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नर्मदा क्षिप्रा लिंक से फायदा कम, नुकसान ज्यादा
प्रदीप श्रीवास्तव
उज्जैन: नदियों को जोडऩे की कड़ी में नर्मदा और क्षिप्रा को आपस में जोडऩे से अपेक्षित लाभ नहीं मिलने के बावजूद नर्मदा - क्षिप्रा लिंक के द्वितीय चरण पर काम प्रारंभ हो चुका है। क्षिप्रा तक पंम्पिंग द्वारा लिफ्ट करके पानी पहुंचाया जा रहा है। इससे लाइन लॉस और अत्यधिक खर्च के कारण योजना पर ही सवाल उठने लगे हैं। इसके लिए सरकार ने किसी तरह की पर्यावरणीय सहमति भी नहीं ली है और भविष्य में होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का कोई आंकलन भी सरकार के पास नहीं है।
1985 में बागली के किसान कुरिसिंगल जोशी ने नर्मदा से कालीसिंध को जोडऩे की मुहिम शुरू की थी। उन्होंने कई मंचों से ‘नर्मदा लाओ, मालवा बचाओ’ की बात को उठाया। तब तक मालवा के नदी-नाले अच्छी स्थिति में थे। नर्मदा के पानी से कालीसिंध और क्षिप्रा के जरिए मालवा के आठ जिलों इन्दौर, देवास, शाजापुर, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम, राजगढ़ और सीहोर के नदी नालों को सदानीर बनाने का प्रस्ताव था। इसकी लागत उस समय करीब 17 करोड़ रुपए आंकी गई थी। इससे जुडऩे वाली नदियों में प्रमुख रूप से क्षिप्रा, सरस्वती, खान, लोदरी, गम्भीर, नेवज और चामला शामिल थीं। लेकिन, प्रदेश सरकार के पास इसके उपयोग का कोई ब्लू प्रिंट नहीं था। इधर, सरकारें आती जाती रहीं और हर साल जल संकट बढ़ता रहा।
बाद में जब मालवा में गंभीर जल संकट स्थायी रूप लेने लगा तब सरकार ने नर्मदा को क्षिप्रा नदी से जोडऩे की योजना की शुरुआत की। करीब 432 करोड़ रुपये की शुरुआती लागत वाली इस योजना को एक साल में यानी 29 नवंबर 2012 को पूरा होना था, लेकिन 26 फरवरी 2014 को यह पूरा हुआ। प्रथम चरण का काम पूरा होने के बाद राज्य सरकार नर्मदा से इंदौर, जबलपुर जैसे 18 बड़े शहरों को पानी दे रही है। द्वितीय चरण की योजना में भोपाल, बैतूल, खंडवा जैसे 35 और शहरों को भी इसका पानी दिया जाना है। साथ ही इस पर बने बांध से बिजली उत्पादन किया जाएगा।
परियोजना के प्रारंभ में कहा गया था कि उज्जैन और देवास जिले के क्षिप्रा किनारे करीब 250 ज्यादा गांवों के लोगों को पानी मिलेगा। साथ ही नदी में पानी भरा रहने से आस-पास के तालाब और अन्य जलस्रोत भी भरे रहेंगे और उनके जलस्तर में सुधार होगा। कुएं और तालाबों के रिचार्ज होने से इस पर खेती की निर्भरता को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन हुआ इससे ठीक उल्टा।
परियोजना के प्रथम चरण में करीब 400 करोड़ रुपए की लागत से 47 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन बिछाई गई है, जिससे सिसलिया तालाब से 5 क्यूसेक प्रति सेकेण्ड की दर से 348 मीटर की उंचाईं पर स्थित क्षिप्रा के उद्गम उज्जैनी गांव तक प्रतिदिन तीन लाख 60 हजार घन मीटर नर्मदा का पानी लिफ्ट किया जा रहा है। इसके लिए 2,250 किलोवाट के 18 पम्पों लगाए गए हैं, जिन पर 27.5 मेगावाट विद्युत की खपत होती है।
इस परियोजना में कई कमियां हैं। यह परियोजना गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी की योजना का नकल करने की कोशिश है। दरअसल गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया है। परन्तु साबरमती में नर्मदा के पानी डालने का काम गुरुत्वीय प्रवाह से हो रहा है, जबकि नर्मदा-क्षिप्रा लिंक परियोजना में चार जगह पम्पिंग स्टेशनों के माध्यम से लिफ्ट किया जा रहा है। भौगोलिक नजरिये से देखें तो नर्मदा को क्षिप्रा से जोडऩा एकदम उल्टी गंगा बहाने की हिमाकत है। स्वाभाविक है, चार स्टेज की पम्पिंग और 47 किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘लीकेज-लॉस’ से पहुंचने वाले पानी की मात्रा में भारी कमी आने लगी है। लिफ्ट करके नर्मदा के पानी को मालवा के पठार पर 348 मीटर की उंचाई पर क्षिप्रा के उद्गम -स्थल उज्जैनी गांव तक पहुंचाने की प्रक्रिया में भारी मात्रा में बिजली की खपत हो रही है।
नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अनुसार चार स्टेज की पम्पिंग स्टेशनों को चलाने के लिए 27.5 मेगावाट बिजली पर प्रति वर्ष 118.92 करोड़ रुपया खर्च हो रहा है। अर्थात पानी की कीमत 24 रुपया प्रति हजार लीटर होगी। अगर रख-रखाव, कर्मचारी भुगतान, जल रिसाव जैसे अन्यान्य खर्चों को भी जोड़ दें तो पानी की कीमत 48 रुपया प्रति हजार लीटर है। जबकि मध्य प्रदेश में तो यह मात्र 2 रुपया प्रति हजार लीटर है।
एक अहम बात ये भी है कि परियोजना के लिये शासन ने न तो सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया और न कोई कानूनी पर्यावरणीय मंजूरी ली। असल में एमपी सरकार ने पेयजल परियोजना में किसी भी पर्यावरणीय मंजूरी की अवश्यकता न होने वाली कानूनी खामियों का फायदा उठाया है।
मालवा की खान, गम्भीर, क्षिप्रा, कालीसिन्ध, पार्वती आदि सदानीरा नदियों की दुर्दशा की वजह अत्यधिक दोहन और खराब व्यवहार है। अब वही हाल नर्मदा का हो रहा है। अभी मालवा की नदियों को जिन्दा करने के लिए नर्मदा का पानी डाला जा रहा है, पर नर्मदा जब सूखने लगेगी तो उसको जीवित करने के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा? नदी जोड़ परियोजना का खास सिद्धान्त है कि किसी भी ज्यादा पानी वाली नदी का पानी किसी दूसरी नदी में तभी डाला जा सकता है, जब उस नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकता से अधिक पानी उपलब्ध हो। पर नर्मदा ही अब संकट में है। नर्मदा में जलप्रवाह घटता जा रहा है।
अमेरिका के ‘वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट’ ने नर्मदा को दुनिया की 6 सबसे संकटग्रस्त नदियों में माना है। दस-बीस सालों में नर्मदा घाटी की आबादी बढक़र 5 करोड़ हो जाएगी। मतलब यह है कि नर्मदा घाटी की जरूरतें ही जब बढ़ रही हों, तो कब-तक नर्मदा मालवा को पानी दे पाएगी?
नदी केवल पानी नहीं होती, उसका अपना एक जीवन होता है, चरित्र होता है, प्रवाह होता है, जैविक विविधता होती है। नदी के प्रवाह में उसके भू-सांस्कृतिक क्षेत्र की मिट्टी, तापक्रम, पंचतत्व शामिल रहते हैं, जिससे उसका जीवन बढ़ता है। अगर उसमें कोई दखल दी जाती है तो नदी का चरित्र और जीवन बदल जाता है। उसके बहाव से खिलवाड़ करना नदी के जीवन से छेड़छाड़ करने जैसा है।
पर्यावरण के एक्सपर्ट बताते हैं कि किसी भी नदी में अप्राकृतिक बदलाव से पहले नदी बेसिन के मूलभूत पहलुओं का आवश्यक तौर पर अध्ययन होना चाहिए। खास तौर से प्रवाह क्षेत्र, कमाण्ड क्षेत्र, प्रभावित होने वाली आबादी का सर्वे, जलाशय एवं कैनाल प्रणाली से स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभाव और मत्स्यपालन पर पडऩे वाले प्रभाव का अध्ययन जरूरी है। सम्पूर्ण पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभावों का व्यापक आंकलन होना चाहिए। जल एवं लोगों के स्थानान्तरण से पैदा होने वाले पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। सतही जल के प्रभाव से मिट्टी सिंचित हो पाएगी या नहीं? फसल प्रणाली में अचानक आने वाले बदलाव के सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव का भी अध्ययन आवश्यक है।
नदी में सिर्फ जल नहीं होता इसके अन्दर इसका अपना एक ईकोसिस्टम होता है। हर नदी एक अलग ईकोसिस्टम होता है। इन सारे ईकोसिस्टम को एक साथ जोडऩे का अर्थ होगा बेशकीमती जैव विविधताओं को सदा-सदा के लिये समाप्त कर देना। यह असर सिर्फ नदियों तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसके किनारे पर बसे जंगल, बस्तियों और जीव-जगत पर भी गहरा असर पड़ेगा।