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यूपी नगर निगम चुनाव: कसौटी पर कमल, दांव पर विपक्ष का भविष्य 

Gagan D Mishra
Published on: 13 Oct 2017 6:43 AM IST
यूपी नगर निगम चुनाव: कसौटी पर कमल, दांव पर विपक्ष का भविष्य 
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योगेश मिश्र/संजय तिवारी

लखनऊ: अपेक्षाओं की लहरों पर सवार होकर सरकार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में फिर कसौटी पर है। नगर निकाय चुनाव में कमल का फूल कितना खिल पायेगा इस पर बातचीत शुरू हो गयी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम काज का लिटमस टेस्ट होंगे उतरप्रदेश के नगर निकाय चुनाव। अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी बीजेपी का नगरीय जनाधार अन्य पारितियो के लिए परेशानी का सबब रहा है।

2000 और 2006 के नगर निकाय चुनाव में बीजेपी ने सरकार बनाने वाली सपा और बसपा से ज्यादा वोट हासिल कर 13 में से नौ निगमों पर केसरिया लहराया था। हालांकि सहारनपुर नगर निगम में अखिलेश यादव ने चुनाव नहीं करवाया क्योकि इसकी घोषणा मायावती ने अपनी सरकार में की थी। अब प्रदेश में 16 नगर निगम हो चुके हैं। इस बार जब केंद्र से लेकर प्रदेश तक बीजेपी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार है , नगर निकाय क्या सन्देश देने वाले है ?इस पर सभी की नजर टिकी हुई है।

वर्ष 2000 में नगर निगमों में बीजेपी ने 29 56 फीसदी वोट हासिल किया था जब की मायावती की अगुवाई वाली सरकार में 2006 में हुए चुनाव के दौरान उसे 33.44 फीसदी वोट मिले पिछले चुनाव की तुलना में 3.88 फीसदी ज्यादे थे। वर्ष 2012 में अखिलेश यादव की सरकार के दौरान बीजेपी ने 37.65 फीसदी वोट हासिल किया था। ऐसे में योगी आदित्यनाथ के लिए यह जरुरी हो जाता है की उनकी सरकार इस एक तिहाई से अधिक वोट पाने के आंकड़े को पीछे छोड़े और नौ निगमों पर कब्जे के अपने कीर्तिमान से बड़ा कीर्तिमान बनाये।

फ़ैजाबाद और अयोध्या तथा मथुरा वृन्दावन को जोड़ कर बीजेपी काल में बने नगर निगमों पर अपना मेयर बैठाना भी योगी सरकार के कामकाज का मानक होगा। चुनाव से पहले सरकार किस तरह नगर निकायों में आरक्षण की गुत्थी सुलझाती है, यह भी उसकी विजय की कहानी लिखेगा क्योकि आरक्षण के बाद चुनावी शह और मात का खेल पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह शुरू होगा। इससे निपटने में संगठन और सररकार की कामयाबी वजय की सत्यकथा बताएगी। हालांकि इलाहबाद नगर निगम में बसपा कांग्रेस होते हुए पिछले चुनाव में बीजेपी में शामिल होकर मंत्री बन जाने वाले नन्द गोपाल नंदी की पत्नी अभिलाषा का टिकट भले ही पक्का माना जा रहा हो पर संगठन के लिए यह फैसला पचाना उतना आसान नहीं होगा जितना विधान सभा चुनाव में नंदी को बीजेपी में शामिल करना आसान था।

आगरा भी बीजेपी के लिए दर्द का सबब होगा क्योकि पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी से मेयर बने इंद्रजीत आर्य बीच में ही सपा में जाना और फिर विधान सभा चुनाव में बीजेपी में लौट आना इलाकाई बीजेपीइयों के लिए गले के नीचे उतर पाना कठिन है। अधिकाँश नगर निगमों में बीजेपी के नगर प्रमुखों का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है। लेकिन इसकी काट के रूप में इनके पास एक ठोस तर्क यह है कि इस काल खंड में बीजेपी विरोधी सरकारें रही हैं। सपा-बसपा सरकार के दौरान उनकी योजनाओ को तवज्जो नहीं दी गयी। नोटबंदी की कसौटी पर पर मोदी सरकार प्रचंड बहुमत का जनादेश हासिल कर के सफलता की बड़ी इबारत लिख चुकी है बावजूद इसके कहा जा रहा है कि जीएसटी को लेकर सरकार नगर निकाय चुनाव में फिर कसौटी पर होगी।

बीजेपी ने अपना दल और भारतीय समाज पार्टी सरीखे डालो से अपना हाथ मिलाया है। विधानसभा चुनाव में उसकी गंगोत्री में दूसरे दलों के तमाम लोग समां चुके है। वे बीजेपी के पुराने उम्मीदवारों को बनाये रखते हैं या फिर अपने लोगो के लिए भी जगह की मांग करते हैं।

2000 के निकाय चुनाव में कांग्रेस भी 17.22 और 2006 के चुनाव में 21.97 फीसदी वोट पाने में कामयाब हुई थी 2012 में 16.73 जो 2004 के लोकसभा चुनाव को छोड़ कांग्रेस का पिछले तीन चार लोकसभा और विधान सभा चुनाव के वोटो से बहुत आगे का आंकड़ा है। 2006 के चुनाव में उसके तीन मेयर- झाँसी , इलाहबाद और बरेली भी जीतने में कामयाब हुए थे।

बहुजन समाज पार्टी 2000 के नगर निगम चुनाव में मैदान में उतरी और उसने बेहद खराब प्रदर्शन किया। उसे केवल 17.25 फीसदी वोट मिले जो इस चुनाव में कांग्रेस को मिले वोटो से महज 0.3 फ़ीसदी ज्यादा थे नतीजतन उसने चुनाव लड़ने का फैसला ही छोड़ दिया। 2006 और 2012 के चुनाव बसपा नहीं लड़ी। अपनी सरकार के दौरान वर्ष 2012 में अखिलेश यादव की पार्टी ने मनभेद और मतभेद से बचने के लिए सीमाबल पर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया। बहुत जोड़ जुगतकर बरेली में निर्दलीय महापौर बने डॉ.आई एस तोमर को अपने पाले में खड़ा कर के अपनी पीठ थपथपाई। अब अखिलेश यादव सत्ता से बाहर हैं। उनके लिए मनभेद और मतभेद का बहाना बीते दिनों की बात हो गयी है। हालांकि अब मनभेद और मतभेद का असर परिवार में घुन कर गया है। अखिलेश यादव ने मायावती के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ संयुक्त युद्धाभ्यास के लिए हाथ बढ़ा चुके हैं। प्रदेश में होने वाले लोकसभा की दो सीटों के उपचुनाव में एक एक सीट बाँट कर बीजेपी को हारने की सपा बसपा की रणनीति चर्चा में है। ऐसे में उनके लिए नगर निकाय चुनाव सन्देश देंगे की आखिर बीजेपी को परास्त करने के लिए सपा और बसपा करीब आते हैं या नहीं। या फिर 27 साल उत्तर प्रदेश बेहाल का नारा देने वाली कांग्रेस के साथ मिल कर ही वे विधानसभा की तरह साझे तौर निकाय चुनाव में उतरते हैं। अपनी पार्टी के औपचारिक और विधिपूर्वक निर्धारित अध्यक्ष अखिलेश यादव पहली बार बने हैं। ऐसे में नगर निकाय चुनाव उन्हें यह भी जनता उनके नेतृत्व को किटंबा कबूल कराती है। कार्यकर्ता उनके अनुशासन को कितना मानते हैं।

निरन्तर छीजते जा रहे सांगठनिक आधार - नसीमुद्दीन सिद्दीकी , बाबू सिंह कुशवाहा , स्वामी प्रसाद मौर्या , इंद्रजीत सरोज , ब्रजेश पाठक सीरखे तमाम नेताओ के बाहर जाने के बाद मायावती अपनी रणनीति में रद्दोबदल करती हैं या फिर वाकओवर जारी रखती है। अगर ऐसा करती हैं तो उनके मतदाता किसी दूसरे दल की और मुखातिब हो गए तो लोकसभा और विधान सभा के लिए उनका मोह भांग कराने में कैसे कामयाब होंगी। वह भी तब जब की बसपा से अलग होने वाले हर नेता ने मायावती से टिकट के बदले पैसा लेने का आरोप लगाया हो और नगर निकाय चुनाव आचार संहिता की उस कठिन जड़ में नहीं आते हो जिसमे नोट फॉर वोट अप्रासंगिक नहीं हो पाए और अगर वह लड़ती हैं तो यह देखना मजेदार होगा की आखिर वह अपनी सेनाये कैसे सजाती हैं।

बसपा में सिर्फ मायावती, सपा में अखिलेश यादव और कांग्रेस में केवल राजबब्बर की प्रतिष्ठा इन चुनाव में दांव पर होगी लेकिन भारतीय जनता पार्टी में इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह , वी के सिंह , महेन्द्रनाथ पांडेय , डॉ. मुरलीमनोहर जोशी , उमाभारती , उपमुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा , केशव मौर्या , लखनऊ से मंत्री - स्वाति सिंह , बृजेश पाठक , रीता बहुगुणा जोशी , गोपाल टंडन , महेंद्र सिंह और कानपूर से मंत्री सतीश महाना और सत्यदेव पचौरी , बरेली से धर्मपाल और संतोष गंगवार, बनारस से नीलकंठ तिवारी , इलाहबाद से सिद्धार्थ नाथ सिंह और नन्द गोपाल नंदी , गोरखपुर से शिवप्रताप शुक्ल जैसे दिग्गज भी इस चुनाव में परखे जायेंगे। नगर निकाय इलाको से जीत कर गए सांसद भी जनता की ही नहीं, बीजेपी की भी कसौटी पर होंगे। उनके यहाँ मेयर नहीं पार्षदों का जीतना भी तय करेगा की वे अगली दफा टिकट के हकदार रह पाएंगे या नहीं।

प्रदेश में पहली बार किन्नर मेयर बनवा कर सुर्खियां बटोर चुके गोरखपुर नगर निगम में पांच चुनाव हो चुके हैं। कांग्रेस के पवन बथवाल पहले निर्वाचित मेयर थे। उन्हें पार्षदों ने चुना था। जनता से चुने गए पहले मेयर राजेंद्र शर्मा बीजेपी से थे। इनके बाद अमरनाथ यादव उर्फ़ आशा देवी मेयर बनी। वह निर्दल उम्मीदवार थीं। इसके बाद अंजू चौधरी और आज सत्या पांडेय महा पौर हैं। अंजू चौधरी भी बीजेपी से ही महापौर बनी थीं। इस समय व्यापारी नेता सीताराम जैसवाल , सुरेंद्र जैसवाल और अंजू चौधरी तो दौड़ में हैं ही , 2000 के चुनाव में इन दिनों के केंद्रीय वित्तराज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ल ने विद्यावती भारती के लिए अपनी प्रतिष्ठा लगायी थी। ऐसे में इस बार उन्हें भी दौड़ से बाहर नहीं माना जा सकता है। सपा की तरफ से सिर्फ विजयबहादुर यादव दिख रहे है। इस निगम में कुल 70 वार्ड हैं।

पिछले तीन चुनाव से बनारस आरक्षण की श्रेणी से बाहर है। लेकिन इस बार यहां की सीट पिछड़ा वर्ग महिला के लिए आरक्षित हुई है। 2002 में अमरनाथ यादव , 2006 में कौशलेन्द्र सिंह और 2012 में रामगोपाल मोहले ने बीजेपी का परचम लहराया। बीजेपी की और से मोहले की दावेदारी मजबूत मानी जा रही है। लेकिन उनके कार्यकाल में प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी योजनाओ के परवान न चढाने और स्वच्छता मिशन में बनारस के पिछड़ने में यह टोटका काम करने लगा है की बीजेपी के कोई मेयर दूसरे कार्यकाल में उम्मीदवार नहीं बन पाया। सपा कांग्रेस गठबंधन रहा तो अजय राय के ुअटार्ने का अनुमान सकता है। महिलाओ के लिए यदि आरक्षण हुआ तो उनकी पत्नी बीना राय उम्मीदवार हो सकती है। 90 सदस्यीय सदन में फिलहाल बीजेपी के 24 पार्षद हैं।

मायावती ने सहारनपुर को नगर निगम बनाया था पर यहाँ मेयर नहीं मिल सका। यहाँ पहली बार चुनाव होंगे। आरक्षण को लेकर यहाँ ऊहापोह बरकरार है। मेयर भले ही सहारनपुर को न मिल सका हो पर नगर आयुक्त अखिलेश सरकार ने तैनात कर दिया था।

कानपुर सीट महिला के लिए आरक्षित है। इस स्थिति में उमा भारती की बेहद करीब स्वर्गीय विवेक शुकला की पत्नी दौड़ में आगे हैं। दूसरा नाम अनीता गुप्ता का है पर उन्हें लेकर नगर कार्यकारिणी और क्षेत्रीय कार्यकारिणी में मतभेद है। अभी जगतवीर सिंह ड्रोन मेयर है। कांग्रेस की और से पवन गुप्ता का नाम चर्चा में था लेकिन अब महिला सीट होने की स्थिति में कांग्रेस में फिर से प्रत्यासी के लिए मंथन शुरू हो गया है। 110 वार्डो वाले इस नगर निगम में 14 सीट अनुसूचित जाती के लिए आरक्षित है।

आगरा में 20 साल से महापौर का पद अनुसूचित जाति आरक्षित है। लेकिन इस बार यहां का पड़ अनारक्षित हो गया है। संख्या 100 हो गयी है। 2002 में किशोरीलाल माहोर। 2006 में अंजुला माहोर और 2012 में इंद्रजीत आर्य ने परचम लहराया था।

मेरठ में महापौर पद अनुसूचित जाति महिला के लिए आरक्षित है। यहाँ सभी पद बीजेपी के पास हैं। अधिक मारा मारी उसी में दिख रही है। हालांकि दौड़ में विनीत अग्रवाल शारदा आगे थी लेकिन आरक्षण बदलने से स्थिति बदलती दिख रही है। विधानसभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी के समर्थको की उम्मीदे भी हिलोरे मार रही थी। कांग्रेस की और से मंजीत सिंह कोछड़ , डॉ. प्रदीप अरोड़ा और बसपा की और से योगेश वर्मा मजबूत दावेदार थे। सपा से गोपाल अग्रवाल और अतुल प्रधान, रालोद की और से पूर्व मंत्री डॉ मेराजुद्दीन अथवा डॉ. राजकुमार सांगवान के नाम लिए जा रहे थे। लेकिन आरक्षण बदलने की स्थिति में सभी पार्टियों में अब नए सिरे से प्रत्यासियों के लिए मंथन शुरू होगा।

अलीगढ में बीजेपी से दो बड़े औद्योगिक घरानो में शक्तिप्रदर्शन की शुरुआत हो गयी है। इस बात को बल तब मिला जब राष्ट्रीय महामंत्री अरुण कुमार सिंह बीते रविवार को एक औद्योगिक परिवार में जा धमाके। बीते दिनों प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल अलीगढ आये और एक औद्योगिक घराने के घर रात्रिभोज किया। वही उन्होंने मीडिया को भी सम्बोधित किया। महापौर पद के लिए टिकट को लेकर पार्टी में बेहद रोचक और कड़ी स्पर्धा की स्थिति बन गयी है। यहां का पद अनारक्षित है।

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गोरखपुर नगर निगम में मेयर के पांच चुनाव हो चुके हैं। पहले महापौर पवन बथवाल हुए। उन्हें निर्वाचित पार्षदों ने चुना था। जनता के वोट से निर्वाचित पहले मेयर राजेन्द्र शर्मा हैं। जो बीजेपी के टिकट पर चुने गए थे। तब यह सीट पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित थी। इसके बाद गोरखपुर की शहर की जनता ने अमरनाथ यादव उर्फ आशा देवी को वोट देकर जिताया। वह देश की पहली किन्नर महापौर बनीं। आशा देवी के समय सीट पिछड़ी महिला के लिए आरक्षित थी। निर्दल चुनाव में उतरी आशा देवी ने सपा की अंजू चैधरी को हराया था। इसके बाद पिछड़ी जाति के लिए सीट आरक्षित हुई। जिसमें बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने वाली अंजू चैधरी ने सपा के सीताराम जायसवाल को हराया। पिछले चुनाव में गोरखपुर के मेयर की सीट महिला के आरक्षित थी। जिसमें बीजेपी के टिकट पर मैदान में उतरी डॉ. सत्या पाण्डेय ने कांग्रेस की डॉ. सुरहिता करीम को 33 हजार से अधिक वोटों के अंतर से हराया। डॉ. करीम को सपा ने भी अपना समर्थन दिया था।

वर्ष 2012 में हुए निकाय चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस ने उम्मीदवारों को अपना सिंबल दिया था। नगर निगम के 70 वार्डों में 18 सीटों पर बीजेपी के सिंबल पर पार्षद जीते। वहीं कांग्रेस के टिकट पर तीन पार्षदों ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2006 में हुए नगर निगम के चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और सपा ने सिंबल देकर उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। बीजेपी सर्वाधिक 23 सीट जीत कर नंबर एक पर थी। सपा ने 20 तो कांग्रेस ने 3 सीटों पर जीत हासिल की थी। वर्ष 2000 में हुए चुनावों में बीजेपी, सपा, कांग्रेस और बसपा सभी ने सिंबल देकर प्रत्याशियों को चुनाव में उतारा था। तब बीजेपी को 13, सपा को 24, बीएसपी को 7, कांग्रेस को 3 सीटों पर जीत मिली थी। शेष 23 सीटों पर निर्दल उम्मीदवारों ने बाजी मारी थी।

वर्ष 2000 में हुए चुनाव में निर्दल किन्नर अमरनाथ यादव उर्फ आशा देवी ने सपा की अंजू चैधरी को हराकर चुनाव जीता था। पिछले दो चुनावों से महापौर की सीट पर बीजेपी का कब्जा है। वर्ष 2006 में बीजेपी की अंजू चैधरी तो 2012 में डॉ. सत्या पाण्डेय ने बीजेपी के टिकट पर जीत दर्ज की थी।

गोरखपुर नगर निगम में करीब 8 लाख 10 हजार वोटर हैं। इनमें मुसलमानों और कायस्थों की संख्या काफी निर्णायक है। शहर में पौने दो लाख वोटर मुस्लिम तो सवा लाख वोटर कायस्थ जाति के हैं। ब्राहम्णों की संख्या करीब 90 हजार तो 35 हजार के करीब राजपूत जाति के लोग हैं। निषादों जाति के वाटरों की संख्या भी करीब 70 हजार है। वैश्य विरादरी के वोटरों की संख्या भी करीब सवा लाख है। अनुसूचित जाति की संख्या 60 हजार तो यादव बिरादरी के वोटरों की संख्या 40 हजार के आसपास है।

वर्ष 2012 में हुए मेयर के चुनाव में सीट महिला के लिए आरक्षित थी। बीजेपी प्रत्याशी डॉ. सत्या पाण्डेय समेत आठ प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। डॉ. सत्या पाण्डेय ने कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. सुरहिता करीम को 33156 वोटों के अंतर से हराया था।

प्रमुख प्रत्याशियों को मिले वोट-

डॉ. सत्या पाण्डेय, बीजेपी-116559 वोट

डॉ. सुरहिता करीम-83403 वोट

संगीता चैधरी-23707 वोट

वन्दना बसपा समर्थित-17929 वोट

प्रभा चैधरी-15742 वोट

किरन उर्फ अनुराधा तिवारी- 3358 वोट

अनीता सिंह जद यू-7682 वोट

जगदम्बा- 4630 वोट

पिछले दो चुनाव में तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ ने खुद की प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर अंजू चैधरी और डॉ. सत्या पाण्डेय को जीत दिला दी थी। वर्ष 2000 में वर्तमान केन्द्रीय वित्त राज्यमंत्री ने खुद की प्रतिष्ठा बीजेपी की विद्यावती भारती के लिए जोड़ी थी। तब किन्नर आशा देवी की आंधी के सामने बीजेपी उम्मीदवार को करारी हार का सामना करना पड़ा था। इस बार के चुनाव में खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा दांव पर है। वहीं बीजेपी ने शिव प्रताप शुक्ला को जिसप्रकार केन्द्रीय राज्यमंत्री की कुर्सी दी है, उसे देखते हुए शिव प्रताप की जिम्मेदारी बढ़ गई है। सपा की तरफ से पूर्व विधायक विजय बहादुर यादव की प्रतिष्ठा दांव पर है।

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नए आरक्षण सूची के तहत वाराणसी नगर निगम सीट पिछड़ा वर्ग महिला के लिए आरक्षित है। साल 1997 में आखिरी बार यह सीट महिला आरक्षित सीट थी।

पिछले चार चुनावों से इस सीट पर बीजेपी का ही कब्जा रहा है। 2002 में अमरनाथ यादव, 2006 में कौशलेंद्र सिंह इसके बाद 2012 में रामगोपाल मोहले ने इस सीट पर कब्जा किया।

अगर 2012 की बात की जाए तो बीजेपी के रामगोपाल मोहले को जहां 1,32,800 वोट मिले वहीं कांग्रेस के डॉक्टर अशोक कुमार सिंह को 70,683 वोट मिले थे। इन दोनों के अलावा चौदह और प्रत्याशी मैदान में उतरे थे।

90 सदस्यीय सदन में 2012 में जहां बीजेपी के पार्षदों की संख्या जहां 24 थी, वहीं कांग्रेस के 16 पार्षद हैं। इसके अलावा 48 सपा समर्थित निर्दल और अन्य पार्षद चुने गए थे। साल 2006 में बीजेपी ने जहां 39 सीट जीती थी वहीं सपा के खाते में 22 सीट आई थी। इसके अलावा कांग्रेस ने 8 सीट और बीएसपी समर्थित उम्मीदवार ने सात सीट पर जीत हासिल की थी।

फिलहाल वाराणसी नगर निगम में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग करीब सत्रह लाख के आसपास है। जातिगत आधार पर बात की जाए तो सबसे अधिक बनिया वर्ग हावी है। लगभग 24 फीसदी बनिया, पिछड़ी जाति 22 फीसदी, अनुसूचित जाति 18 फीसदी, ब्राह्मण 15 फीसदी, राजपूत 12 फीसदी, मुस्लिम 23 फीसदी है।

अगर इस बार के चुनाव की बात की जाए तो अब तक किसी भी पार्टी ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। ना ही किसी तरह की अभी सुगबुगाहट देखने को मिल रही है। वैसे बीजेपी की बात की जाए तो पार्टी की ओर से वर्तमान मेयर रामगोपाल मोहले फिर से दावेदारी ठोक रहे हैं। आरएसएस से नजदीकी के चलते उनकी दावेदारी मजबूत भी है। हालांकि उनके प्रदर्शन से लोग खुश नहीं है। रामगोपाल मोहले के कार्यकाल में पीएम मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पाई। खासतौर से स्वच्छता मिशन को लेकर बनारस पिछड़ा नजर आया। इसके अलावा वाराणसी नगर निगम में ये इतिहास रहा है कि बीजेपी का कोई मेयर दूसरे कार्यकाल के लिए मैदान में नजर नहीं आया। ऐसी स्थिति में बीजेपी किसी अन्य नेता पर भी दांव खेल सकती है। कांग्रेस की ओर से कद्दावर नेता अजय राय भी लॉबिंग कर रहे हैं। अगर सपा और कांग्रेस का गठबंधन बना रहा तो अजय राय खुद या उनका कोई करीबी चुनाव मैदान में नजर आ सकता है। हालांकि एक संभावना ये भी है कि अगर ये सीट महिला आरक्षित होती है तो ऐसी स्थिति में अजय राय अपनी पत्नी बीना राय को मैदान में उतार सकते हैं। दरअसल वाराणसी शहर के अंदर विपक्ष की राजनीति अजय राय के इर्द-गिर्द ही घूमती है।

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नगर पालिका सहारनपुर के भंग होने और नगर निगम बनने के बाद अब तक यहां के लोगों को मेयर नहीं मिल सका है। प्रदेश में सहारनपुर नगर निगम के लिए पहली बार चुनाव होंगे और यहां पर पहली बार मेयर बनेगा। मेयर के आरक्षण को लेकर शासन की सूची के मुताबिक यहां का पड़ पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित है। यहां पर मेयर पुरूष होगा या महिला। इसे लेकर यहां के राजनीतिक गलियारों में हलचल मची है।

तत्कालीक बसपा शासन काल में सहारनपुर नगर पालिका को भंग कर नगर निगम का दर्जा दिया गया था। लेकिन अभी तक मेयर का चुनाव नहीं हो सका। कभी वार्डों के परिसीमन पूरा न होने का बहाना तो कभी कुछ। कुल मिलाकर यहां पर पहली बार नगर निगम का चुनाव होगा और मेयर कौन होगा, यह आने वाला वक्त बताएगा।

शासन द्वारा सहारनपुर नगर निगम परिसीमन और वार्ड आरक्षण की स्वीकृति के बाद अब से अधिक निगाहें मेयर सीट पर लगी है। पालिका कार्यकाल के दौरान एक बार सहारनपुर नगर पालिका चैयरमेन सीट महिला के लिए आरक्षित हुई थी तथा बीजेपी की स्व. राजदुलारी गर्ग चैयरमेन बनी थी। सूत्रों की माने तो इस बार मेयर पद के लिए बीजेपी, सपा, कांग्रेस और बसपा में भारी संख्या में दावेदार हैं। बीजेपी की ओर से संभावित प्रत्याशियों की सूची तैयार कर हाईकमान को भेज दी गई हैं, जबकि सपा, कांग्रेस और बसपा भी इसी दिशा में गुपचुप तरीके से काम कर रही है। अब देखना यह होगा कि निगम का पहला बोर्ड गठन की तमाम प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब सहारनपुर का मेयर कौन होगा। नगर निगम बनने से पहले सहारनपुर नगर पालिका के लिए अध्यक्ष सामान्य जाति से ही रहा है। अंतिम पालिकाध्यक्ष कांग्रेस के पूर्व विधायक इमरान मसूद रहे थे उन्होंने बीजेपी हरीश मलिक को पराजित किया था। इससे पूर्व भी इस सीट पर बीजेपी का कब्जा रहा है। अब नगर निगम बनने और इसमें आसपास के गांव शामिल होने के बाद यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि पहली बार हो रहे निगम चुनाव में मेयर किस जाति का होगा। यदि सीट सामान्य रहती है तो भी टक्कर जबरदस्त होगी, क्योंकि निगम मंे जिन गांवों को शामिल किया गया है, उनकी आबादी दलित बाहुल्य है। इसलिए यह भी संभावना जताई जा रही है कि सीट बसपा के खाते में भी जा सकती है।

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कानपुर में मेयर की सीट आरक्षित हो गई है और इस बार महिला कंडीडेट शहर की मेयर होगी l यदि पिछले 15 वर्षो की बात की जाये तो इस मेयर सीट पर 10 वर्षो से बीजेपी का कब्ज़ा रहा है l वर्तमान में शहर बीजेपी से जगतवीर सिंह द्रोंण मेयर है और उनसे पहले बीजेपी से रविन्द्र पाटनी थे और इससे पहले कांग्रेस से अनिल शर्मा मेयर थे l

निकाय चुनाव में मेयर के पद की बात की जाये तो भारतीय जनता पार्टी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है l निकाय चुनाव के लिए बीजेपी के बड़े नेता दिन रात रणनीति बनाने में जुटे है l कानपुर से अब बीजेपी को महिला चेहरे की तलाश है ,इस लिस्ट में दो नाम अभी तक उभर कार आये है l पहला नाम नाम बीजेपी नेता स्वर्गीय विवेक शुक्ला की पत्नी का ,विवेक शील शुक्ला का परिवार उमा भारतीय के बेहद करीब है l उमा भारतीय विवेक शुक्ला को अपना भाई मानती थी जब उन्होंने बीजेपी छोड़ा था तो इन्ही के घर पर रूकती थी l लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव से पहले उनकी मौत हो गई थी इस लिहाज से विवेक शुक्ला की पत्नी को बीजेपी से मेयर का टिकट मिल सकता है l

वही बीजेपी से दूसरा नाम अनीता गुप्ता का चल रहा है जो वर्तमान में वह दक्षिण जिलाध्यक्ष है l उनकी पार्टी में अच्छी पकड़ है लेकिन इस के बीच बीजेपी के क्षेत्रीय कार्यकारणी इकाई अनीता गुप्ता को पसंद नही कर रही है l इसकी वजह है कि नगर कार्यकारणी इकाई और क्षेत्रीय कार्यकारणी इकाई में मतभेद है l यदि वही कांग्रेस से मेयर कंडीडेट की बात की जाये तो सबसे पहला नाम पवन गुप्ता व् पवन गुप्ता का चल रहा है l इसके साथ ही सपा व् बसपा ने अभी तक अपने पत्ते नही खोले है l

कानपुर नगर निगम में 110 वार्ड है चुनाव से पहले सभी वार्डों का परिसीमन हुआ है l बीते वर्षो में वार्डों की जनसँख्या बहुत तेजी से बढ़ी है जिसकी वजह से वार्डों का परिसीमन किया है l नगर निगम ने सभी वार्डों का मानक तय किया है एक वार्ड में 23 हजार की आबादी होनी चाहिए l जिन वार्डों की आबादी इससे ज्यादा है तो वार्डों को दूसरे वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया है l क्षेत्रफल के हिसाब से भी वार्डों का परिसीमन किया गया है l इस तरह के परिसीमन से जनसँख्या अनुपातित हो गई है l

निकाय चुनाव में 14 सीटे हरिजन कंडीडेट की है हरिजन सीट के लिए वार्डों की गिनती के 1 नंबर से लेकर 14 नंबर तक के वार्ड घोषित किये जाते है l यह निकाय चुनाव का नियम है लेकिन लेकिन ईस बार ऐसा हुआ है 10 नंबर वार्ड और 14 नंबर वार्ड सत्ता पक्ष के दबाव में छोड़ दिया गया है l 14 हरिजन सीटो में 5 महिला कंडीडेट होगी l

21 बैकवर्ड सीटे है है जिसमे से 9 महिलाये कंडीडेट होगी और 50 वार्ड सामान्य है जिसमे से 25 महिला कंडीडेट होगी l बीते निकाय चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या ज्यादा थी लेकिन बाद में यह सभी जीते हुए प्रत्यशी किसी न किसी पार्टी में शामिल हो गए थे l

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आगरा

नगर निगम चुनावों को लेकर गहमागहमी तेजी से शुरू हो गई है l आगरा में मेयर के लिए पद अनारक्षित है l हालांकि पिछले 20 सालो से मेयर अनुसूचित जाती जनजाति के लिए आरक्षित थी l आगरा नगर निगम में शुरू से बीजेपी का वर्चस्व रहा है l 90 पार्षदों में हमेशा बहुमत बीजेपी के पास रहा है l हालंकि बीजेपी और कांग्रेस के सिवा कोई भी सिम्बल पर चुनाव नहीं लड़ता l सपा बसपा हमेशा इन चुनावों में सिंबल देने से कतराते रहे है हालांकि इस बार सपा ने पहले से ही सिम्बल पर चुनाव लड़ाने की घोषणा कर दी है l हालांकि बदले परसीमन में अब वार्डो की संख्या 100 हो गयी है जिसके बाद सभी राजनीतिक पार्टियों के समीकरण बिगड़ गए है l

2007 में 43 पार्षद बीजेपी

12 कांग्रेस

25 बसपा समर्थित

07 सपा समर्थित

03 निर्दलीय

2012 में 39 बीजेपी पार्षद

24 सपा समर्थित

11 कांग्रेस

12 बसपा समर्थित

04 निर्दलीय

पिछले तीन चुनावो से लगातार मेयर पद पर बीजेपी का कब्जा रहा है । 2002 में किशोरीलाल माहोर, 2007 में अंजुला माहोर और 2012 में इंद्रजीत आर्य बी जे पी की टिकट पर मेंयर बने।

आगरा के नगर निगम चुनाव में सबसे बड़ी भूमिका वैश्य और दलीत वोट निभाते है l जहां शहर की नगरीय सीमा में आने वाले दक्षिण और छावनी क्षेत्र से बसपा समर्थित प्रत्याशी हमेशा मजबूत नजर आता वही जैसे ही वैश्य बाहुल्य और वैश्यो कि राजधानी कहलाये जाने वाली उत्तर की मतपेतिकाये खुलती है l परिणाम बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में होते चले जाते है। लगभग 12 लाख मतदातओं वाले आगरा नगर निगम में लगभग 4 लाख वैश्य और 3 लाख दलित मतदाता है।

इस बार इस चुनाव में जहां बीजेपी के लिए अपना वर्चस्व बचाने की जंग है वही सपा और बसपा जी जान लगाकर ये चुनाव जीतना चाहते है l निगम के वार्डो के आरक्षण ने भगवा खेमे के कई दिग्गज दावेदारों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं। आरक्षण परिवर्तन से जहां कुछ के हाथ निराशा लगी हैं, वहीं कुछ फूले नहीं समा रहे हैं। प्रत्याशी बनने के लिए दावेदार अब गणेश परिक्रमा लगाने लगे हैं। नगर निकाय चुनाव की तैयारियों को लेकर बीजेपी कोई चूक नहीं करना चाहती है। नेतृत्व के निर्देश पर संगठन ने तो तैयारियां शुरू कर दी हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही कई बाहरी भी अब दावा मजबूत कर रहे हैं। संगठन और पार्टी के कद्दावर अपने-अपने शागिर्दो की ताजपोशी में जुट गए हैं। इसके लिए समीकरण तैयार की जा रही है और क्षेत्र से सहमति भी बनाई जा रही है। पार्टी कार्यकारिणी और संगठनात्मक पदाधिकारियों के पास हाजिरी संख्या बढ़नी शुरू हो गई है। अपने को मजबूत दिखाने के साथ ही दूसरों को कमजोर करने का काम भी तेजी से शुरू हो गया है।

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मेरठ

महापौर पद पर अनुसूचित जाति महिला के लिए आरक्षित है। जिन लोगों को सांसद और विधायक चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला वो मेयर के होने वाले चुनावी महासमर में अपना मुकददर अजमाने के लिये ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा रहे हैं। बीजेपी क्योंकि यहां वर्चस्व बनाए हुए हैं। सांसद से लेकर विधायक और अभी तक पार्षद भी काफी चुनकर आते रहे हैं। इसलिए बीजेपी में महापौर पद के लिए अन्य दलों के मुकाबले अधिक मारामारी दिख रही है। मगर भले ही समय खराब हो लेकिन कांग्रेस और सपा और बसपा भी महानगर के चुनाव में पीछे नहीं दिख रही हैं। उनके द्वारा द्वारा भी मजबूत प्रत्याशी तलाशे जा रहे हैं। यह भी तय माना जा रहा है। वर्तमान में नगर निगम के वार्डों आदि के लिये हो रहे परिसीमन सर्वें में जिस प्रकार कार्यकर्ताओं द्वारा पूरा दम खम लगाया जा रहा है उससे ऐसा लगता है कि इस बार महापौर पद के लिये पार्टी उम्मीदवारों के साथ साथ राजनीतिक दलों के नेता चुनाव जीतने की संभावना वाले प्रत्याशी विद्रोही होकर भी अखाड़े में ताल ठोकने में पीछे नहीं रहेंगे।

मेरठ महापौर सीट शुरु में सामान्य सीट थी। 2006 में यह सीट महिला के लिए आरक्षित हुई। फिर 2012 में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित हुई। पिछले दो चुनावों में मेरठ महापौर का पद बीजेपी को लगातार मिला है। मंसलन 2012 में मेरठ नगर निगम महापौर पद पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित था। इस चुनाव में पंजाबी समाज के बीजेपी प्रत्याशी हरिकांत अहलूवालिया 1,98,579 मत लेकर शहर के प्रथम नागरिक बन गए। उन्होंने सपा समर्थित प्रत्याशी रफीक अंसारी को 77, 806 मतों से हराया। कांग्रेस के देवेन्द्र सिंह 53,112 मत लेकर तीसरे स्थान पर रहे। इस चुनाव में बीजेपी को 29,कांग्रेस को पांच,पीस पार्टी को दो,सपा को एक सीट मिली। चुनाव में निर्दलीय 43 उम्मीदवार जीते थे। इससे पहले 2006 नगर निगम चुनाव में मेरठ महापौर सीट महिला के लिए आरक्षित थी। इस चुनाव में बीजेपी की मधु गुर्जर ने 230861 मत लेकर 15 साल बाद महापौर पद पर कमल खिलाया था। उन्होंने यूडीएफ की संजीदा बेगम को 107976 मतों से मात दी थी। इस चुनाव में 80 पार्षद पदों पर बीजेपी ने 29, कांग्रेस ने पांच, शिव सेना ने एक, पीस पार्टी ने तीन व 42 पदों पर निर्दल प्रत्याशी विजयी रहे। इससे पहले हुए चुनाव में बीजेपी को 28, कांग्रेस को 4, सपा को 10, शिव सेना एक, रालोद को सात व 30 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते थे। नगर निगम में करीब 15 लाख की आबादी है. यहां सांप्रदायिक धुव्रीकरण चुनावों पर हावी रहा है। मेरठ में करीब 3 लाख वोटों में से करीब सवा लाख मुस्लिम वोट हैं. करीब 90 हजार वैश्य और ब्राह्मण तथा 25 हजार दलित वोट हैं। यहां के मुसलमानों की यूपी की राजनीति में खासी घुसपैठ है. मीट का कारोबार यहां की राजनीति का प्रमुख केंद्र रहा है.।

पूर्व प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की प्रतिष्ठा दांव पर

पिछले चुनाव के दौरान डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी जो मेरठ शहर से विधायक थे, प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष थे। तब मेरठ में ही नही बल्कि गाजियाबाद, मुरादाबाद, अलीगढ़, आगरा, कानपुर नगर, झांसी, लखनऊ, गोरखपुर, वाराणसी में बीजेपी का मेयर जीता था। यानी 12 में से 10 सीटों पर बीजेपी काबिज हुई थी। दो निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे। यही नही उनके कार्यकाल में 2014 लोकगसभा चुनाव में भी बीजेपी को अप्रत्याशित कामयाबी मिली थी। अब देखना यही है कि पूर्व अध्यक्ष और पूर्व विधायक के रुप में लक्ष्मीकांत वाजपेयी अपने गृह जनपद के नगर निगम चुनाव में बीजेपी को कितनी कामयाबी दिला पाते हैं। वैसे,पिछले काफी अर्से से बाजपेयी जिस तरह से शहर की समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं और अपने ही पार्टी के मेयर के कार्यकलापों पर उंगली उठा रहे हैं। मेरठ के अब तक के मेयर

1988-89 स्व0 अरुण जैन (चुनाव अप्रत्यक्ष,पार्षदों ने किया था निर्दलीय)

1995 अय्यूब अंसारी (चुनाव प्रत्यक्ष) बसपा

2000 शाहिद अखलाक (चुनाव प्रत्यक्ष) बसपा

2006 मधु गुर्जर बीजेपी

2012 हरिकांत अहलूवालिया बीजेपी

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अलीगढ

यहाँ बीजेपी की ओर से दो बड़े औद्योगिक घरानों में शक्ति प्रदर्शन की शुरुआत हो गई है। इन दोनों ही घरानों के पीछे बीजेपी के दो मजबूत घड़ों के बैकअप होने की भी बात सामने आ गई है। इस संभावना को और बल रविवार को मिला जब पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री अरुण कुमार सिंह एक औद्योगिक परिवार में पहुंचे।पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के मुताबिक पिछले दिनों प्रदेश संगठन महामंत्री सुनील बंसल अलीगढ़ आए और एक औद्योगिक घराने में भोजन के लिए पहुंचे। यहां पर बीजेपी का दूसरा मजबूत खेमा पहले से ही मौजूद था। इसमें जनप्रतिनिधि और स्थानीय बड़े नेताओं के नाम थे। यहां पर जिक्र कर देना जरूरी है कि निकाय चुनाव में टिकट वितरण में मुख्य भूमिका सुनील बंसल की ही है। इसलिए उनका कहीं जाना और ‘आशीर्वाद’ देना, इसके गंभीर संकेत और अर्थ निकाले जा सकते हैं।

इस खेमे के इस शक्ति प्रदर्शन को देखते हुए पहले खेमे को भी रणनीति पर काम करना और जरूरी हो गया। बीजेपी में जाहिर तौर पर चर्चा है कि राष्ट्रीय महामंत्री को भोजन पर आमंत्रण करना और यहीं पर मीडिया को भी संबोधित करवाना इसी रणनीति का हिस्सा है। इस शक्ति प्रदर्शन की बीजेपी संगठन ही नहीं बल्कि स्थानीय राजनीति पर नजर रखने वाले प्रत्येक समूह में चर्चा है।अब दो बड़े औद्योगिक घरानों के महापौर पद पर दावेदारी को देखते हुए अन्य जो लोग दावेदारी की कतार में लगे हैं, उन्हें अपनी दावेदारी पर फिर से विचार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर अब सभी की निगाहें बीजेपी के ‘बड़े’ नेताओं की ओर लगी हुई हैं, कि वह इस संबंध में क्या निर्णय लेते हैं।दोनों ही खेमों से जुड़े लोगों की अपनी दलीलें हैं और अपने विश्वास हैं। लेकिन अब महापौर पद के लिए टिकट को लेकर पार्टी में ही बेहद रोचक और कड़ी स्पर्धा की स्थिति बन गई है।

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Gagan D Mishra

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