×

अवसरवाद की राजनीति: सियासत में अपने ही मित्र, अपने ही शत्रु

raghvendra
Published on: 23 Nov 2018 2:55 PM IST
अवसरवाद की राजनीति: सियासत में अपने ही मित्र, अपने ही शत्रु
X

राजकुमार उपाध्याय

लखनऊ: राजनीति में स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होते हैं। यह बात सपा मुखिया अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती ने हाल फिलहाल साबित कर दिया है। लेकिन इसके ठीक उलट अपना दल की कहानी बयां कर रही है कि राजनीति में अपने ही मित्र अपने ही शत्रु होते हैं। कभी वाराणसी से लेकर कानपुर तक के इलाके में अपनी जाति के वोटों को संगठित करके एक सियासी शक्ति का की शक्ल देने का काम पार्टी के संस्थापक डॉ. सोनेलाल पटेल ने किया था। वह अब राजनीति में कुर्सी की छोटी—छोटी महत्वाकांक्षाओं के चलते बिखरता नजर आ रहा है।

इस पार्टी की हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखा और वाराणसी की लोकसभा सीट चुनी तो अपने इस ख्वाब को पूरा करने की खातिर सोनेलाल पटेल की पार्टी ‘अपना दल’ की मदद की जरूरत आन पड़ी। इसके लिए अपना दल को दो सीटें देनी पड़ी। एक सीट पर अनुप्रिया पटेल उम्मीदवार बनीं और कहा जाता है कि दूसरी सीट पर पार्टी का संसाधन बढ़ाने के मद्देनजर किसी और के हवाले कर दिया गया।

डॉ. सोनेलाल पटेल की पत्नी ही अपनी पार्टी अपना दल में वजूद की तलाश में हैं और उनकी पार्टी दो फाड़ हो गई है। एक गुट अनुप्रिया पटेल और उनके पति के पास है। दूसरे गुट की कमान कृष्णा पटेल के हाथ में है। अनुप्रिया के पति आशीष पटेल को भाजपा ने विधानपरिषद की सदस्यता से नवाज दिया है। किसी भी संभावित विस्तार में उनके मंत्री बनने की मजबूत संभावनाएं देखी जा रही हैं। शायद इसी का तकाजा है कि पिछड़ों की राजनीति करने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के मुखिया ओम प्रकाश राजभर सरकार में रहने के बावजूद सरकार के काम काज पर सवाल उठाते रहते हैं।

राजभर चाहते हैं कि आरक्षण का वर्गीकरण हो। इस सवाल को लेकर भाजपा को घेरने में वह कहीं पीछे नहीं रहते हैं। लेकिन पटेल व कुर्मी की जनाधार वाली पार्टी अपना दल इस मुददे पर खामोशी ओढे हुए है। उसे भाजपा की लाइन के खिलाफ कुछ भी बोलना नागवार लगता है। हालांकि भाजपा ने 2017 के चुनाव में सुभासपा का साथ लिया था। अपना दल (सोनेलाल) ने 9 सीटें जीती थी, जबकि भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी को 4 सीटें हासिल हुई थी। यूपी में बीजेपी की जबरदस्त आंधी में दूसरे दल उड़ गए। बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 324 सीटें हासिल की हैं। इनमें से बीजेपी ने अकेले दम पर 311 सीटें जीती।

सपा में भी अपने हुए पराए

समाजवादी पार्टी में भी यही तस्वीर राज्य के विधानसभा चुनाव के समय उभरकर सामने आई। जब तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल यादव के खास अफसरों में शुमार दीपक सिंघल को मुख्य सचिव की कुर्सी से हटाकर उनकी जगह राहुल भटनागर की ताजपोशी कर दी। तुरंत इसका रिएक्शन भी सामने आया। तत्कालीन सपा मुखिया और अब पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से हटाकर शिवपाल को कमान सौंप दी।

शह मात का खेल यहीं नहीं रूका। बल्कि अखिलेश ने बतौर सीएम अपने चाचा शिवपाल यादव के लोक निर्माण, सिंचाई, सहकारिता व राजस्व जैसे महकमों को वापस ले लिया। तत्कालनी खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति और पंचायतीराज मंत्री राजकिशोर सिंह की बर्खास्तगी के बाद परिवार का संग्राम सडक़ पर आ गया। चाचा और भतीजे की लड़ाई तेज हो गई।

हालांकि मुलायम सिंह सुलह के प्रयास में लगे रहे। पर उसमें सफलता नहीं मिली। सियासत के दांव चले जाने अभी शेष थे। पार्टी और सरकार में फेरबदल का एक सिलसिला चल पड़ा। कई नेताओं को पार्टी से निकाला गया। पुराने चेहरों की जगह युवा नेताओं ने ले ली। अखिलेश और शिवपाल के समर्थकों में भिड़ंत भी हुई। उसी बीच चुनाव की तैयारियां भी शुरू हो गई। अखिलेश और शिवपाल ने अपने अलग—अलग प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी। कई सीटों पर दो प्रत्याशी हो गए। इसी बीच मुलायम ने 30 दिसंबर को अखिलेश और रामगोपाल यादव दोनों को पार्टी से 6 साल के लिए निकाल दिया लेकिन अगले ही दिन 31 दिसंबर को दोनों का निष्कासन रद्द कर दिया गया।

झगड़े का नतीजा विधानसभा चुनाव मे हार के रूप में निकला। एक जनवरी 2017 को सपा में तख्तापलट हो गया। सपा राष्ट्रीय अधिवेशन में अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। अमर सिंह पार्टी से बर्खास्त कर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को पार्टी का संरक्षक घोषित किया गया। पार्टी टूटने के कगार पर आ गई। सिंबल और पार्टी पर भी दावे की लड़ाई चली और आखिरकार शिवपाल सिंह यादव ने पहले सेकुलर मोर्चा का गठन किया और अब प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के मुखिया हैं जो आने वाले चुनावों में समाजवादी पार्टी की राह में मुमुश्किलें खड़ी कर सकती है।



raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story