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Meerut News: पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धीमी पड़ती बापू की खादी की चमक
समय के हिसाब से धीमी होती जा रही है खादी के उत्पादन और बिक्री की चमक
Meerut News: कभी उत्तर भारत में खादी के लिए मशहूर जिले में खादी के उत्पादन और बिक्री की चमक धीमी पड़ती जा रही है। बेशक अमृत महोत्सव (Amrit Mahotsav) का नारा बुलंद कराने वाले नेताओं के खादी के कुर्ते चमकते दिखते हैं। लेकिन उतनी चमक बापू के गांधी आश्रमों पर नहीं दिखाई देती है। प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) कई बार खादी की विशेषता और इसे अपनाने की बात कर चुके हैं। लेकिन इसके बढ़ते दाम आज लोगों की खरीद से बाहर हैं।
खादी एवं ग्रामोद्योग कमीशन के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्रीय श्री गांधी आश्रम आज खुद बीमार हैं। केंद्रीय खादी कमीशन के अनुसार यह किसी तरह सांसें ले रहे हैं। यह वही संस्था है जो आजादी के समय से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को संगठित करने के साथ ही खादी व स्वदेशी का प्रचार करती थी। 88 वर्षीय शकुंतला देवी कहती हैं, "अब तो खादी के वस्त्र भी इतने महंगे हो गए हैं कि कोई लेने से पहले सौ बार सोचता है। हम हमेशा खादी की साड़ी पहनते थे। लेकिन अब खादी की साड़ी मिलती ही नहीं है। शायद बननी बंद हो गई है। केवल रेशम की विभिन्न प्रकार की साड़ियां मिलती हैं। जिनकी कीमत भी बहुत ज्यादा होती है।"
गांधी के सपनों की खादी तैयार करने को अब आश्रम पर सूत नहीं काता जाता। आश्रम में अब गंदगी पसरी है। निर्माण के बाद यहां सूत कातने का काम छह दशक तक चला, मगर वर्तमान में आश्रम की हालत बद से बदतर है। क्षेत्र में कपसाड़, भामौरी, मुल्हेड़ा, चकबंदी, गोटका, सलावा और कपसाड़ में भी गांधी आश्रम चले, मगर वर्तमान में सब पर ताले लटके हैं। मेरठ गांधी आश्रम के अंदर के कुछ लोग नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं। अब यहां के आश्रम की हालत खराब हो चुकी है। आर्थिक तंगी के कारण लोगों को कई महीने से वेतन नहीं मिल रहा है।
मेरठ की बात करें तो जिले में करीब 40 से 50 हजार पावरलूम में थे। यहाँ के बने कपड़ों की गुणवत्ता पूरी दुनिया में सराही जाती है। गांधी आश्रम में मिलने वाला सूती कपड़े का तिरंगा हथकरघा उद्योग की कारीगिरी पर मुहर लगाता है। मेरठ में यह उद्योग तेजी से फैला। रोजाना करीब पांच करोड़ रुपये के कारोबार वाली इस इंडस्ट्री में अब 90 फीसदी व्यापार कोरोना के कारण चौपट हो गया। पावरलूम इकाइयों पर ताला जड़ गया। चंद मशीनों के दम पर कपड़ों का प्रोडक्शन किया जा रहा है। 90 फीसदी कारोबार असंगठित होने की वजह से नकद कारोबार पर चलता था, जो पूरी तरह बंद पड़ गया।
मेरठ जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर खरखौदा ब्लॉक के कुछ गांव ऐसे भी हैं,जहां आज भी चरखे के माध्यम से महिलाएं खादी से संबंधित वस्त्रों के लिए रूई से धागा बनाते हुए मिल जाएंगी। चरखे का उपयोग करते हुए खादी के लिए धागा बनाने वाली महिलाओं की माने तो भले ही आधुनिक मशीनों के माध्यम से जल्दी कपड़े बनकर तैयार हो जाते हैं। उनका मूल्य भी सस्ता होता है। लेकिन चरखे के बनाए हुए धागे सालों साल तक चलते हैं।
चरखे से धागा बनाने वाली महिलाओं की मानें तो सुबह से शाम तक सिर्फ 50 रूपये के धागे ही बना पाती हैं। ऐसे में सरकार अगर खादी की तरफ विशेष रुप से ध्यान दे,तो इससे जुड़े लोंगो की संख्या में भी इजाफा सकता है।
विभागीय अफसरों ने नाम ना छापने की शर्त पर जो जानकारी दी है उसके अनुसार मेरठ समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, हापुड़, बुलन्दशहर, बागपत, बिजनौर आदि जनपदों में खादी के ग्राहकों की संख्या वर्तमान में आबादी का दस फीसदी ही रह गया है। यही कारण है कि मेरठ के सरधना,लावड़ के अलावा पड़ोस के गाजियाबाद, हापुड़, बिजनौर आदि जनपदों में खादी का वर्चस्व लगातार कम हो रहा है। इनमें 21 फीसदी महिलाएं और 25 फीसदी पुरुष 60 वर्ष से ज्यादा के हैं। करीब 40!फीसदी युवक-युवतियां निरक्षर हैं। अधिकारियों का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो आने वाले समय में खादी से जुड़े पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब 25?हजार परिवारों के समक्ष रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा।