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Mahakumbh 2025 History: कैसे शुरू हुई कुंभ स्नान की परंपरा, नागा साधुओं के लिए क्यों महत्वपूर्ण होता है ये पर्व..

Kumbh Snan Ka Itihas Wiki in Hindi: महाकुंभ नागा के जीवन में बहुत ही अधिक महत्व रखता है। इस महापर्व के दौरान ही नागाओं को दीक्षित कर उन्हें नागा बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

Jyotsna Singh
Written By Jyotsna Singh
Published on: 5 Dec 2024 7:38 PM IST
Kumbh Snan Ka Itihas Wiki in Hindi
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Kumbh Snan Ka Itihas Wiki in Hindi

Kumbh Snan Ka Itihas: आगामी कुंभ मेले के आरंभ में अब कुछ ही समय शेष है । आस्था और परंपरा के इस दिव्य संगम में कुंभ स्नान के दौरान शैव संन्यासी नागा साधु इस पर्व का बेहद अहम हिस्सा होते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि कुंभ स्नान की आखिर इतनी अधिक महत्ता क्यों है। तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि कुंभ पर्व से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनका सीधा संबंध हमारे देवी देवताओं से माना जाता है। चर्चित पौराणिक कथा कि बात करें तो देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें छलकने से जुड़ा है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता दैत्यों द्वारा परास्त कर दिए गए थे।

तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता अपने शत्रु दैत्यों के साथ मिल कर अमृत निकालने के लिए इस काम में लग गए।


अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं की पूर्व योजना के अनुसार इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा कर बीच रास्ते में ही जयंत को दैत्यों द्वारा पकड़ लिया जाता है । तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।

धरती पर इसलिए मनाया जाता है चार जगहों पर कुंभ

इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था।


देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।

इस तरह तय होता है कुंभ का योग

जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है । अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व सम्पन्न होता है।


वहीं बात कुंभ स्नान के दौरान आकर्षण का प्रमुख केंद्र बिंदु रहने वाले नागाओं का तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि पौराणिक समय से ही नागाओं का अस्तित्व व्याप्त है।कुंभ स्नान में भारत देश के कोने कोने से आने वाले नागाओं को देखने के लिए खास तरह का उत्साह इस स्थल पर मौजूद श्रद्धालुओं के बीच खास तौर से दिखाई देता है। दरअसल कुंभ मेले के दौरान नागा साधु ही सबसे पहले शाही स्नान करते हैं। इनके बाद ही कोई अन्य शाही स्नान के लिए पवित्र नदी में प्रवेश कर सकता है। आइए जानते हैं कुंभ स्नान इन नागा साधुओं के लिए किस तरह से महत्व रखता है-

महाकुंभ से जुड़े नागा साधुओं के ये होते हैं खास संस्कार

महाकुंभ नागा के जीवन में बहुत ही अधिक महत्व रखता है। इस महापर्व के दौरान ही नागाओं को दीक्षित कर उन्हें नागा बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। नागा साधु बनने के लिए ईश्वर के प्रति एक अलग किस्म की दीवानगी और जुनून का होना बेहद जरूरी होता है। नागा जीवन पूरी तरह से सुखों से वंचित होता है यहां बस ईश्वर की आराधना और उसकी प्राप्ति की अनुभूति ही परमानंद की स्थिति मानी जाती है। भौतिक सुखों से विरत प्रकृति के बीच रहकर पत्थर की गुफाओं और जंगलों में रहकर अपनी तपस्या में पूरी तरह से रमना ही नागाओं की जीवन शैली का हिस्सा होता है। हर किसी व्यक्ति के लिए नागा बनना संभव नहीं है। सनातन परंपरा को आगे बढ़ाने और हर हाल में धर्म की रक्षा करने के लिए संन्यासी शस्त्र चलाने की विद्या में भी पारंगत होते हैं। हर महाकुंभ के दौरान नागा साधुओं को दीक्षा दिए जाने की परंपरा आदि काल से चली आ रही है।


शैव सम्प्रदायों के अखाड़े में नागाओं को मौजूदगी होती है। इन अखाड़ों में जब कोई नया व्यक्ति नागा साधु बनने की इच्छा के साथ प्रवेश करता है तो उस अखाड़े के प्रबंधक पहले उस व्यक्ति के जीवन से जुड़े हर पहलू की गहराई से जांच पड़ताल कर लेते हैं, जिसमें सबसे ज्यादा जरूरी उसके चरित्र की पृष्ठिभूमि को तलाशना होता है। व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि देखने और दी गई सारी जानकारी की जांच के उचित साबित होने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है। अखाड़े में शामिल होने के तीन साल तक उस नए संन्यासी को अखाड़े के भीतर अपने गुरुओं की सेवा करनी होती है और वहां के नियमों और परंपराओं का पालन करना होता है। अपनी सेवादारी से जब उस सन्यासी से गुरु पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाते हैं और उस पर विश्वास करने लग जाते हैं । तब वह उसे महाकुंभ के दौरान नागा बनने की प्रक्रिया में शामिल करता है। इस प्रक्रिया के तहत महाकुंभ के दौरान उन्हें गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं और उनके पांच गुरु निर्धारित किए जाते हैं। नागा बनने वाले साधुओं को भस्म, भगवा वस्त्र और रुद्राक्ष की माला दी जाती है।कई परंपराओं को निभाते हुए उस संत को एक सामान्य व्यक्ति से महापुरुष की उपाधि प्राप्त हो जाती है।

ये होते हैं अलग कुंभ में दीक्षित नागाओं के नाम

नागा साधुओं को अलग अलग नाम से संबोधित किया जाता है इसके पीछे की मुख्य वजह है कि महाकुंभ भारत के चार शहरों, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और इलाहाबाद में लगता है इसलिए नागा साधु बनाए जाने की प्रक्रिया भी इन्हीं चार शहरों में होती है।


नागा साधुओं का नाम भी अलग-अलग होता है जिससे कि यह पहचान हो सके कि उन्होंने किस स्थान से दीक्षा ली है। जैसे कि प्रयागराज के महाकुंभ में दीक्षा लेने वालों को नागा, उज्जैन में दीक्षा लेने वालों को खूनी नागा, हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को बर्फानी व नासिक में दीक्षा वालों को खिचड़िया नागा के नाम से जाना जाता है।

कुंभ स्नान में ये होते हैं नागाओं के संस्कार

एक संन्यासी के महापुरुष की उपाधि हासिल कर लेने के बाद उन्हें अवधूत बनाए जाने की तैयारी शुरू होती है।अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके साधु का विधि विधान से जनेऊ संस्कार करते हैं। उसके बाद उसे आजीवन संन्यासी जीवन जीने की शपथ दिलवाई जाती है।


इस दौरान सांसारिक मोह से मुक्ति पाने के लिए उसके परिवार और स्वयं का पिंडदान करवाया जाता है। इसके बाद दंडी संस्कार होता है। इस संस्कार के बाद पूरी रात ॐ नमः शिवाय का जाप किया जाता है।रात भर चले जाप के बाद, भोर होते ही व्यक्ति को अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगवाने के बाद उससे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है।

निर्वस्‍त्र साधुओं को करना होता है 12 साल का कठोर तप

नागा वनवासी संन्यासी कुंभ के अलावा कभी भी आमतौर पर दिखाई नहीं देते। ये या तो अपने अखाड़े के भीतर ही रहते हैं या हिमालय की गुफा में रहते हैं। या फिर कुंभ समाप्ति के बाद ये यात्रा करते रहते हैं। इनके बारे में ये भी कहा जाता है कि ज्यादातर पैदल ही चलने वाले ये नागा संन्यासी अपनी यात्रा दिन की बजाए रात में करना पसंद करते हैं। कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं।


वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं। इस तप के दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं। 12 साल तक कठोर तप में उनके बाल जो कभी काटे नहीं जाते और वे कई मीटर लंबे हो जाते हैं। नागाओं के जीवन में ये सालों तक चली तपस्या तभी फलीभूत होती है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं।

निर्वस्‍त्र इन साधुओं का श्रृंगार होता है अनोखा

चिता की भस्म लपेटे और माथे पर त्रिपुंड तिलक के साथ त्रिशूल, शंख, तलवार और चिलम धारण किए ये नागा साधु धूनी रमाते हैं। यह शैवपंथ के कट्टर अनुयायी और अपने नियम के पक्के होते हैं।


इनमें से कई सिद्ध होते हैं तो कई औघड़ द्य इनके श्रृंगार की बात करें तो वो भी बेहद खास होता है जिसमें नागाओं के सत्रह श्रृंगार कलंगोट, भभूत, चंदन, पैरों में लोहे या फिर चांदी का कड़ा, अंगूठी, पंचकेश, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुंडल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमंडल, गुथी हुई जटाएं और तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप और बाहों पर रूद्राक्ष की माला आदि वस्तुएं अवश्य शामिल होती हैं। इनके श्रृंगार में तप , ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन तथा निस्ठा आदि का ओज भी परिलक्षित होता है।

अशोभनीय व्यवहार से दूर रहते हैं नागा

शिव की उपासना में सदैव लीन रहने वाले नागा साधु शिव के समान ही बेहद शांत होते हैं । लेकिन ज्यादा स्थिति बिगड़ने पर इनका शिव के समान ही क्रोध भी बड़ा प्रचंड होता है। आमतौर पर ऐसी मान्यता है कि नागा तांत्रिक होते हैं और लोगों पर जादू-टोना कर सिद्धि पाने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा वे गुस्सैल होते हैं।


लेकिन सामान्यतः ऐसा नहीं है । लेकिन राष्ट्र और धर्म पर जब जब खतरा मंडराता है ये अपने रौद्र रूप से अपने शत्रु का काम तमाम करने में भी पीछे नहीं हटते जिसका इतिहास भी गवाह है। इसके अतिरिक्त वे शांत चित्त के साथ सिर्फ परमात्मा की प्राप्ति में लगे रहते हैं।

कई आध्यात्मिक और आलौकिक शक्तियों के मालिक होते हैं नागा साधु

जंगलों और गुफाओं आदि में रहते हुए कड़ी तपस्या के चलते नागा साधुओं को कई तरह की आध्यात्मिक और आलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है, जो उन्हें आध्यात्मिक साधना और तपस्या के माध्यम से प्राप्त होती है। नागा साधुओं की शक्तियां निम्नलिखित तरह की हो सकती हैंः

ध्यान और मनोन्मनीः

नागा साधुओं की ध्यान और मनोन्मनी शक्ति विशेष रूप से विकसित होती है। वे अन्तर्दृष्टि और आंतरिक ज्ञान के साथ अपनी मनस्तिथि को नियंत्रित कर सकते हैं।


औषधिक शक्तिः

नागा साधुओं को औषधिक शक्ति का अच्छा ज्ञान होता है। वे प्राकृतिक औषधियों और जड़ी बूटियों का उपयोग करके शरीर और मन के उपचार में योग्यता रखते हैं।


तपस्या और त्याग की शक्तिः

नागा साधुओं की शक्ति तपस्या और त्याग से जुड़ी होती है। वे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर अत्यधिक संयम और त्याग कर सकते हैं।


प्राकृतिक तत्त्वों के साथ सम्बंधः

नागा साधुओं को प्राकृतिक तत्त्वों के साथ संबंध बनाने की शक्ति होती है। वे प्रकृति के साथ संवाद स्थापित करते हैं और प्राकृतिक तत्त्वों के प्रभाव से अपनी शक्ति और ऊर्जा को बढ़ा सकते हैं।

आध्यात्मिक ज्ञान और दर्शनः

नागा साधुओं को आध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन की शक्ति होती है। वे गहरे आंतरिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक अनुभव को प्राप्त कर सकते हैं और सत्य को दर्शाने के लिए अपने जीवन को समर्पित करते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि नागा साधुओं की शक्तियां उनके साधना, तपस्या, आध्यात्मिक ज्ञान, और अभ्यास पर निर्भर करती हैं। इन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए, नागा साधुओं को विशेष आध्यात्मिक साधना, समर्पण और संयम का पालन करना पड़ता है।

बिना राम नाम के नहीं खाते एक निवाला

कुंभ मेले के दौरान ये संतों को और पंडाल में आए श्रद्धालुओं को खाना खिलाते हैं। इनके भीतर खाने की चीजों में राम का नाम जोड़ने की बेहद खास परम्परा है। अखाड़े के साधु संतों के अनुसार जीवन राम के बिना अधूरा है और भोजन से जीवन का निर्वाह होता है, इसलिए वह राम के नाम के बिना पूरा कैसे रह सकता है। यही वजह कि वे प्याज को लड्डूराम के नाम से बुलाते हैं, मिर्ची को लंकाराम और नमक को रामरस के नाम के पुकारा जाता है। सब्जी को सब्जीराम, दाल को दालराम, और रोटी को रोटीराम, अदरक को अदरक राम और मसाला को मसाला राम नाम से संबोधित करते हैं। इसके अलावा पंगत की हरिहत’ कीजिए यानी खाने को चलने के लिए कहते हैं।

नागा साधुओं का अंतिम संस्कार

नागा साधुओं का वर्तमान समय में अंतिम संस्कार भू-समाधि देकर किया जाता है।


पहले उन्हें जल समाधि दी जाती थी। लेकिन नदियों के प्रदूषित होने की वजह से अब उन्हें ज़मीन में समाधि दी जाती है। नागा साधुओं को सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर भू-समाधि दिए जाने की परंपरा है।



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