TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

Save the children : हर कदम पर जद्दोजहद करता बचपन

tiwarishalini
Published on: 15 Sept 2017 1:51 PM IST
Save the children : हर कदम पर जद्दोजहद करता बचपन
X

अनुराग शुक्ला

लखनऊ। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में चालीस फीसदी बच्चों का ठीक से विकास नहीं हो रहा है। वहीं साठ प्रतिशत बच्चों का वजन मानक से कम है। राजस्थान में हर साल जन्म लेने वाले करीब अठारह लाख शिशुओं में से पहले ही साल अस्सी हजार की मृत्यु हो जाती है। वैसे, बच्चों की हालत सिर्फ भारत में नहीं पूरी दुनिया में बहुत खराब है। सेव दि चिल्ड्रेन की एक रिपोर्ट को देखें तो इसकी तस्दीक भी हो जाती है।

इस रिपोर्ट में स्पष्ट है कि दुनिया भर में हर साल दस लाख बच्चे एक दिन से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते हैं। वहीं यूनीसेफ की २०१२ की एक रिपोर्ट इसी मामले में देश की भयावाह तस्वीर पेश करती है। इसके मताबिक भारत में हर साल करीब १६ लाख बच्चे पांच साल की आयु नहीं पूरी कर पाते। और तो और एक हजार में ४८ बच्चे एक साल की आयु भी पूरी नहीं कर पाते हैं। साल २०१४ में आई संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट लेवल्स एंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मोर्टालिटी २०१४ में कहा गया है कि साल २०१३ में भारत में १३.४ लाख बच्चों की मौत हो गयी। हालांकि १९९० में यह आकंड़ा करीब दोगुना था। शिशु मृत्यु दर १९९० में ८८ थी और २०१३ में यह घटकर ४१ हो गयी। पर अब भी दुनिया में होने वाली नवजातों की कुल मौतों में से २६ फीसदी केवल भारत में होती है।

केरल के हालात बेहतर

बच्चों को बचाने में देश में केरल सबसे अच्छा है। यहां बाल मृत्यु दर ६ है जो अमरीका के बराबर व रूस चीन और ब्राजील से बेहतर है। अगर दुनिया की बात की जाये तो भारत से बेहतर स्थिति में विकसित देशों की छोडि़ए, नेपाल और बांग्लादेश हैं। हमारे देश में करीब ५ लाख बच्चे ऐसी बीमारियों से मरते हैं जिन्हें समय पर टीका लगाने से रोका जा सकता है। टीका न लगवाने के आधे से ज्यादा कारण टीके की सही जानकारी न होना (२६.३ फीसदी) और इसे अनावश्यक समझना है। टीकाकरण के बाद के दुष्प्रभाव भी इस मुहिम को रोकते हैं। टीकाकरण के दुष्प्रभाव की सबसे ज्यादा शिकायत केरल से (४०१) है। वहीं पश्चिम बंगाल में २७३, यूपी में २१८, महाराष्ट्र में २०८ और असम में यह शिकायतें १७५ थीं।

ये भी पढ़ें : CBSE की गाइडलाइन: स्कूलों में लगाएं CCTV, स्टाफ का हो मनौवैज्ञानिक टेस्ट

काल बना हुआ है डायरिया

देश में हर साल पांच वर्ष से कम उम्र के दस फीसदी बच्चों की मौत डायरिया से हो जाती है जबकि सरकारी दावा है कि देश के ८६ फीसदी परिवारों को सुरक्षित पानी उपलब्ध है। डायरिया से मौतों के मामले में हम सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान से बेहतर हैं। भूटान और नेपाल में तो यह ७ फीसदी व बांग्लादेश में 6 फीसदी है।

गर्भपात के मामले हो गये दोगुने

सिर्फ जिंदगी के लिए ही नहीं बल्कि बच्चों को जीवन पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। भारत में गर्भपात के मामले लगभग दोगुने तक हो गये हैं। बेटियों के प्रति दुराग्रह का असर और सामाजिक खुलापन भी इसकी बड़ी वजहें हैं। बानगी के तौर पर महाराष्ट्र में साल २००८-०९ में गर्भपात के ५९,८४३ मामले दर्ज हुए तो २०१५ आते आते यह बढक़र २ लाख १४ हजार से ज्यादा हो गये। वहीं पिछड़े समझे जाने वाले झारखंड में यह आंकड़ा साल २००८ के ३६१९ से बढक़र २०१५ में करीब छह गुना (१७२०३) हो गया। शायद यही वजह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘बेटी बचाओ’ और ‘सेल्फी विद डॉटर’ जैसे कार्यक्रम शुरू करने पड़े।

अस्पतालों में स्त्री रोग स्पेशलिस्ट ही नहीं

भारत में लगातार बढ़ रही कुपोषण की समस्या और मृत्युदर में अपेक्षित कमी न आने की एक खास वजह है स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी। १५ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर हुआ एक अध्ययन बताता है कि वहां स्त्री रोग विशेषज्ञों की कमी ९० फीसदी है। वर्ष २०१५-१६ के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में तमिलनाडु सबसे अच्छा राज्य माना गया जहां ४५ फीसदी महिलाओं को प्रसव पूर्व पूर्ण देखभाल मिलने की रिपोर्ट है। बिहार में यह आंकड़ा ३.३ फीसदी है। यही वजह है कि २८ फीसदी के आंकड़े के साथ कम वजन के नवजात के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है।

यूपी में नवजात शिशुओं की दुर्दशा

सबसे बड़े प्रदेश यूपी का हाल यह है कि पूर्वांचल और उत्तर मध्य हिस्से के ४४ जिलों में प्रति १००० में से ७० बच्चों की मौत पैदा होने से महज चार हफ्ते के बीच हो जा रही है। यूपी के ७५ जिलों में सिर्फ २७ जिलों में स्पेशल नियो नेटल केयर यूनिट है। और जहां है वहां गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज और फर्रुखाबाद में ऑक्सीजन की कमी से हुआ हाल सबसे सामने है।

ये भी पढ़ें : फिर सामने आया अखिलेश सरकार का कारनामा, फर्जी डिप्लोमा से 300 बाबू बनें JE

कैसे मिले क्वालिटीयुक्त जिंदगी

बच्चे अगर किसी तरह अपनी किस्मत से बच भी जाएं तो उन्हें जिंदगी की वह क्वालिटी नहीं मिल पाती जैसे मिलनी चाहिये। तभी तो भारत में बच्चों के शारीरिक विकास में कुपोषण का गहरा असर पड़ रहा है। किसी भी बच्चे के शुरुआती १००० दिन उसकी लंबाई के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। पूरी दुनिया के मुकाबले हमारे देश में सर्वाधिक बच्चे छोटे कद की समस्या से ग्रसित हैं। भारत शारीरिक विकास न होने वाले बच्चों का सबसे बड़ा देश है। यहां ऐसे बच्चों की संख्या ४ करोड़ ८२ लाख है। इसके बाद पाकिस्तान, नाइजीरिया, इंडोनेशिया और चीन आते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में पैदा होने वाले १०० बच्चों में से १ को हृदय रोग या दिल में खराबी होने की भी भयावाह आशंका सामने आई है।

फुटपाथ पर बीत रहा बचपन

भारत में अनगिनत बच्चे फुटपाथ पर ही पैदा होते हैं और वहीं उनका जीवन बीत जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक हैदराबाद की शानोशौकत के बीच ८४,५६३ बच्चे सडक़ पर जिंदगी बसर कर रहे हैं। कोलकाता में यह संख्या २१,९०७ है तो लखनऊ में यह संख्या करीब १०,७७१ है। ऐसे अधिकांश बच्चे बचपन से ही मजदूरी करने लगते हैं।

यह उनकी मजबूरी भी है और वजूद की जद्दोजेहद भी। वैसे, भारत में बाल श्रमिकों की संख्या में करीब ६५ फीसदी गिरावट आई है। साल २००१ की जनगणना के मुताबिक १ करोड़ ३० लाख बाल मजदूर थे जो अब घट कर ४३ लाख ५० हजार रह गये हैं। बावजूद इसके यह आंकड़ा भी डराने वाला है। देश की बात करें तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या करीब ९ लाख है और महाराष्ट्र में ५ लाख के करीब है।

शिक्षा का अधिकार बना मजाक

बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार तो लागू हो गया पर उसका माखौल उड़ाने में बड़े स्कूल सबसे आगे हैं। इसकी नजीर यूपी में ही देखने को मिला जाएगी जहां राजधानी लखनऊ में इस अधिकार के तहत किये गये आवेदन के महज ४९ फीसदी दाखिले बड़े स्कूलों ने दिए हैं। यह आगरा, वाराणसी, कानपुर इलाहाबाद में सबसे कम है। जबकि छोटे शहरों में दाखिले के आवेदन ही बहुत कम आए।

स्कूल भी सेफ नहीं

बच्चे अगर स्कूल पहुंच भी जाएं तो वहां भी सुरक्षित नहीं हैं। स्कूलों में यौन शोषण, शारीरिक प्रताडऩा आदि के मामलों में जबरदस्त तेजी देखने को मिली है। प्रद्युम्न की मौत भी इसी के इर्द गिर्द घूमती है। खास बात यह है कि इसी शिकायत करने में अभिभावक भी हिचकते हैं। यही वजह है कि १ सितंबर २०१६ को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने एक पोस्को ई बाक्स लगाया और तीस दिन में ६८ शिकायतें आ गईं। कुल ५९९ शिकायतों में उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा १८२ शिकायतें आई हैं और राजस्थान से आई शिकायतों की संख्या महज १८ है।ये भी पढ़ें : WOW: रेडियो फ्रीक्वेंसी आई कार्ड से बच्चे की हर लोकेशन से वाकिफ होंगे पैरेंट्स

कदम अपराध की दुनिया में

बुरे हालतों से घिरे बच्चे जब अपराध की ओर रुख कर लें तो हैरानी क्या। किशोर अपराध लगातार बढ़ रहा है। महिलाओं के खिलाफ किशोर अपराध में २०१२ की तुलना में २०१४ में १३२.३ फीसदी वृद्धि हुई है। २०१३ में कुल ४३,५०६ किशोर विभिन्न अपराधों में पकड़े गए। जिनमें ८३९२ निरक्षर थे तो १३,९८४ को सिर्फ प्राथमिक तक की शिक्षा मिली थी। किशोर द्वारा दुराचार के मामलों में ६०.३ फीसदी बढ़त दर्ज की गयी है।

यह तो हुई मजबूरी की बात अगर समृद्ध घरों की बात करें तो भी बच्चों को सुरक्षा की जरूरत है। बस यहां पर हमलावर की शक्ल बदल जाती है। अशिक्षा, गरीबी कुपोषण की जगह प्रभुताजनित व्यसन ले लेते हैं। हाल ही में दिल्ली में कार्टूनों पर हुये मनोवैज्ञानिक शोध में निकल कर आया कि दिल्ली के बच्चे हकीकत और कल्पनाओं में अंतर नहीं कर पाते हैं। कार्टून उनमें आक्रामक विचार भर देते हैं और कार्टून की नकल उन्हें दूसरे की दर्द पीड़ा से अनजान बनाकर संवेदनहीन बना रही है। ये कार्टून माता-पिता की तरह ही बच्चों के रोलमाडल होते हैं और बच्चे कार्टून के खलनायक से भी प्रेरित होते हैं। वहीं वीडियो गेम्स का कारोबार अरबों का है। इसके टॉप २० देश ९० फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं जिसमें भारत का स्थान १८ वां है और इसका बाजार ४२.८२ करोड़ का है।

सहनशीलता को लेकर मनोचिकित्सकों की थ्योरी एक अध्ययन से पुष्ट भी हो रही है। देश में हर पांच बच्चों में एक में सहनशीलता की कमी की बात एड्यूस्पोर्ट्स संस्था के सर्वे में सामने आई है। २६ राज्यों के ८७ शहरों के २४५ स्कूलों में हुए इस सर्वे से पता लगा है कि स्कूलों में फिटनेस की स्थिति चिंताजनक है। हर पांच में से एक बच्चे की सहनशीलता में कमी है। उन स्कूलों में यह स्थिति बेहतर है जहंा बच्चों के एक से ज्यादा स्पोर्ट्स पीरियड हैं। पैदा होने से लेकर बढऩे तक और फुटपाथ से लेकर पढऩे तक बच्चों को हर तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है। हम भारत को उज्जवल भविष्य देने की बात कर रहे हैं युवा होने पर इतरा रहे हैं। पर इस भविष्य के लिए हमें वर्तमान में निवेश करना होगा।

बच्चों के लिए भारत दूसरा सबसे खतरनाक देश

महिला और बाल कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों में ५२ फीसदी बच्चों के यौन उत्पीडऩ का शिकार होने की भयावह सच्चाई सामने आई है। आंकड़े गवाही देते हैं कि भारत बच्चों के लिए दूसरा सबसे खतरनाक देश बन गया है। देश में पांच से पंद्रह वर्ष तक के यौनकॢमयों की संख्या २० लाख के आसपास है। वहीं ३०.६ लाख बच्चे घरेलू कामगार के तौर पर काम करते हैं और इनमें से भी ४० फीसदी का यौन उत्पीडऩ होता है। हिंसा पीडि़त बच्चे मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित होते हैं। चिंता की बात यह है कि घरेलू हिंसा या बच्चों के साथ गलत व्यवहार की ६० फीसदी शिकायतें राष्ट्रीय बाल आयोग के पास यूपी से आ रही हैं।

बच्चों का व्यापार

हर साल ५ लाख बच्चों का व्यापार होता है और इसका बाजार सालान ३४ अरब डालर का है। देश में ८९४५ बच्चे हर साल गायब होते हैं। ‘बचपन बचाओ’ एनजीओ के मुताबिक देश भर में ११ बच्चे हर घंटे गायब होते हैं और इनमें से एक तिहाई का कभी पता नहीं चलता। २०१२ के मुकाबले २०१३ में दोगुने बच्चे लापता हुए। दिल्ली से ही से १८ बच्चे रोज गायब होते हैं। केंद्र सरकार ने इसके लिए बाकयदा एक खोया-पाया पोर्टल बनाया है जिस पर अब तक ८२१३ लोग रजिस्टर हुए हैं और कुल ८०८९ बच्चों के खोने की सूचना है।



\
tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

Next Story