प्रयागराज कुंभ पर खास रिपोर्ट: रेत पर सजेगा आस्था का मेला

यही तत्व है। यही ज्ञान है। यही तात्विक ज्ञान है। यही विज्ञान है। कुंभ का विज्ञान है। जीवन का विज्ञान है। यही तत्व, ज्ञान, विज्ञान हमारी चेतना के द्वार खोलते हैं। रेत पर हिन्दुस्तान बसाते हैं। तम्बू के शहर में सेवा और शुद्धि कायाकल्प की प्रक्रिया है। त्याग, तप, ज्ञान और संन्यास के लिए कुंभ की परम्परा प्रचलित हुई।

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Published on: 21 Dec 2018 7:26 AM GMT
प्रयागराज कुंभ पर खास रिपोर्ट: रेत पर सजेगा आस्था का मेला
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योगेश मिश्र योगेश मिश्र

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी

फूटा कुंभ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।

लखनऊ: यही तत्व है। यही ज्ञान है। यही तात्विक ज्ञान है। यही विज्ञान है। कुंभ का विज्ञान है। जीवन का विज्ञान है। यही तत्व, ज्ञान, विज्ञान हमारी चेतना के द्वार खोलते हैं। रेत पर हिन्दुस्तान बसाते हैं। तम्बू के शहर में सेवा और शुद्धि कायाकल्प की प्रक्रिया है। त्याग, तप, ज्ञान और संन्यास के लिए कुंभ की परम्परा प्रचलित हुई। इसीलिए एक ओर यह संतों, महंतों, नागाओं का उत्स है तो दूसरी ओर हर भारतवासी के कायाकल्प की प्रक्रिया है।

संतों, महंतों, नागाओं के अलावा कुंभ के आभूषण कल्पवासी भी होते हैं। उनके साधारण कैम्पों में कुंभ की आत्मा बसती है। ये महीनों तक संगम स्थान पर पुण्य कमाते हैं। कल्पवास में एक बार खाना और हर दिन गंगा नहाना होता है। इनके लिए मेला कौतुक नहीं होता बल्कि गंगा आस्था और मोक्षदायिनी होती है। कुंभ भारतीय संस्कृति की जीवंतता का प्रमाण है।

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कुंभ का संस्कृत अर्थ है कलश। ज्योतिष शास्त्र में कुंभ राशि का यही चिह्न है। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को वरुण आधार को ब्रह्मा और बीच के भाग को समस्त देवी-देवताओं और अंदर के जल को कुंभ के बाहर भीतर पानी का प्रतीक माना जाता है जो आत्म जागृति का वाहक बनता है। सभ्यता का संगम तैयार करता है। अनेकता में एकता वाले भारत की विविधता बताता है। तभी तो हम पिता की आज्ञा का पालन करने वाले राम की पूजा करते हैं, जबकि दूसरी ओर पिता की अवज्ञा करने वाले प्रह्लाद की भी पूजा करते हैं। इसी तरह पति और परिजनों की आज्ञा मानने वाली माता सीता की पूजा करते हैं, वहीं दूसरी ओर पति की अवज्ञा करने वाली मीरा की भी पूजा करते हैं। यह विरोधाभास भले हो पर इसके सकारात्मक संदेश भारतीयों की आत्मा में रचे बसे हैं।

गंगा के बिना हिन्दू संस्कार अधूरे

गंगा के बिना हिन्दू संस्कार अधूरे हैं। गंगा पुनीततम नदी है। नदी सूक्त में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद में ‘गंगय’ शब्द आया है। शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में गंगा और यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंत की विजयों और यज्ञों का उल्लेख है। स्कंद पुराण में गंगा के सहस्र नाम हैं। महाभारत और पुराण में गंगा की महत्ता और पवित्रता के सैकड़ों श्लोक हैं। कुंभ की महिमा गंगा से जुड़ी है।

गंगा पर लिखने से कतराते हैं आधुनिक कवि

तुलसी, पद्माकर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र आदि ने गंगा को अपनी कविता का विषय बनाया है। पर आधुनिक कवि गंगा पर लिखने से कतराते हैं, इसलिए कि कहीं उन्हें आस्थावादी और हिंदुत्ववादी न मान लिया जाए। त्रिलोचन पर प्रगतिशीलों की ऐसी भृकुटियां तनी थीं कि वे भीतर से कहीं हिंदुत्ववादी तो नहीं हो गए हैं। इस सबसे बेपरवाह ज्ञानेंद्रपति ने अपने संग्रह का नाम गंगातट ही रखा, जिसमें गांगेय संस्कृति के मौजूदा और बदलते स्वरूप के साथ साथ वैश्विक परिवर्तनों की आहट भी सुन पड़ती है।

कुंभ संस्कृति का पर्याय

यह भारत की मानवीय चेतना को प्रवाहित करती है। कुंभ शक्ति ज्ञान विज्ञान का प्रतीक है। कुंभ हमारे धर्म का अर्थ है। संस्कृति का पर्याय है। इसीलिए कुंभ को लेकर शक्ति की अनंत अंतरकथाएं प्रचलित हैं। कुंभ के साथ बहुआयामी संवेदनाएं हैं। कभी यह रिश्तेदारों और परिजनों से मिलने का बहाना भी होता था। एक-दो दशक पहले प्रयागराज का शायद ही कोई ऐसा घर रहता हो जहां कुंभ के दौरान रिश्तेदार आकर न टिकते हों। संगम तट से अलग शहर में भी कुंभ होता था। हालांकि न्यूक्लीयर फैमिली, शहरीकरण और वैश्वीकरण ने शहर के घरों में बसे कुंभ को उजाड़ दिया है। अब कुंभ सिर्फ संगम और गंगा की रेती तक है। अब कुंभ में लोग बिछड़ते नहीं हैं। मिलने के लिए लोग कुंभ में आते भी नहीं हैं। संतों-महंतों और नागाओं ने कुंभ की रोशनी कल्पवासियों से अपनी ओर मोड़ ली है। तकरीबन 25 सौ से तीन हजार संस्थाएं कुंभ में शिरकत करती हैं।

अंदर-बाहर का भेद मिटाना ही मकसद

कुंभ में हमारी कोशिश अंदर जमे पानी की गंगाजल से तालमेल बिठाने की होनी चाहिए। अंदर और बाहर के जल का भेद खत्म हो जाना चाहिए। कबीर कहते हैं कि विश्व (ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुं ओर चेतनता रूपी जल ही जल है तथा हम जीव भी छोटे-छोटे मिट्टी के घड़ों के समान हैं (कुंभ हैं ), जो पानी से भरे हैं, चेतनायुक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुंभ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप-रंग-आकार-प्रकार ही हैं।

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इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर-बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी। यही कुंभ का तत्व, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, धर्म और प्रेरणा है। यही कुंभ की सफलता है। हम लोग आत्मा के अमरत्व के साथ जुड़े हुए लोग हैं। आत्मा की सोच हमें काल से न तो बंधने देती है और न ही गुलाम बनने देती है। धर्म हमारे लिए जोडऩे की शक्ति है।

पूरे हिन्दुस्तान का नमूना

मेरी कहानी में पं.जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है, मैंने संगम में स्नान कर, भारद्वाज आश्रम में आने वाले यात्रियों को देखा है। इनमें तरह-तरह के लोग थे, जो वास्तव में पूरे हिंदुस्तान का नमूना थे। वास्तव में यह समग्र भारत था, जिसका दर्शन प्रयाग के कुंभ पर्व पर होता था और आज भी होता है। कैसा आश्चर्यजनक और प्रबल है यह विश्वास, जो हजारों वर्षों से इनको और इनके पूर्वजों को भारत के कोने-कोने से खींचकर गंगा के पावन जल में स्नान के लिए ले आता रहा है।

त्रिलोचन को भी कुंभ खींच लाया

हिंदी के प्रख्यात कवि त्रिलोचन के मन में कुछ ऐसा ही आकर्षण था, जो उन्हें कुंभ मेले में खींच ले गया। उन दिनों शमशेर तो वहां थे ही, त्रिलोचन बनारस में रहते थे। सो वे प्रयाग आए और कुंभ में कई दिनों तक प्रवास करते रहे। इस दौरान उन्होंने अपने पचीस सानेटों में महाकुंभ को समेटा। उसके हर पहलू पर एक सानेट। रामविलास शर्मा ने इन सानेटों को हिंदी भाषा का लघुत्तम महाकाव्य कहा था।

निबंधकार विद्यानिवास मिश्र प्राय: गंगा-यमुना के संगम तट पर भागवत कथा सुनते और माह भर संगम तट पर ठिठुरती शीत में स्नान किया करते थे। उन्होंने लिखा है,1942 से कल्पवास की साधना का अभ्यासी मन चल मन गंगा तीरे कहता हुआ निकल पड़ता था। सारी सांसारिकता को दरकिनार कर पंडित जी कल्पवास में लीन रहते थे जिसे उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा। शमशेर की कविताओं में भी इलाहाबाद और गंगा की कुछ यादें हैं। टूटी हुई बिखरी हुई में इसके कुछ चित्र मिलते हैं।

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कुंभ यात्रा के एक रोमांचक वृत्तांत में कथाकार रामदरश मिश्र ने लिखा है कि कैसे वे अपनी मां और दो अन्य बुजुर्ग स्त्रियों के साथ प्रयाग पहुंचे और एक पंडे के यहां रहने का ठीहा जुगाड़ किया। वे लिखते हैं, यात्रियों के पास चादर या दरी के अलावा होता क्या है? माघ में सील भरी जमीन पर चादर या दरी बिछाकर सोना कितना मुश्किल होता है? लेकिन कुछ मुश्किल नही होता, जिसके भीतर गंगा मइया के प्रताप से मुक्ति की आकांक्षा भरी हो।

बैठने के लिए ईंट का जुगाड़

पूर्ण कुंभ का ऐसा ही एक अनुभव कथाकार विवेकी राय का भी है। विवेकी राय जी पर अपनी मां सहित दो अन्य बूढ़ी माताओं को स्नान कराने का जिम्मा आन पड़ा था। इस मेले में उनकी देखभाल के बावजूद एक मांजी नहाने के वक्त कहीं खो गई और फिर दूसरे दिन तडक़े किसी तरह वे वापस मिल सकीं। मेले की भीड़ में कहीं बैठने का जोग नहीं, ठीहा नहीं। सो वे एक ईंट ही झोले में भरकर चलते-फिरते रहे। जहां थकान महसूस होती, ईंट निकाल कर बैठ जाते। इस यात्रा का बेहद रोमांचक खाका खींचते हुए अंत में उन्होंने लिखा है, तकिए की जगह वही ईंट का प्रिय टुकड़ा कुछ कपड़ों के साथ रखा जाता और ऊनी चादर पर कट जाती महाकुंभ की रातें।

कुंभ नहीं देखा तो देश नहीं देखा

निर्मल वर्मा कुंभ से लौटते लोगों को देख कहते हैं, सबके हाथों में गीली धोतियां, तौलिए हैं, गगरियों और लोटों में गंगाजल भरा है। मैं इन्हें फिर कभी नहीं देखूंगा। कुछ दिनों में वे सब हिंदुस्तान के सुदूर कोनों में खो जाएंगे, लेकिन एक दिन हम फिर मिलेंगे, मृत्यु की घड़ी में आज का गंगाजल, उसकी कुछ बूंदें, उनके चेहरों पर छिडक़ी जाएंगी। ऊन के गोले की तरह खुलते सूरज से लेकर मेले में फहरती पताकाओं, शिविरों, बुझी आवाजों में गाते कीर्तनियों, ऋगवेद की ऋचाओं के शुद्ध उच्चारण में पगी सुर लहरियों, नंगे निरंजनी साधुओं, खुली धूप में पसरे हिप्पियों, युद्ध की छोटी-मोटी छावनियों से तने तंबुओं के इस वातावरण से बावस्ता निर्मल वर्मा ने यहां अपने भीतर के निर्माल्य का खुला परिचय दिया है।

याद आया समरेश बसु का उपन्यास अमृत कुंभ की खोज में जिसमें उन्होंने कुंभ मेले को आधार बनाकर पूरा गल्प ही रच डाला है। हिंदी कहानी की नींव रखने वाली बंग महिला राजेन्द्र बाला घोष की एक कहानी कुंभ में छोटी बहू नाम से भी है, जिसमें छोटी बहू की कुंभ स्नान की इच्छा का मार्मिक निरूपण है। कुंभ हमारा इतिहास है, हमारा क्रमिक विकास है।

हमारे धर्म और दर्शन का प्रमाण है हमारी अनेकता और विविधता का जीवंत दस्तावेज है। हमारी धार्मिक मान्यताओं का वाहक है। हमारे मोक्ष का माध्यम है। हमारी संस्कृति की पहचान है। हमारी अंतरात्मा का अटूट विश्वास है। जिन्होंने कुंभ नहीं देखा उन्होंने देश नहीं देखा। जिन्होंने देश की तासीर नहीं परखी, देश का मिजाज नहीं पाया, देश को वह आत्मसात नहीं कर पाया। जिन्ने कुंभ नहीं वेख्या, वो जाम्या ही नहीं।

लेखकों-कवियों ने भी महसूस की महत्ता

महाकुंभ के रूप में स्नान और धर्म-कर्म की इस महाबेला को लेखकों-कवियों ने भी महसूस किया है। डॉ. ओम निश्चल के मुताबिक मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी रेत पर। असंख्य पदचिह्नों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बांधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे अंतहीन यात्रियों की कतार थी। शताब्दियों से चलती हुई, थकी, उद्भ्रांत, मलिन, फिर भी सतत प्रवाहमान। पता नहीं, वे कहां जा रहे हैं, किस दिशा में, किस दिशा को खोज रहे हैं, एक शती से दूसरी शती की सीढिय़ां चढ़ते हुए? कहां है वह कुंभ घट जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबाकर रखा था? न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का, अमृत की कुछ तलछटी बूंदों का, जिसकी तलाश में यह लंबी यातना भरी धूलधूसरित यात्रा शुरु हुई हैं। हजारों वर्षो के लॉन्ग मार्च, तीर्थ अभियान, सूखे कंठ की अपार तृष्णा, जिसे इतिहासकार भारतीय संस्कृति कहते हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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