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गठबंधन की राजनीतिक में मायावती को कोई भी रास न आया

raghvendra
Published on: 28 Jun 2019 11:55 AM IST
गठबंधन की राजनीतिक में मायावती को कोई भी रास न आया
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श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: राजनीति में मौकापरस्त तो हर राजनीतिज्ञ होता है, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती दूरदर्शिता और मौके पर चौका लगाने वाले राजनेताओं में सबसे आगे कहीं जाएं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। सपा-बसपा गठबंधन टूटने की बात तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही सामने आ चुकी थी, लेकिन थोड़ी-बहुत बचीखुची कसर भी अब मायावती ने पूरी कर दी है। उन्होंने गठबंधन के हमराही अखिलेश यादव का गुनहगार बताकर अपने राजनीतिक भविष्य का रास्ता और साफ कर लिया। मजे की बात यह है कि अभी तक अखिलेश यादव इस मुद्दे पर मुंह नहीं खोला है। सपा से गठबंधन करने के बाद बसपा को कितना फायदा हुआ, इसे इसी से समझा जा सकता है कि 2014 में शून्य पर रहने वाली बसपा इस बार 10 सीटों पर पहुंच गई। दूसरी ओर सपा पांच की पांच पर ही रह गई मगर उसके हाथ से बदायूं, कन्नौज और फिरोजाबाद जैसे मजबूत गढ़ निकल गए। इसके बावजूद मायावती पूरा दोषारोपण अखिलेश यादव पर कर रही हैं और उन्हें वोट ट्रांसफर न करा पाने का दोषी बता रही हैं।

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बसपा सुप्रीमो मायावती और अखिलेश यादव के फाइनल ब्रेक-अप के पीछे सबसे बड़ा कारण मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में करने का बताया जा रहा है। मायावती को पता है कि केंद्र और प्रदेश में भाजपा सरकारों के सत्तारूढ़ होने के बाद मुस्लिम वोट बैंक को एक ठिकाने की तलाश है। उन्हें लगता है कि भाजपा को हराने के लिए मुस्लिमों को मजबूत विपक्षी दल की तलाश है और वे इस कमी को पूरा कर सकती हैं। 2014 के चुनाव में प्रदेश से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं बन पाया और इस बार मुश्किल से 6 सांसद लोकसभा की दहलीज पर पहुंच सके हैं। चुनाव में करारी हार के बाद सपा की हालत पस्त है। ऐसे में मायावती को लग रहा है कि मुस्लिम वोट बैंक को पूरी तरह से अपने पाले में करने का इससे बेहतरीन मौका अब मिलने वाला नहीं है।

अखिलेश से ‘कुट्टी’ की सबसे बड़ी वजह

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मायावती की अखिलेश से ‘कुट्टी’ करने की सबसे बड़ी वजह मुस्लिम वोट बैंक ही है क्योंकि भाजपा के हिंदुत्व कार्ड के अपोजिट मुस्लिम बसपा का सहारा ले सकता है। आंकड़ों पर गौर करें तो सूबे में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 19.26 प्रतिशत है। सूबे के 12 जिलों में एक तिहाई मुस्लिम, 13 जिलों में 20 से 33 प्रतिशत, 12 जिलों में 15 से 20 प्रतिशत, 21 जिलों में 10 से15 तथा 17 जिलों में 10 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। बसपा का पश्चिमी जिलों में अच्छा खासा असर है। गत लोकसभा चुनाव में जिस तरह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अली-बजरंग बली राजनीति से वोटों का बंटवारा हुआ, उसी को आधार मानकर मायावती ने भविष्य के सुनहरे सपने बुनने शुरू कर दिए हैं। वर्ष 2007 के बाद से हुए लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में बसपा बुरी तरह से पराजित हो चुकी है।

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मायावती की मुस्लिम वोट की चाह ने ही अमरोहा के सांसद दानिश अली को लोकस भा में बसपा का नेता बनाया है। नसीमुद्दीन के पार्टी से निकलने के बाद से बसपा को किसी मजबूत मुस्लिम नेता की तलाश थी। वैसे तो मुस्लिम कई क्षेत्रों में प्रभावी भूमिका में हैं मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा क्षेत्र कहा जाता है। माना जा रहा है कि मायावती ने इसी नजरिये से ही कुंवर दानिश अली को आगे किया है। अब दानिश की जिम्मेदारी होगी कि वह मुस्लिम समाज को बसपा से जोडक़र पार्टी को और मजबूत करें। मायावती की मुस्लिम वोटों पर पैनी नजर गत लोकसभा चुनाव में भी दिखी थी। तब उन्होंने देवबंद में गठबंधन की रैली के दौरान मुस्लिमों को केंद्र में रखकर अपना भाषण दिया था। उस भाषण के पीछे उनकी मानसिकता थी कि मुस्लिम मतों में बंटवारे का भाजपा फायदा न उठा पाए।

घटती-बढ़ती रही मुस्लिमों की नुमाइंदगी

पिछले तीन दशकों की राजनीति पर गौर करें तो 1991 में मंदिर आंदोलन के बाद जब भी भाजपा का माहौल बना तो मुसलमानों की नुमंदिगी कम हो गई। 1991 में यह आंकड़ा तीन सांसदों का ही था। 1999 तक जब तक भाजपा का असर रहा, आंकड़ा दस के पार नही पहुंच सका। लेकिन अटल सरकार जब 2004 में चली गई तो इस चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ा और आंकड़ा दस पर पहुंच गया। इसमें 6 सपा के और 4 बसपा के सांसद बने। इसके बाद जब दोबारा यूपीए की सरकार 2009 में बनी तो एक बार फिर मुस्लिम वोट बैंक की ताकत दिखी और सात मुस्लिम सांसद बने। इसमें बसपा के 4 सांसद और कांग्रेस के तीन सांसद जीते। मुलायम-कल्याण दोस्ती के चलते पहली बार सपा का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं जीता था।

2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम सांसद चुनाव नहीं जीत सका था मगर इस बार सूबे से छह मुस्लिम सांसद चुने गए हैं। 17वीं लोकसभा के लिए हाल के चुनाव में विपक्षी पार्टियों के 16 सांसद चुनाव जीते हैं। छह मुस्लिम सांसदों में 3 सपा और 3 बसपा के हैं। इसमें भी खास बात यह है कि इनमें पांच सांसद पश्चिमी यूपी के हैं और 4 सांसद केवल मुरादाबाद मंडल के हैं। कांग्रेस के आठों मुस्लिम प्रत्याशियों के हारने से मायावती को लगने लगा है कि मुस्लिमों को कांग्रेस से कोई सहानुभूति नही है।

मायावती की सोची-समझी गणित

2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम यह समझने में नाकाम रहा कि किस पार्टी का दामन पकड़ा जाए जो भाजपा को कमजोर कर सके। यही कारण है कि पहले के चुनावों की तरह इस बार के लोकसभा चुनाव में भी मुस्लिम वोट बुरी तरह बंटता दिखाई पड़ा। मायावती को पता है कि मुस्लिम समाज अब महसूस कर रहा है कि समाजवादी पार्टी अब उनकी उतनी हिमायती नहीं रही जितनी मुलायम सिंह यादव के दौर में थी। यही हाल कांग्रेस का भी है। वह पिछले तीन दशकों से अपने अस्तित्व बचाने को लेकर संघर्ष के दौर से गुजर रही है। ऐसे में मायावती की नजर पूरी तरह से मुस्लिम वोटों पर टिक गई है। इसलिए उन्होंने सारा दोष अखिलेश यादव पर मढक़र मुस्लिम समाज में सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है।

जातीय संतुलन साधने का प्रयास

वही दूसरी तरफ 2007 की तर्ज पर ब्राह्मण वोटों को अपनी झोली में लाने के लिए सतीश चंद्र मिश्र पहले से ही इस बड़े वोट बैंक को अपने पाले में रखने की कवायद करते रहते हैं। कहा जा रहा है कि भाजपा में इन दिनों ब्राह्मणों की हो रही उपेक्षा को ध्यान में रखकर विधानसभा चुनाव के पहले एक बार फिर ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन किया जाएगा। 2007 में बसपा मूवमेंट के विस्तार के साथ ही पार्टी प्रमुख मायावती ने बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय का विस्तार करते हुए सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा दिया था और यह नारा काफी कारगर भी सिद्ध हुआ था। इसी नारे और सोशल इंजीनियरिंग से बसपा 2007 में अपने बूते 206 सीटें जीतकर लगभग 18 वर्ष बाद यूपी की सत्ता में आई।

जातीय आधार पर देखा जाए तो यूपी में दलितों की आबादी 15 प्रतिशत और ब्राह्मणों की आबादी 10 प्रतिशत को जोडऩे के साथ ही 54 प्रतिशत पिछड़ा वोट बैंक और 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट किसी भी दल की किस्मत बदलने के लिए काफी है। मायावती यही प्रयोग फिर से करने के प्रयास में है। पिछड़ा वोट बैंक सपा का परंपरागत वोट बैंक रहा है। मुलायम सिंह यादव पिछड़ों के सबसे बड़े मसीहा माने जाते रहे हैं। अब वह राजनीति में पहले की तरह सक्रिय नही हैं जिसके कारण यह बड़ा वोट बैंक भाजपा की तरफ लगातार खिसकता जा रहा है। भाजपा को चुनावों में इसका खूब लाभ भी मिला है। वैसे पिछड़ों में एक वर्ग ऐसा भी है जो मोदी की नीतियों से नाराज है मगर वह अखिलेश की नेतृत्व क्षमता को लेकर भी संदेह के घेरे में रहता है।

सुरक्षित सीटों पर बसपा कमजोर

प्रदेश की 17 सुरक्षित सीटों पर भी बसपा के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण भाजपा का बढऩा है। बसपा अनुसूचित जातियों पर सर्वाधिक प्रभाव का दावा करती आई है पर तीन दशकों में इन सीटों पर उसका कुछ खास असर नहीं दिखाई पड़ा है। मायावती ने अपना पहला चुनाव बिजनौर सुरक्षित सीट से 1989 में जीता था। तब बसपा को दो सीटें मिली थी। फिर 1991 में कांशीराम इटावा से जीते। इसके बाद बसपा की सीटें तो घटती-बढ़ती रहीं मगर सुरक्षित सीटों पर 5 सीटों से ज्यादा असर नही दिखाई दिया। पार्टी ने 1999 और 2004 में 5-5 सुरक्षित सीटें अपने पाले में की। 2009 में सपा ने सबसे अधिक 10 सुरक्षित सीटें जीती थीं जबकि बसपा को मात्र दो सीटों पर ही संतोष करना पडा था। 2014 और 2019 में मोदी लहर के चलते बसपा एक भी सुरक्षित सीट नहीं जीत पाई।

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बसपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में सभी 80 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। तब 21 सीटें ब्राह्मण प्रत्याशियों व 19 सीटें मुस्लिम प्रत्याशियों को दी गई थीं। तब मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 15 तथा क्षत्रियों को सिर्फ 8 सीटें दी थीं, लेकिन मोदी लहर के चलते बसपा को एक भी सीट नहीं मिल सकी। यह बात अलग है कि उसका वोट प्रतिशत 19.78 रहा। 2007 का चुनाव भी इसी फार्मूले पर लड़ा गया था। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने बड़ी चतुराई से सीटों का बंटवारा किया और सपा से ऐसी सीटें ले लीं जिन पर वह दूसरे स्थान पर थी।

मायावती पर छलने का आरोप

अम्बेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम के अध्यक्ष डा.लालजी निर्मल का कहना है कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने बीते 35 सालों से यूपी में दलितों को सिर्फ और सिर्फ छलने का काम किया है। उनके विकास के लिए ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे वे आर्थिक तौर पर मजबूत बन सकें। पैसे लेकर टिकट देने के कारण बसपा सुप्रीमो मायावती से दलित समाज काफी आहत और नाराज है। इसी वजह से इस बार के लोकसभा चुनाव में बसपा को सबक सिखाने के लिए इस समाज ने भाजपा को वोट किया है।

समझौतावादी नहीं बनना चाहतीं मायावती

अखिलेश यादव से ब्रेकअप के बाद अब मायावती की जो तैयारी है उसे राजनीति की बड़ी महत्वाकांक्षा ही कहेंगे। दरअसल भाजपा-कांग्रेस के बाद बसपा ही ऐसी पार्टी है जिसका प्रभाव देश के बड़े हिस्से में है। इसलिए यह पार्टी खुद को कभी ‘समझौतावादी’ साबित नहीं करती है। उत्तर प्रदेश में उसका मिलाजुला असर रहा है। पहले उसने 1995 में सपा से धोखा खाया और फिर भाजपा को झटका दिया। भाजपा संग जब फिर सत्ता के लिए अदला-बदली का मौका आया तो सरकार से बाहर चली गई। इसके बाद फिर भाजपा का साथ हुआ, लेकिन फिर यह साथ जल्द ही छूट गया। राष्ट्रीय राजनीति में भी यही हाल रहा। अपने 34 साल के राजनीतिक इतिहास में बसपा लोकसभा में दो बार दो दर्जन के आसपास सीटें जीतने में सफल रही। 2004 और 2009 के केंद्र में बसपा ने कांग्रेस का साथ दिया, लेकिन परमाणु करार के मामले में जब वामपंथियों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा तो बसपा ने भी कांग्रेस से समर्थन वापस ले लिया। इसके पहले भी जब 1996 में अटल सरकार को बहुमत साबित करना था तो 5 सदस्यों वाली बसपा ने पहले समर्थन का वादा किया मगर बाद में ऐन वक्त पर विरोध में वोट दिया जिससे अटल सरकार गिर गई।

मायावती को लेकर कोई दल कभी आश्वस्त नहीं रहता। यूपी में बसपा कांग्रेस से एक बार, सपा से दो बार और भाजपा से तीन बार गठबंधन कर उससे अलग हो चुकी हैं। मायावती की कोशिश अब फिर से 2007 के विधानसभा चुनाव के प्रयोग को दोहराने की है। उन्हें लगता है कि ‘सोशल इंजीनियरिंग’ फार्मूले के तहत ब्राह्मण, मुस्लिम और पिछड़ा-दलित कार्ड का लाभ भविष्य की राजनीति में फिर से पाया जा सकता है।

गठबंधन करने व तोड़ने में मायावती माहिर

मायावती का गठबंधन बनाना और तोडऩा कोई नई बात नहीं है। वह पहले भी पार्टी के लाभ के लिए राजनीतिक दलों से गठबंधन करती रही है। लोकसभा चुनावों से पहले मायावती ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी के नेतृत्व वाली जन कांग्रेस से गठबंधन किया मगर चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होंने अजीत जोगी से अपना गठबंधन तोड़ लिया। इसी तरह मायावती ने हरियाणा में हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) से भी हाथ मिलाया, लेकिन यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चला। इनेलो से वह दो बार गठबंधन कर चुकी है। 1998 में भी इनेलो-बसपा के बीच गठबंधन हुआ था। दोनों दलों ने लोकसभा चुनाव साथ लड़ा मगर विधानसभा चुनाव से पहले गठबंधन टूट गया। इसके अलावा हाल ही में हरियाणा में मिलकर लोकसभा चुनाव लडऩे वाली लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी?(लोसुपा) और बसपा के बीच गठबंधन टूट चुका है। अब बसपा राज्य के विधानसभा चुनाव में सभी 90 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। यूपी में मायावती का हर दल के साथ समझौता हो चुका हैं। तीन बार वे भाजपा के समर्थन से सरकार में रही। 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ा। बाद में उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। बसपा का सबसे पहले 1993 में सपा से गठबंधन हुआ था। तब इसी गठबंधन की सरकार बनी। उस समय भी यह गठबंधन सरकार अपना दो साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी, लेकिन फिर मायावती भाजपा के समर्थन से पहली बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी थीं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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