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Kumbh 2025: बजरंगबली को लगता है सवा मन भोग, यहां के संत मल्ल युद्ध में होते हैं पारंगत, जानिए निर्वाणी आणि अखाड़े की परंपराओं के बारे में
Kumbh 2025: सुगंधित फूलों की वर्षा के बीच सनातनी परम्परा का गुणगान करती उनकी धर्म ध्वजाएं और हाथी घोड़ों पर तीनों वैष्णव अखाड़ों की पेशवाई का जुलूस प्रयागराज की सड़कों पर एक पावन उत्सव के समान दिखाई पड़ता है।
Kumbh 2025:प्रयागराज कुम्भ स्नान के दौरान वैष्णव सम्प्रदाय के अखाड़ों की ओर से पेशवाई निकाले जाने के दौरान यहां सनातनी परम्परा से ओतप्रोत अलौकिक नजारा देखने को मिलता है। यहां का ओज मन और चेतना को भीतर तक पवित्र और अकल्मष कर देने का साक्षी बनता है। सुगंधित फूलों की वर्षा के बीच सनातनी परम्परा का गुणगान करती उनकी धर्म ध्वजाएं और हाथी घोड़ों पर तीनों वैष्णव अखाड़ों की पेशवाई का जुलूस प्रयागराज की सड़कों पर एक पावन उत्सव के समान दिखाई पड़ता है। वैष्णव अखाड़ों की पेशवाई में आस्था और संस्कृति का अनूठा संगम देखने के लिए असंख्य श्रद्धालु हर वर्ष कुंभ स्नान के दौरान यहां एकत्रित होते हैं।
अपने जीवन को धन्य करने के लिए वैष्णव आखाड़ों की पेशवाई में हाथी, घोड़े,ऊंट और रथों पर सवार संत, महात्माओं और महामंडलेश्वरों का आशीर्वाद पाने के लिए असंख्य भक्त सड़क के दोनों ओर जमा हो जाते हैं।श्वेत वस्त्र और अलिक ललाट पर लगे ऊर्ध्वगामी तिलक वाली एवं सात्विक शुद्धाचरण से निर्माण हुई तेजस्वी मुखमुद्रा से ही वैष्णव संतो को सभी में से अलग पहचाना जा सकता है।वैष्णव साधुओं की वेशभूषा और उनके अखाड़ों का प्रतीक एवं उनका सात्विक धर्माचरण ही उन्हे संत वेषभूषित सभी में विशेष घोषित करता है। वैष्णव साधु हमेशा शुक्ल श्वेत वस्त्रों में नजर आते हैं। उनके मस्तक पर तिलक भी ऊपर की और जाता यानी सीधा होता है।
वैष्णव सम्प्रदाय और उनके अखाड़े
वैष्णव सम्प्रदाय धर्म की मान्यताओं के अनुसार ब्रह्म को ही सत्य माना गया है, जगत भी सत्य है और जगत में स्थित माया भी सत्य है। वैष्णव सम्प्रदाय में संत श्री लक्ष्मी नारायण, सीता राम और राधा कृष्ण के नाम का संकीर्तन को ही जीवन का आधार मानते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय तीन अखाड़ों में विभाजित है, पहला निर्वाणी अनिक, दूसरा है निर्मोही अनिक और तीसरा है दिगंबर अनिक का अखाड़ा। अनिक का मतलब होता है लश्कर, छावनी या समूह।
वो छावनी जहा सशक्त और सशस्त्र वैष्णव वीर बसते हैं। सारे वैष्णव राम कृष्ण के उपासक है। इनके मस्तक के अग्र भाग पर ऊर्ध्वगामी आकृति वाला केसर चंदन एवं रक्त वर्ण हल्दी से अंकीत तिलक अंकित रहता है। नियमों के मुताबिक तीनों वैष्णव अखाड़ों दिगम्बर अनी अखाड़ा, निर्मोही अणी अखाड़ा और निर्वाणी अनी अखाड़े की पेशवाई एक साथ निकाले जाने की परम्परा है। आइए जानते हैं वैष्णव सम्प्रदाय के कुल तीन अखाड़ों में शामिल
निर्वाणी आणि से जुड़े महत्व और उसके कृतित्व के बारे में..
विष्णु देवता के उपासक हैं वैष्णव सम्प्रदाय के संत
शैव सम्प्रदाय जहां शिव का उपासक हैं, वहीं वैष्णव राम कृष्ण के उपासक हैं। इनका आधार है भगवान विष्णु के न्याय पर अटूट श्रद्धा और इन्ही विष्णु के अवतार के उपासक हैं ये तीनो अखाड़े। तीनों वैष्णव अखाड़ों की पहचान उनकी अनिक यानि छावनी में लगे धर्मध्वज हैं। निर्मोही अखाड़े के धर्म ध्वज अगर शुक्ल यानी श्वेत वर्ण के हैं तो दिगंबरी अखाड़े के ध्वज पञ्च रंगी होते है। निर्वाणी अखाड़े के ध्वज का रंग लाल है। इन तीनों ही धर्म ध्वजाओं पर वैष्णव धर्म के आदि संस्थापक आचार्य श्री रामदूत हनुमान जी का चिन्ह अंकित होता है।
ये तीनों वैष्णव अखाड़े यानि की निर्मोही, निर्वाणी और दिगंबरी अपने चार गुरुओं के मत और सिद्धांत के अनुसार मान्यताओं और नियमों को निभाते हैं। इनके ये चार आदि गुरु हैं। रामानंदाचार्य, निम्बार्काचार्य, विष्णुस्वामी और मध्वाचार्य। इन्हीं गुरुओं की परंपरा से वैष्णवों जगतगुरू की पदवी लिखी जाती है। और सिर्फ यही वैष्णव में है जो कि काषाय यानी गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं। बाकी सारे वैष्णव संप्रदाय मैं दीक्षित लोग शुक्ल श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। मोटे तौर पर समझा जाए तो पूरा वैष्णव अखाड़े राम और कृष्ण की उपासना में समाहित हैं।
निर्वाणी अखाड़ा का इतिहास
निर्वाणी अखाड़ा का मुख्य केंद्र हनुमानगढ़ी अयोध्या में स्थित है। निर्वाणी आणि अखाड़े में निर्वाणी अखाड़ा, खाकी अखाड़ा, हरिव्यासी अखाड़ा, संतोषी अखाड़ा, निरावलंबी अखाड़ा, हरिव्यासी निरावलबी अखाड़ा यानी कुल 7 अखाड़े शामिल हैं। निर्वाणी आणि अखाड़े की बैठक वृंदावन और चित्रकूट में भी है। इस अखाड़े के श्रीमहंत का चुनाव 12 वर्ष पर होता है। वर्तमान में निर्वाणी आणि अखाड़े के श्रीमहंत धर्मदास हैं, जबकि निर्वाणी आणि अखाड़े के महासचिव महंत गौरी शंकर दास हैं। इसका संविधान संस्कृत भाषा में 1825 में लिखा गया था। इसका हिंदी रूपांतरण 1963 में हुआ।
लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हनुमानगढ़ी अखाड़े में चार अलग-अलग पट्टियां हैं। ये सागरिया, उज्जैनिया, हरिद्वारी और बसंतिया नाम से जानी जाती हैं। हनुमानगढ़ी मंदिर की गद्दी पर वर्तमान में महंत प्रेमदास महाराज विराजमान हैं। इससे पहले इस पद को महंत बलराम दास, महंत जयकरण दास, महंत सीताराम दास, महंत दीनबंधु दास, महंत मथुरा दास, महंत रमेश दास सुशोभित कर चुके हैं।
मुस्लिम नवाब ने करवाया था हनुमान गढ़ी भव्य मंदिर का निर्माण
18वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल यहां विराजमान बजरंगबली के अर्चक बाबा अभयरामदास के आशीर्वाद से नवाब के पुत्र को असाध्य बीमारी से मुक्ति मिली थी। तो बदले में नवाब ने हनुमान जी का भव्य मंदिर निर्मित कराया और हनुमान जी के लिए 52 बीघा का परिसर दान कर दिया। यही वजह है सिर्फ हिन्दू ही नहीं हनुमानगढ़ी मुस्लिमों की भी आस्था का केंद्र रही है। कभी रामजन्मभूमि मुक्ति के प्रति न्याय की बारी आई तो एक जुट होकर हनुमानगढ़ी हनुमानजी की विरासत के अनुरूप सदैव पक्ष ने खड़ी दिखाई दी।
इस समारोह में मिलती है निर्वाणी आणि अखाड़े के संतो को दीक्षा
निर्वाणी आणि अखाड़े में शामिल होने वाले संतो के दीक्षा संस्कार के पीछे बड़े सख्त नियम हैं। हनुमानगढ़ी में हर बारह वर्ष के पूरे होने पर नागापना समारोह का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन में वैष्णव धर्म के प्रचार के संकल्प के साथ नए सदस्यों को साधु की दीक्षा दी जाती है। इन सभी नए साधुओं को दीक्षा प्राप्त करने के बाद सोलह दिनों तक यात्री के रूप में अखाड़े में सभी की सेवा करनी होती है। सोलह दिन बीत जाने के बाद उन्हें मुरेठिया की तरह सेवा करनी होती है। तत्पश्चात नए सदस्यों के नाम को मंदिर के रजिस्टर में दर्ज किया जाता है।
जिसके बाद वे इस मंदिर के स्थाई तौर पर सदस्य घोषित कर दिए जाते हैं। रजिस्टर में नाम शामिल होने के इन्हें हुड़दंगा उपाधि से विभूषित किया जाता है। जिस दौरान ये संत स्वयं अखाड़ों के नियम और उसकी शिक्षा को ग्रहण करने के साथ वहां निवास कर रहे दूसरे संतों को भोजन और प्रसाद वितरित करने का कार्य प्रमुखता से करते साथ ही यदा कदा अखाड़ों में आने वाले अतिथियों की देखभाल और उनकी सेवा के कार्य में खुद को निहित रखने जैसी कई सेवाएं देते हैं। वहीं लगातार 12 वर्ष तक अखाड़े में सेवा करने पर कुंभ के दौरान वरिष्ठ संतों को नागा की उपाधि दी जाती है।
ये होती है हनुमानगढ़ी की लोकतांत्रिक परंपरा
हनुमानगढ़ी की लोकतांत्रिक परंपरा की बात करें तो इस अखाड़े में 4 पट्टी में प्रत्येक में तीन तरह के संतों की जमात होती हैं। इनके नाम खालसा, झुन्डी और डुंडा है। प्रत्येक जमात में दो थोक होता है। इसे परिवार कहा जाता है। प्रत्येक परिवार में आसन होते हैं। इन्हें संतों का निवास स्थान कहा जाता है। इस अखाड़े से संबंधित सारी समस्याओं और विवादों का निपटारा हनुमानगढ़ी की लोकतांत्रिक परंपरा के अंतर्गत ही किया जाता हैं। हनुमानगढ़ी के संत भिक्षा दान नहीं लेते ना ही उन्हें अखाड़े से बाहर जाकर कहीं मांगने की जरूरत होती है। अखाड़े की व्यवस्था के अनुसार उनके लिए भोजन, प्रसाद, फलाहार, वस्त्र आदि की व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट द्वारा ही किया जाता है।
हनुमान जी को सवा मन हलवे का लगता है प्रतिदिन भोग
हनुमानगढ़ी की सेवा करने वाले कई तरह से अपनी आजीविका चला रहें हैं। यहां फूल, प्रसाद, खेती आदि से बड़ी संख्या में जुड़े लोग जीविका प्राप्त कर रहे हैं। इस मंदिर को लेकर यह भी कहा जाता है कि भगवान श्रीराम के साकेत गमन के बाद उन्हीं के आदेश पर आज भी श्रीहनुमान जी इस मंदिर के किले में स्थाई निवास करते हैं और अयोध्या की रक्षा करते है। हनुमान गढ़ी में मंदिर के गर्भ गृह में विराजमान बजरंगबली श्री हनुमानजी को प्रतिदिन सवा मन देसी घी की पूरी और सवा मन हलवे का भोग लगाया जाता है। इसके साथ ही प्रतिदिन दूध और घी से बने विभिन्न व्यंजनों और फलों का भी भोग लगाया जाता है। इस प्रसाद को मंदिर के पुजारी सभी के बीच वितरित करते हैं। मंदिर में प्रत्येक समय एक मुख्य पुजारी के अलावा हर पट्टी से एक पुजारी हनुमानजी की सेवा में होते हैं। दोपहर के समय भोग लगने के कारण कुछ समय तक हनुमानगढ़ी का द्वार बंद होता है. उसके बाद शाम 4 बजे फिर से मंदिर दर्शन हेतु खोल दिया जाता है।
हनुमान गढ़ी में हनुमानजी का मंदिर दर्शन के लिए प्रातः 4 बजे से लेकर रात्रि 10 बजे तक खुला रहता है।
इस तरह बनते हैं निर्वाणी अनी अखाड़ा के महामंडलेश्वर
वैष्णव संप्रदाय के भगवान विष्णु को मानते हैं। इसमें महामंडलेश्वर का पद सबसे ऊपर होता है। महामंडलेश्वर ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है, जो साधु चरित्र और शास्त्रीय पांडित्य दोनों के लिए देश-दुनिया में जाना जाता हो। पहले ऐसे लोगों को परमहंस कहा जाता था। 18 वीं शताब्दी में उन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। महामंडलेश्वर की पदवी धारण करने वाले जितने भी लोग होते हैं, उनमें जो सबसे ज्यादा ज्ञानी होता है, उसे आचार्य महामंडलेश्वर कहते हैं। हालांकि कुछ अखाड़ों में महामंडलेश्वर नहीं होते हैं। उनमें आचार्य का पद ही प्रमुख होता है। वहीं अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद का अध्यक्ष ही सभी अखाड़ों और उनके प्रमुखों के ऊपर होता है।
इन संतों के लिए यह नियम बना कि वे कसरत करके शरीर को सुदृढ़ बनाएं और शास्त्र के साथ शस्त्र चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसके लिए ऐसे मठ स्थापित किए गए, जहां कसरत के साथ ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ऐसे ही मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। इस अखाड़े में शामिल साधुओं को नागा की उपाधि दी जाती है। अखाड़े में मल्लयुद्ध विद्या और तलवारबाजी सहित अन्य कलाओं का ज्ञान नागा साधुओं को एक सैनिक की भांति दिया जाता है। अखाड़ों के नियम-कानून बहुत सख्त होते हैं। प्रातः काल उठने से लेकर स्नान, पूजा पाठ करने और रात्रि विश्राम तक के लिए समय नियत होता है। ब्रह्मचर्य का पालन नागा साधु की पहली शर्त है। गृहस्थ जीवन त्यागकर उसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। नागा का सीधा मतलब है अपनी बात पर अडिग रहना। प्रत्येक नागा साधु को अयोध्या में हनुमान जी के सामने प्रतीक चिन्ह को साक्षी मानकर शपथ लेनी पड़ती है। इसके बाद ही उसे नागा साधु की उपाधि मिलती है।
ऐसे मिलती है नागा उपाधि
निर्वाणी अनी अखाड़े के नियम के अनुसार प्रत्येक पांच साल के उपरांत नागापना महोत्सव का आयोजन संपन्न किया जाता है। जहां बच्चे से लेकर युवा संन्यासियों को नागा परंपरा में लाने के लिए दीक्षा दी जाती है। नागा साधु बनने से पहले उस सन्यासी को ये अधिकार होता है कि वो अपने गुरु का चुनाव अपनी पसंद के मुताबिक करे। गुरु का चुनाव करने के बाद ही गुरु दीक्षा मिलती है। अखाड़ों में नागा साधुओं की पूरी एक मंडली होती है। अखाड़ों के संचालन के लिए सेना की ही तरह प्रत्येक साधु के काम बांटे जाते हैं।
( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)