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रहस्यमय है प्रतापगढ़ का ऐतिहासिक अष्टभुजा धाम मंदिर

raghvendra
Published on: 9 Aug 2019 9:27 AM GMT
रहस्यमय है प्रतापगढ़ का ऐतिहासिक अष्टभुजा धाम मंदिर
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धीरेन्द्र प्रताप सिंह

प्रतापगढ़: उत्तर प्रदेश में यूं तो कई प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर हैं। उनमें से कई ऐसे हैं जो बहुत अधिक प्रसिद्ध हुए, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो प्राचीनतम होने के बाद भी प्रसिद्धि नहीं पा सके। ऐसा ही एक अति प्राचीन मंदिर है प्रतापगढ़ के गोंडे गांव में स्थित अष्टभुजा धाम मंदिर। बताया जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। गजेटियर में दर्ज इस मंदिर के इतिहास के बारे में कहा गया है कि इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा ने कराया था।

मंदिर के दीवारों व बनावट में की गईं नक्काशियां व विभिन्न प्रकार की आकृतियां को देखने के बाद इतिहासकार व पुरातत्वविद इसे 11वीं शताब्दी का बना हुआ मानते हैं। मंदिर के गेट में बनी आकृतियां मध्यप्रदेश खजुराहो मंदिर से काफी मिलती हैं। इस मंदिर में आठ हाथों वाली अष्टभुजा देवी की मूर्ति है।

ग्रामीण अजीत सिंह बताते हैं कि पहले इस मंदिर में अष्टभुजा देवी की अष्टधातु की प्राचीन मूर्ति थी जो करीब 15 वर्ष पहले वह चोरी हो गई। इसके बाद सामूहिक सहयोग से ग्रामीणों ने यहां अष्टभुजा देवी की पत्थर की मूर्ति स्थापित करा दी।

गांव में प्रशासनिक अधिकारियों की भरमार

प्रतापगढ़ जिले के जिस गांव में यह मंदिर स्थित है उस गांव में दो दर्जन से अधिक प्रशासनिक अधिकारी हैं। गांव में सिविल सर्विस से लेकर न्यायिक सेवा वाले लोगों की लम्बी लिस्ट है।

लोगों का कहना है कि यह सब इस सिद्ध पीठ के आशीर्वाद से हुआ है। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां मन मांगी मुराद पूरी होती है। दूर दूर से लोग यहां अपनी मुरादें लेकर आते हैं और मुरादें पूरी होने के बाद मां के मंदिर में चढ़ावा चढ़ाते हैं।

क्या कहते हैं मंदिर के पुजारी

मंदिर के पुजारी रामसजीवन गिरि बताते हैं कि इस मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा लगा पाना काफी मुश्किल है। यह मंदिर बहुत पुराना है और इतिहास में इसका उल्लेख है लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा से इस मंदिर की हालत बेहद दयनीय हो गई है। ग्रामीणों ने इसकी जीर्णोद्धार में काफी मदद की है।

कोई नहीं पढ़ सका है मंदिर में लिखा रहस्य

इस मंदिर के मेन गेट पर एक विशेष भाषा में कुछ लिखा गया है जिसको पढऩे के लिए आज तक कई पुरातत्वविद व इतिहासकार मंदिर में आ चुके हैं लेकिन आज तक उन्हें विशेष भाषा में लिखी गई लिखावट को पढऩे में सफलता नहीं मिल सकी है। कुछ इतिहासकार इसे ब्राम्ही लिपि बताते हैं तो कुछ उससे भी पुरानी भाषा। मंदिर की प्राचीनता का प्रमाण इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मंदिर की दीवारों में की गई नक्काशियां सिन्धुघाटी सभ्यता में मिली पत्थर की मूर्तियों व नक्काशियों से बिलकुल मिलती हैं। 2007 में दिल्ली से आए कुछ पुरातत्वविदों ने इसे 11वीं शताब्दी का मंदिर बताया था। मंदिर की सबसे विशेष बात यह है कि मंदिर में मुख्य मार्ग के बाद प्रांगण में मां का मंदिर व मूर्ति स्थापित है। इतिहास में दर्ज उल्लेखों के अनुसार ऐसे मंदिर सिन्धु घाटी सभ्यता में होते थे।

औरंगजेब ने कटवाए थे मंदिर की मूर्तियों के सिर

बताया जाता है कि मुगल शासक औरंगजेब ने 1699 ई. में हिन्दू मंदिरों को तोडऩे का आदेश दिया था। उस समय इस मंदिर को बचाने के लिए वहां के पुजारी ने मंदिर का मुख्य मार्ग मस्जिद के आकार में बनवा दिया था। इसका मकसद एक भ्रम पैदा करना था जिससे यह मंदिर टूटने से बच जाए। मुगल सेना तो निकल गई लेकिन उसके एक सेनापति कि नजर इस मंदिर के अंदर टंगे घंटे पर पड़ गई। जिसके बाद उसने मंदिर में जाकर उसकी सभी मूर्तियों के सिर काट दिए। आज भी वो मूर्तियां इस मंदिर के अन्दर देखने को मिलती हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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