाणा में चौधरी देवीलाल के रुप में एक जाट नेता के उदय ने अजीत सिंह को और चौकन्ना कर दिया था। उन्हें अपने जाट वोट बैंक में सेंध लग जाने का भय सताने लगा था। हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमाऐं लगती हैं और पश्चिमी क्षेत्र में दोनों की संस्कृति समान है और रीति रिवाजों से आपस में जुड़ी हुई हैं।

सीएम पर के लिए चुनाव

दिसम्बर 1989 में एक अद्भुत उदाहरण पेश करते हुए और आम राय की परम्परा को खत्म करते हुए प्रदेश नेतृत्व ने मुख्यमन्त्री पद के लिए चुनाव करवाने का फैसला लिया। यह चुनाव मुलायम और अजित के बीच में होना था। 03 दिसम्बर को मतदान के दिन एक निजी विमान से अजित सिंह लखनऊ आए। पार्टी के तीन नेताओं को केन्द्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर लखनऊ भेजा गया। ये नेता थे- मधु दंडवते, मुफ्ती मोहम्मद सईद और चिमनभाई पटेल। इन पर्यवेक्षकों को निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव करवाना था। हालाँकि इन नेताओं ने दोनों गुटों से कई दौर की वार्ता की थी। लेकिन दोनों में से कोई भी उपमुख्यमन्त्री का पद लेने को तैयार नहीं था। चुनाव अवश्यंभावी था।



मुलायम का चरखा दांव

पर्यवेक्षकों ने दोनों उम्मीदवारों को चुनाव के नियम साफ तौर पर बता दिए थे. ताकि विवाद की कोई गुंजाइश न रहे। जाहिर है कि मुलायम इससे खुश नहीं थे। लेकिन वे अपने पहलवानी के चरखा दाँव को आजमाने की तैयारी कर रहे थे। आखिरकार 12 साल के लम्बे इन्तजार के बाद विपक्ष 208 सीटें जीत कर सत्ता की दहलीज तक पहुँचा था और उन्हें सिर्फ 14 निर्दलीय उस विधायकों के समर्थन की जरुरत थी ताकि 425 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत हासिल किया सके। उस वक्त सीपीआई- सीपीएम के पास 08 विधायक थे। विधायकों को अपने पाले में लाने में माहिर मुलायम जानते थे कि महज कुछ समय की बात है, निर्दलीय विधायक उनके खेमे में आ जाएगें। आखिरकार एक उत्तेजक और अनिश्चित माहौल में अपनी पार्टी के जुड़ाव को दरकिनार कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विधायकों समेत कई अन्य विधायक मुलायम सिंह के साथ आ गए। उनमें ऐसे विधायक भी थे जो अजित सिंह के गढ़ से थे लेकिन उन्होंने जाति-क्षेत्र के आधार पर पाला बदल लिया था।

और मुलायम चुनाव जीत गए

बाद में बेनी प्रसाद वर्मा ने उस घटना को याद करते हुए कहा था कि उन लोगों ने डी.पी. यादव की मदद से अजित सिंह खेमे के 11 विधायकों को अपने पाले में कर लिया था। जब तक अजित सिंह मंच पर अवतरित होते, मुलायम सिंह ने सफलतापूर्वक जनमोर्चा के विधायकों के एक धड़े को तोड़ लिया था। मुलायम सिंह के आवास पर ढ़ोल बाजा बजने लगा था और उन विधायकों के खाने-पीने का शानदार इन्तजाम किया गया था जो मुस्कराते हुए नेताजी को समर्थन देने के लिए आये थे। 03 दिसम्बर, 1989 की दोपहर तक विधानभवन के प्रतिष्ठित तिलक हॉल में दो ताकतवर नेताओं के बीच ऐतिहासिक सीधी टक्कर के लिए मंच तैयार हो गया था। मतपत्र तैयार कर लिए गए थे और हाल का दरवाजा मीडिया समेत सभी बाहरी लोगों के लिए बन्द कर दिया गया था। 03 बजे के आसपास धड़धड़ाती जीपों और कारों का काफिला विधायकों को लेकर पहुँचा और जैसे ही यह विधानसभा परिसर में घुसा, जोरदार नारों से आसमान गूँज उठा।

विधायकों को तिलक हाल में घुसने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि कार्यकर्ता गेट तोड़कर भीतर आ गए थे। फलतः हॉल खाली करवाने और अनुशासन कायम होने के बाद कार्यवाही एक घंटा देर से शुरु हो सकी। स्पष्टतया, शहर में एक तरह से तनाव था और किसी किस्म की हिंसा रोकने के वास्ते जिला प्रशासन ने विधानसभा परिसर में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल समेत भारी पुलिस बल तैनात कर रखा था। तीन घन्टे के तनावपूर्ण मतदान में 208 विधानसभा सदस्यों और चार विधानपरिषद सदस्यों ने वोट दिया था। मतदान के बाद अब इन्तजार था कि पर्यवेक्षक परिणाम की घोषणा करें लेकिन उसके पहले ही खबर लीक हो गई। मुलायम लड़ाई जीत गए थे। सारे बन्धन टूट गए। क्योंकि उसके बाद उनके हजारों समर्थक तिलक हॉल मुलायम जिन्दाबाद के नारों के साथ घुस गए।

मुलायम को ताज अजीत वैरंग वापस

मधु दण्डवते को परिणाम को घोषित करने की जिम्मेदारी दी गई थी और वह प्रेस को सम्बोधित करने के चक्कर में हॉल के चक्कर काट रहे थे। दो बार नाकाम कोशिश के बाद आखिरकार दण्डवते एक कुर्सी पर खड़े हो गए और बताया कि किस तरह सुबह में उन्होंने दोनों पक्षों को चुनावी प्रक्रिया की जानकारी देने के लिए बुलाया था। विधायकों को एक-एक करके बुलाया गया और उनको पर्ची दी गई ताकि वे अपनी प्राथमिकता दर्ज कर दें। उन्होंने यह भी बताया कि चुनाव इसलिए भी अपरिहार्य हो गया था कि प्रधानमन्त्री वी.पी. सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद पर आम राय चाहते थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री का ताज आखिरकार मुलायम सिंह यादव के सिर पर था जबकि अमेरिका से सॉफ्टवेयर इन्जीनियर की पढ़ाई कर वापस आए अजित सिंह को अपमानजनक तरीके से कदम वापस लेने पड़े थे।

लोहियाजी का सपना पूरा हुआ किसान का बेटा सीएम बना

केन्द्रीय पर्यवेक्षक ने चुनाव का ब्यौरा देने से इनकार कर दिया था। इसके ठीक बाद, शारदा प्रसाद रावत ने एक संकल्प पेश किया जिसमें मुलायम को बतौर नेता प्रस्तावित किया गया था, इसका समर्थन रेवती रमण सिंह ने किया। इस जबर्दस्त समर्थन की प्रतिक्रिया में, मुलायम ने कहा, 'मुझे खुशी है कि मुझे ऊपर से पार्टीजनों पर थोपा नहीं गया है और यह पद जनता दल के विधायकों और कार्यकर्ताओं ने सौंपा है। 05 दिसम्बर, 1989 को मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री के रूप में लखनऊ की हृदयस्थली में स्थित के. डी. सिंह बाबू स्टेडियम में पद और गोपनीयता की शपथ ली।

बेहद भावुक हो चुके मुलायम ने कहा, ' लोहिया जी का सपना पूरा हो गया। एक किसान का बेटा मुख्यमन्त्री बन गया।' आगे चलकर किसी समय मुलायम सिंह ने खुद कहा कि- 'लोहिया का गैर-कॉंग्रेसवाद कोई सिद्धान्त नहीं था, यह कॉंग्रेस के एकाधिकार और अजेय होने के अभिमान को नेस्तनाबूद करने की एक राजनीतिक रणनीति थी। अपने पहले ही कार्यकाल में मुलायम सिंह यादव ने किसानों के दस हजार तक के कर्ज की माफी की और दिहाड़ी मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी बढ़ा दी थी।

चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा कार्यकाल

मुलायम सिंह का यह पहला मुख्यमंत्रित्वकाल संभवतः उनके राजनीतिक जीवन का सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा कार्यकाल था। एक साल बीतते न बीतते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों- विश्वहिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी और बजरंगदल तथा समान सोच वाली शिवसेना आदि ने अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद पर भगवा झंडा फहराने का ऐलान कर दिया। अयोध्या में इन तत्त्वों का भारी जमावड़ा होने लगा। इसी क्रम में 30 अक्तूबर, 1990 को तथाकथित कारसेवकों ने अयोध्या में पुलिस द्वारा की गई सुरक्षा बैरीकेडिंग को तोड़ दिया।

मुख्यमन्त्री मुलायम सिंह यादव ने पहले से ही चेतावनी दे रखी थी कि उक्त स्थल की सुरक्षा व्यवस्था इतनी सख्त है कि परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। लेकिन 02 नवम्बर, 1990 को जब उक्त कारसेवकों ने पुलिस बैरीकेडिंग को फिर से तोड़ना शुरु किया तो मुलायम सरकार ने ऐसे उपद्रवी जत्थों पर गोली चलाने का आदेश पुलिस को दिया, जिसमें कई लोग मारे गए। अयोध्या की घटना की उत्तरार्द्ध राजनीति को तो मुलायम सिंह संभाल ले गए होते लेकिन उसी समय केन्द्र की वी.पी. सिंह की सरकार, भाजपा के समर्थन वापस ले लेने से गिर गई और कॉंग्रेस के बाहरी सहयोग से चन्द्रशेखर प्रधानमन्त्री बने। मुलायम सिंह ने चन्द्रशेखर का भरोसा हासिल किया और मुख्यमन्त्री के पद पर बने रहे। लेकिन बाद में कॉंग्रेस ने केन्द्र और उत्तर प्रदेश, दोनों सरकारों से अपना समर्थन वापस ले लिया। ऐसे में 24 जून, 1991 को मुलायम सिंह ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो गई।

मुलायम को खलनायक साबित किया गया

प्रदेश की राजनीति में पिछड़े और उपेक्षित-शोषित तबके की आवाज बनकर दमदारी से उभरने वाला मुख्यमन्त्री एक झटके में ही प्रदेश के लिए खलनायक साबित कर दिया गया और चुनाव में 221 सीटें जीतकर आई भाजपा के कल्याण सिंह प्रदेश के 17वें मुख्यमन्त्री बने। शपथ ग्रहण करने के अगले ही दिन कल्याण सिंह बहैसियत मुख्यमन्त्री अपनी कैबिनेट के कई मन्त्रियों के साथ अयोध्या विवादित स्थल पर रामलला के दर्शन करने गए। वह वक्त मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का सबसे तकलीफदेह और अँधेरे मोड़ वाला था। उस दौरान वे कई दिनों तक अपने घर से ही नहीं निकले थे।

मुलायम ने खोजी काट

लेकिन मुलायम सिंह जैसा जीवट का आदमी जिसका सारा जीवन संघर्ष में ही बीता हो और जिसे बिना संघर्ष किए कुछ भी प्राप्त न हुआ हो, वह इस तरह लम्बे समय तक खामोश तो बैठ नहीं सकता था। मुलायम सिंह जानते थे कि भाजपा के कमंडल की काट खोजनी ही होगी अन्यथा वे प्रदेश की राजनीति से बाहर हो जाएगें। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से देश भर में एक तरह का साम्प्रदायिक उन्माद सा आ गया था और अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे थे। धर्म निरपेक्ष जनता को भी एक सुलझे हुए नेता की जरुरत ऐसे मौके पर महसूस हो रही थी।

ऐसे में हफ्तों के एकान्त चिन्तन-मनन के बाद मुलायम सिंह ने निश्चय किया कि भाजपा के धार्मिक उन्माद की काट के लिए जातिगत गठबन्धन बनाना ही एकमात्र विकल्प है। उस वक्त उनके सामने वी.पी. सिंह व कांशीराम दो विकल्प थे। वी.पी. सिंह के पास अगड़ी जातियों का समर्थन था तो कांशीराम के पास दलित मतों का। मुलायम सिंह के पास पिछड़ी जातियों का समर्थन था ही। इस तरह मुलायम सिंह को लगा कि अगर इस तरह का एक चुनावी गठबन्धन बन जाय तो भाजपा के राजनीतिक उन्माद को रोका जा सकता है।


सपा-बसपा गठबंधन

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि वर्ष 1993 में किया गया उक्त चुनावी प्रयोग अगर आगे भी चला होता तो आज भारत की केन्द्रीय राजनीति की शक्ल ही कुछ और होती। बहरहाल, सपा-बसपा गठबन्धन ने चुनाव में भाजपा की बढ़त को काफी हद तक रोका। इस चुनाव में कुल 260 सीटों पर लड़ी सपा को 109 पर तथा 163 पर लड़ी बसपा को 67 सीटों पर सफलता मिली जबकि भाजपा को कुल 177 सीटें मिलीं। कॉंग्रेस के बाहरी समर्थन से मुलायम ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और 04 दिसम्बर, 1993 को मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमन्त्री पद की शपथ ली और महज ढ़ाई साल के अन्दर ही फिर से सत्ता में आकर अपने ऊपर लगे कथित अयोध्या कांड के धब्बे को धो दिया।

मायावती की महत्वाकांक्षा

लेकिन मायावती के अन्दर खुद मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा इतनी जबर्दस्त थी कि उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ न उन्हें चैन से बैठने दे रही थीं और न वह कांशीराम को ही शान्त रहने देती थीं। यह जोड़ी सरकार बनने के बाद से ही भाजपा के कुछ मध्यस्थों के सम्पर्क में थी और भीतर ही भीतर खिचड़ी पक रही थी। कांशी और माया न सिर्फ रैलियों में सार्वजनिक मंचों से बल्कि पत्रकार वार्ताओं में भी मुलायम सिंह के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करते थे। हमेशा यह जाहिर करते थे कि मुलायम को वे जब चाहेंगें, कुर्सी से हटा देंगें।

कांग्रेस की चाल

प्रदेश में उस वक्त कॉंग्रेसी नेता मोतीलाल वोरा राज्यपाल थे। कॉंग्रेस ने मुलायम सरकार को बाहर से समर्थन तो दिया हुआ था लेकिन राजनीतिक तकाजे के लिहाज से वह सरकार की स्थिरता को देख नहीं पा रही थी। इसी बीच राष्ट्रपिता को लेकर मायावती ने सार्वजनिक रुप से यह टिप्पणी कर दी कि 'गाँधी ने दलितों को हरिजन नाम दिया, मैं जानना चाहती हूँ कि अगर दलित भगवान की औलाद हैं तो क्या गाँधी और बाकी सब शैतान की औलाद हैं? मायावती के इस बयान से हंगामा मच गया। विपक्षी दलों ने उनकी गिरफ्तारी की जोरदार माँग की। लेकिन मायावती ने माफी माँगकर झुकने से इनकार कर दिया।

मायावती के बयान से सरकार को समर्थन दे रही कॉंग्रेस ने भी असहज महसूस किया। काफी दिनों से माकूल अवसर तलाश रही कॉंग्रेस को लगा कि अगर इस समय कोई तीव्र प्रतिक्रिया न व्यक्त की गई तो उसका बचाखुचा जनाधार भी खत्म हो जाएगा। इसी विचार के तहत कॉंग्रेस ने राज्यपाल से मिलकर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की माँग कर दी। इस बीच कई दिनों तक राजनीतिक उठापटक के दाँव-पेंच खेले जाते रहे। अन्ततः राज्यपाल ने निश्चय किया कि मायावती को सरकार बनाने का न्यौता दिया जाय।



मुलायम का इस्तीफे से इनकार

मतलब साफ था कि मुलायम सिंह अपनी सरकार का इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दें। लेकिन राजनीति के कुशल खिलाड़ी और इसके हर दाँवपेंच से वाकिफ मुलायम सिंह ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। असल में मुलायम चाहते थे इस सरकार से अब और कोई राजनीतिक उपलब्धि तो मिलनी नहीं है तो क्यों न बर्खास्त होकर अपने मतदाताओं की सहानुभूति ही बटोरी जाय। राजनीति में सहानुभूति के वोट बहुत मायने रखते हैं और भारत जैसे देश में तो सहानुभूति के वोटों से सरकारें तक बन जाया करती हैं। अंततः राज्यपाल वोरा को मुलायम के दाँव के आगे चित्त होना पड़ा और उन्होंने सपा सरकार को बर्खास्त कर दिया। बाद के दिनों ने साबित किया कि बर्खास्तगी की सहानुभूति तथा भाजपा और बसपा की लगातार होती चख चख ने मुलायम सिंह के वोट बैंक को और मजबूत ही किया।

सच साबित हुई मुलायम की भविष्यवाणी

मुलायम सिंह ने उसी वक्त भविष्यवाणी की थी कि उनकी सरकार को गिराकर कॉग्रेस ने भाजपा-बसपा को जो मौका दिया है, वह उसका आत्मघाती कदम साबित होगा। उसके सारे वोटर उससे दूर चले जाएँगे और वह फिर कभी भी उबर नहीं पाएगी। तब से 34 साल हो गए. कॉंग्रेस का पुनरुद्धार हो नहीं पाया है। राजनीति की कितनी सटीक समझ मुलायम सिंह यादव की रही।

Shashi kant gautam

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