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पंडित दीनदयाल और डॉ. लोहिया को भारत रत्न देने की तैयारी

raghvendra
Published on: 12 Jan 2018 12:20 PM IST
पंडित दीनदयाल और डॉ. लोहिया को भारत रत्न देने की तैयारी
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योगेश मिश्र

लखनऊ: भारतीय जनता पार्टी की सरकार समाजवाद के प्रतीक पुरुष डॉ. राममनोहर लोहिया को झटकने की मुकम्मल तैयारी में है। नरेंद्र मोदी सरकार ने इस तैयारी को अमली जामा पहनाने के लिए इस बार भाजपा के प्रतीक और विचार पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ ही साथ डॉ. राममनोहर लोहिया को भारत रत्न से नवाजने का मन बनाया है। इस बाबत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तैयारी काफी दिनों से चल रही है। केरल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पं.दीनदयाल उपाध्याय और डॉ लोहिया के राजनैतिक प्रभाव को रेखांकित कर चुके हैं।

‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की शुरुआत डॉक्टर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सहयोग से ही 1967 में धरातल पर उतर पाई थी। सात राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों ने जगह ले ली थी। डॉक्टर लोहिया और पंडित दीनदयाल काफी समय साथ-साथ रहे। नदी, गंगा, राम, अयोध्या मथुरा, काशी, भारतीय संस्कृति, स्त्री, देशी भाषा और देशी भूषा के सवाल पर इन दोनों चिंतकों के विचार में कोई गंभीर मतभेद भी नहीं है। फिर भी धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के हथियार से इन्हें बांट दिया गया। भारत रत्न एक बार फिर इन दोनों के विचारों को समझने का मौका 21वीं शताब्दी के इस कालखंड में उन नवयुवकों को मुहैया कराएगा जिन्होंने सिर्फ इनके बीच के मतभेद के किस्से सुने हैं।

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केरल की एक रैली में साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अलावा पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डॉक्टर राममनोहर लोहिया के राजनीतिक चिंतन का प्रभाव आज की राजनीति पर भी है। हकीकत है कि, पंडित दीन दयाल का अंत्योदय और डॉक्टर लोहिया का समाजवाद मिलकर एक अंत्योदयी समाजवाद की ऐसी विचारधारा विकसित कर सकते हैं जो भारतीय समस्याओं के देशज हल पेश कर सकती है।

भारत रत्न के लिए संख्या की कोई बाध्यता नहीं है। दो, तीन और चार लोगों को भी एक ही साल में भारत रत्न से नवाज गया है। कई ऐसे भी वर्ष रहे हैं जिसमें भारत रत्न लायक कोई पात्र ही नहीं मिला है। 1954 में पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वतंत्र भारत के अंतिम गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी और वैज्ञानिक चंद्रशेखर वैंकटरमन को एक साथ भारत रत्न मिल चुका है। यही नहीं 1955 में भी ब्रह्मविद्यावादी भगवानदास, अभियंता एम विश्वेसरैया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी भारत रत्न से नवाजे जा चुके हैं। 1991 में राजीव गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मोरारजी देसाई भारत रत्न के हकदार बने। 1992 में अबुल कलाम आजाद, जे.आर.डी. टाटा और सत्यजीत रे को भारत रत्न से नवाजा गया। 1997 में अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा, स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ अली और वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को भारत रत्न प्रदान किया गया। जबकि 1961, 1963, 1990, 1998, 2001, 2014 और 2015 में दो-दो लोगों को भारत रत्न से नवाजा गया है।

1961 में बंगाल के मुख्यमंत्री और प्रतिष्ठित चिकित्सक बिधानचंद्र राय तथा हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के अगुवा पुरुषोत्तम दास टंडन को भारत रत्न मिल चुका है। जाकिर हुसैन को समाजसेवा के क्षेत्र में भारत रत्न मिला पर जब उन्हें यह सम्मान हासिल हुआ तो वह उपराष्ट्रपति थे। एन्डोलाजिस्ट और संस्कृत विद्वान पांडुरंग वामन काणे को भी इनके साथ ही 1963 में भारत रत्न मिला। 1990 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर और नेल्सन मंडेला इस अलंकरण के हकदार बने। 1998 में शास्त्रीय गायिका एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी और हरित क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चिदंबरम सुब्रमण्यम को भारत रत्न दिया गया। 2001 में संगीत साम्राज्ञी लता मंगेशकर और सुप्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान इस अलंकरण से नवाजे गये। डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अपनी जाती हुई सरकार में वैज्ञानिक सी.एन.आर.राव और क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न बनाया। सचिन को लेकर विवाद भी उठे।

नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के कार्यकाल में इससे पहले वर्ष 2015 में बीएचयू के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से नवाजा था। एक साल में दो या तीन लोग ही भारत रत्न नहीं बने बल्कि 1999 एक ऐसा वर्ष था जिसमें जयप्रकाश नारायण, नोबेल विजेता अमत्र्य सेन, असम को भारत के साथ एकजुट रखने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले गोपीनाथ बोरदोलोई तथा प्रशंसित सितारवादक रविशंकर को भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका है।

दरअसल दोनों राजनेताओं की राजनीतिक विचारधारा भले बाद में बांट दी गयी हो पर डॉ. राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत और भारतीयता को लेकर विचार के स्तर पर एक जैसी व्यवस्था के पोषक दिखते हैं। 23 मार्च, 1910 को जन्मे डॉ. लोहिया को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के राजनेताओं में मौलिक विचारक कहा जा सकता है। लोहिया के मन में भारतीय गणतंत्र को लेकर ठेठ देसी सोच थी। अपने इतिहास, अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे कतई पश्चिम से कोई सिद्धांत उधार लेकर व्याख्या करने को राजी नहीं थे। सन् 1932 में जर्मनी से ‘नमक सत्याग्रह’ पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंग्रेजी हटाने का आह्वान किया।

उनके लिए स्वभाषा राजनीति नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न था। उन्होंने हिंदुस्तानियों से अंग्रेजी को सामंती भाषा बताकर छोड़ देने और अंग्रेजी न आने पर गर्व होने तक की सीख दी। हालांकि लोहिया भी जर्मनी यानी विदेश से पढा़ई कर के आए थे। लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में रामायण मेला उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत जारी है। लोहिया भी भारत के विभाजन के खिलाफ थे। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘गिल्टी मैन एंड इंडियाज पार्टीशन’ (भारत विभाजन के गुनहगार) में परत दर परत रहस्यों को खोला है।

वहीं 1916 में जन्मे पंडित दीनदयालजी को जनसंघ के आर्थिक नीति के रचनाकार माना जाता है। जहां लोहिया ने समाजवाद का भारतीयकरण किया उसे माक्र्स के चश्मे से इतर भारत के परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया, वहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है, यह उनका विचार था। इसके लिए उन्होंने अंत्योदय एवं एकात्म मानववाद का विचार दिया। वह हमेशा अंतिम आदमी की बात करते रहे। दोनों नेताओं की मौत की साम्यता भी राजनीतिक बहस का मुद्दा रही है। दोनों की मौत 4 महीने के अंतराल में हुई जब कांग्रेस विरोध की मशाल अपने प्रखर पर थी। डॉ. राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत 12 अक्टूबर 1967 और 11 फरवरी 1968 को हुई। पंडित दीनदयाल की मौत को लेकर सवाल अब भी अनसुलझे हैं वहीं लोहिया की मौत जिस पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए अस्पताल में हुई वो जानलेवा नहीं मानी जाती है।

डॉ. राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन को समझना हो उनकी साम्यता के बारे में परीक्षण करना हो तो दोनों नेताओं के द्वारा अनेक विषयों पर लिखी गयी किताबें इसकी बानगी पेश करती हैं। डॉ. लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ’, ‘इतिहास चक्र’, ‘देश, विदेश नीति-कुछ पहलू’, ‘भारतीय शिल्प’, ‘भारत विभाजन के गुनहगार’, ‘माक्र्सवाद और समाजवाद’, ‘हिंदू बनाम हिंदू’, ‘हिन्दी का सरलीकरण’, ‘राम, कृष्ण और शिव’, ‘कृष्ण’ पर अपने विचार दिये वहीं पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने ‘दो योजनाएँ’, ‘राजनीतिक डायरी’, ‘भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन’ , ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ , ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’, और ‘एकात्म मानववाद’, ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि अपनी किताबों में जो विचार दिए हैं ये दोनों नेताओं की तासीर में एका की गवाही देते हैं। इसी तासीर का अब नरेंद्र मोदी सरकार अपने नए राजनैतिक समर में इस्तेमाल करना चाहती है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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