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Mulayam Singh Yadav: खत्म हो चुकी पीढ़ी के अंतिम नेताजी मुलायम सिंह यादव
RIP Mulayam Singh Yadav: मुलायम सिंह यादव जी से मेरा परिचय इतने वर्षों पहले हुआ था कि अब वह तारीख तो दूर, साल तक याद नहीं है। हां, इतना जरूर याद है कि मैं उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था और छात्र संघ की राजनीति भी करता था।
Mulayam Singh Yadav Memorable Moments: यदि एक बहुआयामी शख्सियत को डिफाइन करना हो तो मुलायम सिंह यादव का नाम सामने आता है। एक ऐसे इंसान जिनसे मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। परत दर परत। मुलायम सिंह यादव जी से मेरा परिचय इतने वर्षों पहले हुआ था कि अब वह तारीख तो दूर, साल तक याद नहीं है। हां, इतना जरूर याद है कि मैं उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था और छात्र संघ की राजनीति भी करता था।
एक बार मुलायम सिंह जी इलाहाबाद में वकीलों के एक कार्यक्रम में गये थे। उसी कार्यक्रम में उनने वकीलों से दो टूक यह कह दिया कि आप लोग हिंदी में बहस किया करें। आप में से तमाम लोग अंग्रेज़ी सिर्फ इसलिए बोलते हैं ताकि केस में डेट लेने को भी मुवक्किल को बहस करना बता सकें।
मुलायम सिंह जी की यह बात हमें बहुत जँची। और हम उनसे मिलने जा पहुँचे। छात्र नेता सुनकर मुलायम सिंह जी ने हमें बहुत समय और तवज्जो, दोनों दिया।
मुलायम सिंह जी यह चाह रहे थे कि मैं उनकी पार्टी ज्वाइन कर लूँ। पर उन दिनों डॉ मुरली मनोहर जोशी और रज्जू भइया सरीखे शीर्ष पुरुष हमें जानते थे। हालाँकि ये बात दूसरी है कि डॉ जोशी से परिचय के बावजूद हमें छात्र संघ चुनाव में प्रकाशन मंत्री पद पर लड़ने के लिए विद्यार्थी परिषद से अवसर नहीं मिल सका। वजह ये थी कि लक्ष्मीकान्त ओझा जी नहीं चाहते थे। ख़ैर, मैं लड़ा और जीत भी गया।
बहरहाल, डॉ जोशी और रज्जू भइया जी से निकटता के नाते मैंने मुलायम सिंह के साथ जाना उचित नहीं समझा। पर मुलायम सिंह से मेल मुलाक़ात का सिलसिला शुरू हो चुका था। मुलायम सिंह जी के क़रीब जा कर लगा कि वह एक बड़े मन के आदमी थे।
मेरे पास उनसे जुड़े अनंत प्रसंग हैं, और संस्मरण हैं। किसे शेयर करूँ, किसे न करूँ, यह मेरे लिए बड़ी दुविधा है। पर हर संस्मरण में एक बात कॉमन है कि उनके मन में ग़रीबों का दिल धड़कता था। गाँव, गरीब, किसान उनके एजेंडे में होते थे। दवाई, पढ़ाई और रोज़गार पर उनका बहुत ज़ोर होता था।
गरीबों की चिंता
मुलायम सिंह जी की सरकार में हमें सरकारी अस्पताल में जाना सुभीता जनक लगता था। राम मनोहर लोहिया अस्पताल में एक डॉ अग्रवाल हुआ करते थे। वह नेता जी के बहुत करीबी थे। हम भी उनसे भली भाँति परिचित थे। मैं जब भी खुद को या अपनी माँ को दिखाने जाता था तो सारी दवाएँ हमें अस्पताल से मिल ज़ाया करती थीं।
एक दिन हमने नेता जी से कहा कि कुछ ऐसा कीजिये कि दवाएँ हम जैसे लोगों को अस्पताल से मुफ़्त न मिलें। मुफ़्त दवाएँ केवल ग़रीबों को मिलें। नेता जी का जवाब था-" यदि ऐसा कर दिया तो मुफ़्त दवाएँ केवल बड़े लोगों को मिलेंगी। ग़रीबों को मुफ़्त दवा मिलनी बंद हो जायेगी।"
लोक सेवा आयोग में रिज़र्वेशन
लोक सेवा आयोग में एक अध्यक्ष हुआ करते थे अनिल यादव जी। उन्होंने मनमानी करते हुए प्री,मेन और इंटरव्यू - तीनों में अलग अलग आरक्षण लागू कर दिया। हमसे इलाके के प्रतियोगी छात्र आकर मिले। उन्होंने बताया कि इस तरह के रिज़र्वेशन के लागू होने से अगड़े छात्रों का हक़ मारा जा रहा है। हमने नेता जी से समय लिया। मिला।
उन्हें हमने बताया कि किस तरह लोक सेवा आयोग में गड़बड़ी की जा रही है। जिससे बहुत बड़े तबके के प्रतियोगी छात्रों का हक़ मारा जाएगा। नेता जी ने मेरे सामने अनिल यादव को फ़ोन मिलाया। खूब खरी खोटी सुनाई। और दूसरे दिन लखनऊ तलब कर लिया। अनिल यादव अपनी पूरी टीम के साथ आये। नेता जी ने हमें भी बुलवाया। अनिल यादव अपने टीम के सामने नेताजी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि उनका फ़ैसला ओबीसी के हित में है, जो सपा का वोट बैंक है। नेता जी ने मेरी भी बात सुनी। और एक लाइन में अनिल यादव जी को कहा -"आप समझते हो कि हमारी सरकार ओबीसी वोट से बन गई है। सरकार केवल यादव व मुस्लिम वोटरों से बन जाती है। आपका यह सोचना ग़लत है।
ब्राह्मण - ठाकुर भले ही हमें वोट थोक के भाव नहीं देता है पर हमारे ख़िलाफ़ प्रचार नहीं भी करता है।यदि ये जातियाँ हमारे पीछे पड़ जातीं तो सपा यहाँ तक नहीं पहुँचतीं। जाइये, केवल सिलेक्शन कीजिये। पॉलिटिक्स हम लोग कर लेगें।" तुरंत नेता जी ने अनिल यादव व उनकी टीम को उस समय के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी से मिलने को भेज दिया। उधर अखिलेश जी को ताकीद कर दिया कि इसे लंबा इंतज़ार करवा कर मिलना।इसके दूसरे दिन उन दिनों सपा की राजनीति कर रहीं रंजना वाजपेयी इलाहाबाद से प्रतियोगी छात्रों का एक डेलीगेशन लेकर नेता जी से मिलीं।
चीनी मिलों की बिक्री
नेता जी की सरकार में ए.पी. सिंह मुख्य सचिव होते थे। सरकारी चीनी मिलों की बिक्री का प्रकरण चल रहा था। मिलें बजाज समूह लेना चाहता था। नीचे के अफ़सरों ने मिलें न बेची जायें, इसका नोट तैयार करके भेजा। इनमें से कुछ अफ़सर अभी कार्यरत हैं। कुछ रिटायर हो गये।मुख्य सचिव के कार्यालय में पूरी की पूरी नोट शीट पहले और अंतिम पेज को छोड़ कर बदल दी गयी। चूँकि नोट शीट हिंदी में थी। और हिंदी में फाँट अलग अलग होते हैं। सो नोट शीट में अलग अलग फॉन्ट उजागर हो रहे थे।
लिहाज़ा मुझे कई अफ़सरों ने संपर्क किया और इसके बारे में हमें बताया ताकि मैं खबर कर दूँ। वैसे फाँट देख कर ऐसा लग भी रहा था।मैंने खबर की। नेता जी ने बुला कर पूछा। सच्चाई जानी। आनन फ़ानन में उन्होंने यह डील रद कर दी।
उन दिनों बजाज कंपनी में बड़े पद पर आर.के. पनपालिया जी काम करते थे। उनने लखनऊ के अपने सहयोगी दुर्गा दत्त पांडेय के मार्फ़त हमसे संपर्क किया। पनपालिया जी ने कहा कि आप के चलते डील रद हो गई। पर मैं आप के साथ चाय पीना चाहता हूँ। वह लखनऊ आये। हमारी मुलाक़ात हुई। आज तक वह मेरे अभिन्न दोस्त हैं।
इंटरव्यू, चुनाव और शिवपाल
हर चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान नेताजी और हमारी बातचीत का क्रम बढ़ जाता था। 2007 के चुनाव होने थे। तब मैं ईटीवी में "रूबरू" और "दो टूक" के नाम से दो कार्यक्रम करता था। मुलायम सिंह जी का इंटरव्यू तय था। पर जब मैं टीम लेकर पहुँचा तो उनका गला ख़राब था। हम वापस लौट आये। दो दिन बाद देखा एक नेशनल चैनल का सेट मुख्यमंत्री आवास में लगा था। नेता जी ने उन्हें इंटरव्यू दिया। हमें यह बात अच्छी नहीं लगी।
लिहाज़ा थोड़े ख़राब लहजे में हमने बात कर ली। नेता जी नाराज़ नहीं हुए। हमें घर बुलाया। समझाया। बताया कि यह अमर सिंह जी के नाते हमें करना पड़ा। ख़ैर उस तनाव में हमने नेता जी का इंटरव्यू नहीं किया, पर यह ज़रूर उनसे कहा कि सरकार आपकी नहीं आ रही है।सरकार मायावती की आयेगी। उस सरकार में नेता जी ने विकास के बहुत काम किये थे। उत्तर प्रदेश की नदियों व नालों पर सबसे अधिक पुल उसी कालखंड में बने मिले आपको दिखेगें।
जब नतीजे आ गये तो नेता जी ने हमें बुलाया। पूछा ऐसा क्यों और कैसे हुआ। हमने उन्हें बताया कि आप के नेताओं की गाड़ियों से झांकती हुई बंदूक़ की नाल। आपका अमिताभ बच्चन जी वाला विज्ञापन। तीसरे शिवपाल सिंह जी।
नेता जी ने ध्यान से हमारी बात सुनी। शिवपाल जी को तुरंत बुलवाया। शिवपाल जी अवतरित हो गये। उस दिन तक हमारी शिवपाल जी से कोई वन टू वन बातचीत या मुलाक़ात हुई नहीं थी। नेता जी ने हमारा परिचय कराया। कहा, ये हमारे दोस्त हैं। फिर हमसे कहा, पराजय में शिवपाल का क्या रोल था बताइये। हमने बताया। शिवपाल जी उसके बाद हमें अपनी गाड़ी से अपने घर ले गये। तब से हम दोनों के परिचय प्रगाढ़ हुए।
अमर सिंह
नेता जी के दो और प्रिय, राम गोपाल जी और अमर सिंह जी से भी मेरी वन टू वन कोई मुलाक़ात हुई ही नहीं। हाँ, अमर सिंह जी के साथ एक "इनकाउंटर" ज़रूर हुआ। हुआ ये कि एक बार अमर सिंह जी अपनी पूरी टीम लेकर किसी देश में उम्दा शराब बनाने का गुर सीखने गये। हमने खबर कर दी। बनारस में एक प्रेस कांफ्रेंस में अमर सिंह जी ने हमें बहुत भला बुरा कहा। हमने भी फ़ोन पर खूब सुनाया। अमर सिंह जी ने मेरी शिकायत नेता जी से की। नेता जी लखनऊ से बाहर थे। उनने हमसे कहा कि आप एयरपोर्ट के प्राइवेट लाउंज में पहुँचें। मैं आ रहा हूँ।
अरविंद सिंह गोप तब अमर सिंह के निकट थे, उन्होंने हमसे कहा कि आप एयरपोर्ट हमारे साथ चले चलें तो हमारा भी काम हो जायेगा। मैं गोप जी के साथ एयरपोर्ट पहुँचा। अमर सिंह जी बलरामपुर शुगर फ़ैक्ट्री के मालिक के साथ मौजूद थे। मैं बाहर टहल रहा था। थोड़ी देर में नेता जी का जहाज़ उतरा। नेताजी मेरा हाथ पकड़ कर कमरे में लाये। अमर सिंह को इशारा कर उनके साथी को बाहर किया।
नेता जी ने मेरा और अमर सिंह, दोनों का हाथ अपने हाथ में लिया। अमर सिंह से कहा - "ये हमारे दोस्त हैं। इनने हमारी बहुत मदद की है।" बात आई और ख़त्म हो गयी।
घोषणापत्र और साड़ी
२०१२ के चुनाव में सपा के चुनाव घोषणापत्र में साड़ी बाँटने की बात कही गयी थी। साड़ियां एनटीसी से ख़रीदी जानी थीं। सपा के एक बड़े मुस्लिम नेता बीच में थे। हमें मेरे एनटीसी के एक सहयोगी ने बातचीत में अवगत कराया कि उत्तरप्रदेश में कमीशन बहुत है। अच्छी साड़ी सप्लाई कर पाना संभव नहीं है। हमने यह बात नेता जी को बताई। नेता जी ने उस विभाग के एक यादव मंत्री को न केवल डांट पिलाई बल्कि यहाँ तक कह दिया कि - "ग़रीबों की हाय मत लें।"
मोदी और मुलायम
जनवरी २०१४ का समय था। हमें उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जी से मिलने का समय मिला। हमने नेता जी से पूछा कि जाना चाहिए या नहीं? उनका सीधा और बिना पल भर रुके उत्तर था- बिल्कुल जाना चाहिए। पर इससे बड़े मन की बात यह रही कि लौटाने के बाद उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा कि क्या बात हुई। हाँ,पूरे चुनाव में मुलायम सिंह जी अपने भाषणों में मोदी जी कहते रहे। और मोदी जी,मुलायम सिंह जी ही कहते रहे।
मुलायम कांशीराम
पर कल्याण सिंह की सरकार बाबरी विध्वंस के बाद गिरी तो मुलायम सिंह ने कांशीराम से हाथ मिला लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा 177 सीटों पर सिमट गयी। मुलायम सिंह कांशीराम के साथ हाथ मिलाने की घटना को इस तरह बताते थे कि हम दोनों के बीच यह था कि कांशीराम जी केंद्र की राजनीति करेंगे। मुलायम सिंह जी प्रदेश की राजनीति । उत्तर प्रदेश में तीन मार्शल जातियाँ हैं- फारवर्ड में क्षेत्रीय,ओबीसी में यादव, दलित में पासी/ खटिक। ओबीसी की मार्शल क़ौम यादव के साथ गठजोड़ हो जाने के बाद दलितों को बूथ पर पहुँचने से रोकने वाली ताक़तों की शिकस्त हो गई। पर बाद में मायावती का प्रदेश की राजनीति में मन हमने लगा। उनका हस्तक्षेप बढ़ने लगा। नतीजतन कांशीराम व मुलायम के बीच शह मात का खेल शुरू हो गया। एक बार बतौर मुख्यमंत्री मुलायम जी गठबंधन धर्म के चलते लखनऊ के एक गेस्ट हाउस में कांशीराम से मिलने गये तो चार घंटे उन्हें कांशीराम जी ने इंतज़ार करवा दिया। जबकि दो घंटे भले वह अपने पार्टी पदाधिकारियों के साथ बैठक में मशगूल रहे हों, लेकिन दो घंटे वह पूरी तरह ख़ाली थे। इसी के साथ इलाहाबाद की एक सभा में मंच से कांशीराम जी ने मजबूरन मुलायम सिंह से उनकी इच्छा के विपरीत दलितों को हित में एक आदेश जारी करवाया। पब्लिक यह देख व समझ रही थी कि कांशीराम किस तरह मुलायम सिंह को दबाव में लिये बैठे हैं। मुलायम सिंह नहीं होते त कांशीराम का इतनी जल्दी संसद में पहुँचने का सपना पूरा नहीं ह पाता ।
नेता जी और जन्म दिन
हर साल के दो अवसरों पर मैं नेता जी से मिलना नहीं भूलता था। एक तारीख़ थी- नेता जी के जन्म दिन की। दूसरी तारीख़ थी मोरे जन्म दिन की। इन दोनों दिनों मैं उनका पैर छूता था। चरण स्पर्श करता था। पर नेता जी की महानता की वह बीच से ही हमें उठा कर गले लगा लेते थे। कभी भी हमें उन्होंने अपने पैर नहीं छूने दिये। उनके जन्म दिन पर मैं उन्हें एक पेन ज़रूर गिफ़्ट करता था।
नेता जी और राम मंदिर
मुलायम सिंह यादव हर दांव की काट रखते थे। 1984 में जब भाजपा ने अपने पालमपुर अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को अपने एजेंडे का हिस्सा बनाया तब से ही हिंदुत्व की राजनीति परवान चढ़ने लगी। मुलायम सिंह यादव पहली बार 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1990 में राम मंदिर आंदोलन चरम पर पहुंच गया था। भाजपा और विहिप ने इसके लिए जोरदार आंदोलन छेड़ रखा था। देश के विभिन्न हिस्सों से साधु-संत और कारसेवक अयोध्या की ओर कूच कर रहे थे। प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था। कारसेवकों की भीड़ को प्रवेश से रोका जा रहा था। बाबरी मस्जिद के इर्द-गिर्द भीड़ को रोकने के लिए पुलिस ने डेढ़ किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग लगा रखी थी । मगर कारसेवक किसी भी दबाव को मानने के लिए तैयार नहीं थे। बेकाबू कार सेवकों को रोकने के लिए पहली बार 30 अक्टूबर 1990 को पुलिस फायरिंग हुई। जिसमें पांच कारसेवकों की मौत हो गई थी।
पहले राउंड की फायरिंग के बाद कारसेवकों की भीड़ ने पुलिस प्रशासन पर दबाव और बढ़ा दिया। पहले गोली कांड के दो दिन बाद ही यानी 2 नवंबर, 1990 को हजारों कारसेवक हनुमानगढ़ी के करीब पहुंच गए। उमा भारती और अशोक सिंघल जैसे बड़े हिंदूवादी नेता कारसेवकों की इस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे। अलग-अलग दिशाओं से कारसेवकों का जत्था हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ रहा था।
प्रशासन इन कारसेवकों को रोकने की कोशिश में जुटा हुआ था मगर 30 अक्टूबर को हुई पुलिस फायरिंग के कारण कारसेवक भारी गुस्से में थे। बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के लिए आसपास की इमारतों की छतों पर पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे।
1990 में 2 नवंबर की सुबह के वक्त हनुमानगढ़ी के सामने लालकोठी वाली सकरी गली से कारसेवकों का जत्था आगे बढ़ता चला आ रहा था। इन कारसेवकों पर पुलिस ने सामने से फायरिंग कर दी जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक करीब डेढ़ दर्जन कारसेवकों की मौत हो गई। मरने वाले कारसेवकों में कोलकाता के कोठारी बंधु भी शामिल थे। हालांकि गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थी।
दूसरे राउंड के फायरिंग में तमाम कारसेवकों के मारे जाने के बाद लोगों का गुस्सा चरम पर पहुंच गया था। कारसेवकों के शवों के साथ भारी प्रदर्शन किया गया था। बाद में प्रशासन किसी तरह 4 नवंबर को कारसेवकों का अंतिम संस्कार कराने में कामयाब हो सका। अंतिम संस्कार के बाद कारसेवकों के शवों की राख देश के विभिन्न हिस्सों में ले जाई गई थी।इस के बाद अयोध्या को लेकर पूरे देश का माहौल गरमा गया था। कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग के बाद मुलायम को मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा था क्योंकि। क्योंकि उन्होंने कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग का आदेश दिया था।
1990 में अयोध्या में हुई इन घटनाओं का 1991 के विधानसभा चुनाव पर खासा असर पड़ा था। 1991 के विधानसभा चुनाव में भाजपा पहली बार प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी। चुनावी नतीजों में ध्रुवीकरण और जनता दल व जनता पार्टी में बिखराव का असर दिखा। प्रदेश विधानसभा की 425 सीटों पर हुए चुनाव में भाजपा 221 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब हुई थी। जनता दल को 92 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस ने 46 सीटें जीती थीं जबकि 34 सीटों पर जनता पार्टी को कामयाबी मिली थी।
पुलिस फायरिंग के करीब दो साल बाद 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचे को गिरा दिया गया था। हालांकि उस समय प्रदेश की कमान मुलायम नहीं बल्कि भाजपा के फायरब्रांड नेता कल्याण सिंह के हाथों में थी।
मुलायम सिंह यादव को राम मंदिर के विरोधी के रूप में चित्रित कर दिया गया। उन्हें मुल्ला मुलायम का ख़िताब दिया गया। पर एक बार मुलायम सिंह जी ने बहुत तफ़तीश से अयोध्या की दास्ताँ सुनाई। वाक़या यह था कि मुलायम सिंह की सरकार थी । मुख्यमंत्री आवास में संघ और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के साथ बैठक चल रही थी।
नेता जी के मुताबिक़ उन्होंने संघ व विहिप के नेताओं से कहा कि आप 2.77 एकड़ छोड़ कर बाक़ी जगह पर कार सेवा करें। निर्माण करें। पर संघ के लोग कम विहिप के लोग इस बात अड़े रहे कि हम कार सेवा की शुरुआत ही 2.77 एकड़ से ही करेंगे। मुलायम सिंह ने बताया , इस पर हमें ग़ुस्सा आ गया। तब हमें बयान देना पड़ा- " परिंदा पर नहीं मार पायेगा।"
मुलायम सिंह के धार्मिक पहलू को काफ़ी नज़र अंदाज किया गया। आज विंध्याचल में जो कॉरिडोर बन रहा है, उसकी शुरूआत अखिलेश यादव के कार्यकाल में हुई। हालाँकि पहल मुलायम सिंह जी ने की थी।मैं एक बार नव रात्रि पर विंध्याचल दर्शन करने गया। हमने तय किया कि इस बार आम आदमी की तरह दर्शन करूँगा। वीआईपी की तरह तो हमेशा दर्शन करता ही रहा हूँ। पर जब जनरल आदमियों की लाइन में लगा तब पता चल कैसे पुलिस वाले गर्दन पर हाथ रख कर आगे बढ़ने को विवश करते हैं। किसी तरह धक्का मुक्की के बाद मंदिर की मूर्ति तक पहुँचा।
माँ को प्रणाम कर पाता कि एक पुलिस वाले ने कालर पकड़ कर बाहर खींच लिया। वह जगह ख़ाली करा रहा था। एक तो भीड़ के नाते दम फूल रहा था। दूसरे माँ का दर्शन न कर पाने का दुख था। ख़ैर उसी दिन हमने माँ से प्रार्थना की हमें यहाँ कुछ करने की शक्ति दें। मैं लौट कर आया। हमने नेता जी से कहा कि विंध्याचल मंदिर को और खुला बनवाया जाये। आस पास की बिल्डिंग को ख़रीद करके सुंदरीकरण किया जाये।
उस समय नवनीत सहगल धर्मार्थ कार्य विभाग देख रहे थे। नेता जी के कहने के बाद मैं उनसे मिला। एक ब्लू प्रिंट तैयार हुआ। काम शुरू हो इससे पहले वहाँ के पंडा और आज भाजपा के नेता रत्नाकर मिश्रा जी कई लोगों को लेकर हमारे घर पधार गये।बताने लगे कि कॉरिडोर बन जायेगा तो पंडों की आमदनी मर जायेगी। आस पास की जनता नाराज़ हो जायेगी।
रत्नाकर जी को मैं बहुत सालों से जानता हूँ। विध्यांचल जाने पर वह ही हमें माँ के चरणों तक लेकर जाते हैं। मैं उनकी बातों में बहक गया। अपने पैर पीछे खींच लिये। पर आज वही रत्नाकर मिश्र जी उसी स्कीम को लागू करवा हैं।
पोर्टल और चैनल
मैंने अपना पोर्टल खोल लिया था। एक बार नेता जी ने पूछा कि इन दिनों मैं क्या कर रहा हूँ? हमने बताया कि मेरा पोर्टल है। न्यूज़ ट्रैक नाम है। चूंकि नेताजी पारंपरिक पत्रकारिता वाले समय के हैं, सो कहने लगे - बेकार हो गये हो?
मैं उन्हें समझाने की स्थिति में नहीं था। हमने उनकी बात मान ली। उन्होंने फ़ोन मिलाया। थोड़ी देर में गायत्री प्रजापति जी हाज़िर हो गये। नेता जी ने गायत्री प्रजापति से कहा- "ये मेरे दोस्त है। जो कहें कर देना। समझना कि मैंने कहा है।" मैं आवाक रह गया।
मैंने पूछा, "नेता जी मेरी समझ में कुछ नहीं आया। " नेता जी बोलो,"यह मदद करेगा चैनल खोल लो।" मुझसे नहीं रहा गया। मैं फट पड़ा। कहा कि इनमें सारी बुराई है। इनकी जो मदद लेगा वह भी पाप का भागी होगा। गायत्री जी ने सफ़ाई देनी चाही। पर नेता जी ने उन्हें मना कर दिया। इस प्रसंग के कुछ क्षणों के किरनमय नंदा जी भी साक्षी रहे।
आलोक रंजन की ख्वाहिश
आलोक रंजन मेरे निकट के मित्रों में हैं। नेफेड में तैनाती के समय एक सीबीआई जाँच की जद में वह आ गये। हालाँकि उन्हें क्लीन चिट मिलनी थी। मिल भी गयी। उनकी इच्छा उत्तर प्रदेश का मुख्य सचिव बनने की थी। उस समय उन्हीं के बैच के जावेद उस्मानी मुख्य सचिव थे। अखिलेश यादव की सरकार में मुस्लिम व यादव का हटना असंभव सा था। पर, हमने सोचा क्यों न कोशिश की जाये। एक रोज नेता जी से कहा कि हमारे एक दोस्त हैं। अच्छे अफ़सर हैं। उन्हें मुख्य सचिव बना दें। बात आई गई हो गई। एक दो महीने बाद हमने फिर कहा।
नेता जी ने कहा, बुलाओ। हमने उन्हें फ़ोन किया। वह उन दिनों एपीसी के पद पर तैनात थे। किसी समीक्षा लिए आगरा गये थे। हमने तुरंत नेता जी के घर पहुँचने को कहा। ख़ैर, वह आ धमके। नेता जी ने कहा कि योगेश तुम्हारी सिफ़ारिश कर रहे हैं। जाएँ, अखिलेश से मिल लें। जब आलोक रंजन, नेता जी के कमरे से निकले तब नेता जी ने अखिलेश जी को फ़ोन करके कहा कि इसे मुख्य सचिव बना दो। फिर उसके एक हफ़्ते बाद आलोक रंजन को पत्र मिल पाया।
अस्वस्थता
एक बार नेता जी ख़ासे अस्वस्थ थे। मेदांता में ही भर्ती थे। वह बार बार-बार हास्पिटल से निकलने की ज़िद कर रहे थे। डॉक्टर चाहते थे कि वह कुछ दिन और रुक जाते तो अच्छा होता। एक दिन अचानक अरविंद यादव जी का फ़ोन आया। उन्होंने कहा, "नेता जी की पत्नी , साधना गुप्ता जी बात करना चाहती हैं।" मैं फ़ोन लाइन पर था ही, वह भी आ गयीं। उन्होंने कहा कि "नेता जी आपकी बातें बहुत सुनते और मानते हैं। अगर आप दिल्ली आ जाते, उनसे कह देते कि कुछ दिन और हास्पिटल में रुक जाएं तो पूरी तरह ठीक होकर निकलते।"
मैं दिल्ली पहुँच गया। मेरे साथ मेरा बेटा आशीष भी था। हमें सुरक्षा आवरण पहनाये गये। मैं नेता जी के कमरे में दाखिल हुआ, हमें देख कर पहले तो आश्चर्य चकित हुए। फिर हमने हाल चाल पूछा। उनने बताया कि डॉक्टर ने कह दिया है आज डिस्चार्ज करेंगे। हमने पूछा किस डॉक्टर ने कहा हैं? ख़ैर हमने उन्हें बताया कि,"हमारी डॉक्टरों से बात हुई है, वे कह रहे हैं कि आप डिस्चार्ज होने की ज़िद कर रहे हैं। यह ठीक नहीं है। आपको दो तीन दिन और रुकना चाहिए तब आप यहाँ से पूरी तरह ठीक हो कर निकलेंगे।"
नेताजी बोले,"तुम हमारे घर वालों की बात बोल रहे हो।" हमने उनको भरोसे में लेते हुए कहा,"आप जानते हैं न कि मैं जिस बात से सहमत नहीं होता, उसे नहीं कहता। आपको दो तीन दिन रुकना चाहिए। मैं भी दो तीन दिन दिल्ली में हूँ। आपको डिस्चार्ज करा कर ही लखनऊ चलूँगा।" भगवान की कृपा से नेता जी मेरी राय मान गये।
बच्चे और नेता जी
नेता जी जब भी तनाव व परेशानी में होते तो उसे रिलीज़ करने का तरीक़ा अखिलेश जी के बच्चों से खेलना होता था। मैं इसका गवाह रहा हूँ। एक बार नेता जी बाहर वाले कमरे में सभी लाइटें बुझा कर बैठे थे। केवल एक लाइट जल रही थी। आम तौर पर वह सोफ़े पर सीधे बैठते थे। अधलेटे कभी किसी ने उन्हें नहीं देखा होगा। तब तक मैं पहुँचा। सारी लाइट जलाई गयी। थोड़ी ही देर में अखिलेश जी के बच्चे आ धमके। धमाचौकड़ी शुरू हो गयी। सोफ़े पर रखे कुशन को बच्चे नेता जी पर फेंक रहे थे। नेता जी बच्चों पर। नेता जी खिलखिला कर हंस भी रहे थे।
इसी बीच अखिलेश जी की बेटी ने नेता जी से शिकायत की कि घर में कुत्ता पाला गया है। नेता जी ने तो कभी देखा नहीं था। बोलने लगे- हम लोगों के यहाँ तो गाय पालना चाहिए । कुत्ता किसने पाला है। जल्दी उसे घर से बाहर करो।
प्रोटोकॉल और लाल अटैची
एक बार मैं नेता जी के साथ दिल्ली से लखनऊ आ रहा था। जहाज़ में क्यू में हम लोग थे। नेता जी के आगे केवल दो लोग थे। हमने सोचा दोनों को थोड़ा दबा कर नेता जी को आगे कर दूँ। ताकि वह सीट पर पहले बैठ जायें। पर जब मैंने दोनों को हटाने की कोशिश की तो नेता जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। वह क्यू में ही अपनी पहली सीट तक गये। लेकिन बाद में जहाज़ के प्रोटोकॉल वाले को बुलाकर हमने डाँटा कि वीआईपी प्रोटोकॉल भी तुम्हारे यहाँ फालो नहीं होता है। तब नेताजी कुछ नहीं बोले।
एक वाक़या और याद आता है जब हमने जहाज़ में यात्रा के दौरान उनकी लाल रंग का ब्रीफ केस उठा लिया। पर नेता जी ने उसे हमें उठाने नहीं दिया। उन्होंने हमारे हाथ से ब्रीफ़ केस खींच लिया। हमने मजाक में कहा कि, कुछ ज़्यादा माल है क्या? वो हंसे। बोले कि जब तक ताक़त है अपने काम खुद करने चाहिए।
बहुमत और शुभ मुहूर्त
एक वाक़या अखिलेश यादव जी के मुख्यमंत्री बनने का भी है। २०१२ के चुनाव के पहले हमने नेता जी से कहा था कि अबकी आप की स्पष्ट बहुमत की सरकार बनेगी। मायावती की तीन साल की सरकार थी, तब ही हमें इसका अहसास होने लगा था। जिस दिन रिज़ल्ट आने थे, उस दिन हम और नेता जी सपा कार्यालय में बैठ कर रिज़ल्ट देख रहे थे। शुरुआती दो घंटे में भाजपा तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। नेता जी ने कहा कि आप तो कह रहे थे कि सपा की सरकार बनेगी। पर बढ़त भाजपा को दिखा रही है।
नेता जी को भूख लगी थी। उनने कहा चलिये घर पर बैठ कर रिज़ल्ट देखते हैं। घर पहुँच कर कुछ खाने पीने के बाद देखा कि सपा की बढ़त तेज होती जा रही थी। जब सपा ने बहुमत का आँकड़ा पार कर लिया तब नेता जी ने कहा कि किसी पंडित जी को बुलवा लो, शपथ ग्रहण का मुहूर्त देखा जाये।
नेता जी के ही खास, प्रतापगढ़ के एक पंडित जी उस दिन डालीबाग गेस्ट हाउस में थे। हमने अनूप सरकार की गाड़ी भेज कर उन्हें बुलवाया। पंडित जी ने मुहूर्त निकाल कर दिया। पर नेता जी सहमत नहीं थे। दूसरा मुहूर्त निकला। वह भी कुछ दिन बाद का था। नेता जी इतने दिनों तक मायावती की सरकार चलने देने के पक्ष में नहीं थे। फिर तीसरा मुहूर्त निकला। जब ये हुआ तब कमरे में केवल चार पाँच लोग थे। नेता जी ने तीसरा मुहूर्त अखिलेश जी को दिया, अखिलेश जी ने उसे सदरी के पाकिट में रखा। तब तक मेरा पत्रकार जाग गया था।
मैंने नेता जी का हाथ पकड़ कर कहा, नेता जी यह तो बड़ी खबर है। इसे मैं नहीं लिखूँगा तो मैं कभी खुद को माफ़ नहीं कर पाऊँगा। पर नेता जी मानने को तैयार नहीं थे। हमने एक रास्ता सुझाया कि आप से मैं तीन सवाल पूछूँगा। उसमें एक सवाल यह होगा कि अखिलेश जी की इस सरकार में भूमिका क्या होगी? आप कह दीजिए सबसे महत्वपूर्ण। उनने कहा तुम ख़ुद लिख लो। इसके बाद अखिलेश जी को राज्यपाल से समय माँगने को कहा।
यहाँ इस बात का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है कि हमारे एक ज्योतिषी मित्र हैं- शिवहरि मिश्र। उनने चुनाव के दौरान हमसे कहा था कि इस बार न तो मायावती मुख्यमंत्री बनेंगीं। न ही मुलायम सिंह। कोई नया चेहरा मुख्यमंत्री बनेगा। पर मेरी सोच अखिलेश यादव तक पहुँच ही नहीं पाई। मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव राज्यपाल से मिलने गये। लौटे तो हमने पूछा कि आख़िर पहले मुहूर्त को आपने क्यों नहीं स्वीकार किया। जबकि वह सबसे शुभ मुहूर्त था।
नेता जी ने कहा कि उस दिन अखिलेश को लोकसभा जाकर सबका पैर छू कर आशीर्वाद लेना है। पर तीसरा मुहूर्त बताते समय पंडित जी ने साफ़ कहा था कि इस मुहूर्त में शपथ ग्रहण करने पर सरकार अपने अंतिम दिनों में बहुत अलोकप्रिय होगी।अगली बार नहीं आयेगी। पर जाने क्यों नेता जी ने इसे इग्नोर किया। शायद जो होना था वो तो होना ही था।
2003 की सपा की सरकार
सपा की कुल 143 सीटें थीं। बसपा को 98 विधायक थे। भाजपा के 88 विधायक थे। बसपा भाजपा मिलकर सरकार चला रहे थे। साल 2003 का अगस्त का माह था। मायावती की सरकार को तोड़ कर सरकार बनाने के काम में शिवपाल सिंह यादव अपनी टीम के साथ जुटे थे। पहले इन लोगों ने भाजपा में सेंध लगाई। फिर एक एक करके बसपाई मंत्री पर डोरे डाले लगे। इस तोड़ फोड़ के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत आन पड़ी। जहां तक हमें याद है तक़रीबन पाँच करोड़ रूपये की। शिवपाल सिंह ने मुलायम सिंह से पैसे माँगे। उन्होंने मना कर दिया। कहा," राजनीति में तोड़फोड़ करके सरकार तो बनाना चाहिए । पर पैसा देकर किसी पार्टी में तोड़फोड़ करना और सरकार बनाना सही नहीं होता है।" बाद में शिवपाल यादव ने अमर सिंह से पैसे माँगे। अमर सिंह ने मुलायम सिंह जी से पूछा। मुलायम सिंह ने कहा,'पैसे मत दीजिएगा । ये लोग ठगे जायेंगे।" बाद में यह सरकार पद देने के आश्वासन पर बनी। लेकिन भाजपा की केंद्र सरकार ने इस शर्त पर अपरोक्ष रूप से मदद की कि भाजपा में से सपा किसी को नहीं तोड़ेगी। हुआ भी यही।
लोहिया ग्रामीण बस सेवा
आज भी आप सब को यह लिखी हुई बसें सड़कों पर दौड़ती मिल जायेंगी। बात तब की है जब मुकेश मेश्राम जी परिवहन महकमे में तैनात थे। एक दिन हम लोग विचार विमर्श कर रहे थे कि गाँवों से पास के शहर या ज़िला मुख्यालय पर बहुत तेज़ी से माइग्रेशन हो रहा है। इसे कैसे रोका जाये।मुकेश मेश्राम जी यह चाहते थे कि यदि कोई ऐसी बस सेवा चला दी जाये जिससे गाँव के लोग सुबह ज़िला मुख्यालय पहुँचे और रात तक वापस लौट लें। तो शहरों में उनके उत्पाद का अच्छा मूल्य मिल जायेगा। श्रमिकों को अच्छी दिहाड़ी भी मिल सकेगी। पर इस तरह की सेवा शुरू करने में तक़रीबन सौ करोड़ रुपये के सालाना लॉस की गुंजाइश थी। उस समय आलोक रंजन जी मुख्य सचिव थे। मैंने उनसे बात की। वह तैयार थे। अखिलेश जी मुख्यमंत्री थे। पर हमने नेता जी बताया कि मुकेश मेश्राम नाम के एक अफ़सर ने परिवहन की एक योजना सोची है। जिससे गाँव के लोगों के उत्पाद को न केवल अच्छी क़ीमत मिल सकेगी बल्कि दिहाड़ी भी ज़्यादा मिलेगी। गाँव से मुख्यालयों पर हो रहा माइग्रेशन रूकेगा। बहुत देर तक नेता जी सोचते रहे। बोलो परिवहन निगम पहले से ही घाटे में है। हमने आग्रह किया कि निगम के घाटे फ़ायदे की जगह गाँव के लोगों को होने वाले फ़ायदे को देखें। दूसरे चाहें तो इसे लोहिया जी के नाम पर रख दें। मुलायम सिंह जी आँखों में चमक आ गई। पिछले साल इस योजना को एक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
मुलायम सिंह यादव से जुड़े किस्से, वाकये तो बहुत हैं। लिखने बैठूंगा तो एक पूरी संस्मरण की किताब हो जाएगी। लेकिन कभी लिखूंगा जरूर क्योंकि नेताजी अलग थे। नेताओं की उस खत्म हो चुकी पीढ़ी के आखिरी लोगों में से थे जो पॉलिटीशियन होने के साथ साथ एक आम इंसान की तरह सरल, सहज और जमीनी रहे, ताजिंदगी।