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अब प्रियंका की असली परीक्षा, विधानसभा चुनाव में नहीं चला करिश्मा

raghvendra
Published on: 25 Jan 2019 7:45 AM GMT
अब प्रियंका की असली परीक्षा, विधानसभा चुनाव में नहीं चला करिश्मा
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राज खन्ना

सुल्तानपुर: प्रियंका गांधी का अमेठी से परिचय काफी पुराना है। अपने बचपन से। पिता स्व. राजीव गांधी के साथ उनका यहां आना शुरू हुआ। कभी साथ घूमीं। कभी अकेले। वहां के तमाम लोगों से अमेठी में या फिर दिल्ली में भी मिलती-जुलती रहीं। अपनी खुशमिजाजी और बेहतर संवाद शैली से वह अमेठी से भावनात्मक स्तर पर जुडऩे में सफल रहीं। परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में कहीं ज्यादा। राजीव गांधी की असमय मौत के बाद अमेठी और शिद्दत से प्रियंका से जुड़ी। इसीलिए प्रियंका को राजनीति में लाने की शुरुआती आवाजें अमेठी से उठीं। वहां से गढ़ा नारा, अमेठी का डंका, बेटी प्रियंका कांग्रेस समर्थकों के जरिये दूर-दूर तक पहुंचा।

ऐसे बजा प्रियंका का डंका

महामंत्री के रूप में ताजपोशी के साथ वह बाकी देश के लिए अब राजनीति में सक्रिय हो रही हैं मगर अमेठी-रायबरेली में यह भूमिका बीस साल से निभा रही हैं। शुरुआत 1999 के सोनिया गांधी के पहले लोकसभा चुनाव से हुई थी। उस चुनाव में प्रियंका अमेठी के जिस रास्ते और गांव से गुजरती थीं, लोग उमड़ पड़ते थे। जगह-जगह आरती उतारी जाती। फूल बरसते। बड़े-बूढ़े आशीष देते तो युवा-युवतियां प्रियंका दीदी-बहनी के आगे-पीछे दौड़ते। प्रियंका भी घर की बेटी की तरह घुलती-मिलतीं।

अखबारों की सुर्खियां बनतीं। वह आईं,मुस्कुराई और छा गईं। इस चुनाव में सोनिया गांधी के मुकाबले भाजपा उम्मीदवार डॉ. संजय सिंह की जमानत जब्त हुई थी। वे रायबरेली स्व.अरुण नेहरू से अपने पिता स्व. राजीव गांधी का हिसाब चुकता करने पहुंची थीं। वहां हुंकार लगाई थी,गद्दार को घुसने कैसे दिया। मतदाताओं ने अरुण नेहरू को तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया। इस चुनाव में सोनिया और सतीश शर्मा संसद पहुंचे थे,लेकिन डंका प्रियंका का बजा।

उलाहनों पर यह दी थी सफाई

2004 मे राहुल गांधी ने अमेठी से अपनी संसदीय पारी की शुरुआत की। सोनिया गांधी रायबरेली से जुड़ीं। प्रियंका का जादू दोनों क्षेत्रों में एक बार फिर नजर आया मगर इस चुनाव से सिर्फ चुनाव में आने की प्रियंका से शिकायतें शुरू हो गई। प्रियंका लाओ के नारे भी लगने शुरू हुए। प्रियंका 2009 में फिर पुरानी भूमिका में थीं। तब तक प्रियंका से सांसद राहुल की शिकायतें शुरू हो चुकी थीं। प्रियंका के पास जबाब में मुस्कुराहट थी। सिर्फ चुनाव में आने के उलाहने पर उनकी सफाई थी कि आऊं तो लेकिन तब आप राहुल ब्रिगेड-प्रियंका ब्रिग्रेड बनाने लगोगे।

प्रियंका को सिर-माथे लेने वाले अमेठी-रायबरेली के लोगों ने अपनी तर्ज पर जबाब देना शुरू किया। आंखें फेरनी शुरू कीं। लोकसभा चुनाव से उलट विधानसभा चुनाव में अमेठी-रायबरेली के अलग राह पकडऩे से परेशान प्रियंका ने 2012 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली,अमेठी और सुल्तानपुर की पन्द्रह सीटों पर पन्द्रह दिन समय दिया। उनकी इतनी सक्रियता के बावजूद कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ दो सीटें आईं। 2014 के लोकसभा चुनाव में अमेठी में जीत के लिए राहुल-प्रियंका को कड़ी मेहनत करनी पड़ी। 2017 के विधानसभा चुनाव में नतीजे और खराब रहे।

चार चुनावों में संभाली कमान

पिछले बीस वर्षों के दौरान उन्होंने अमेठी-रायबरेली के चार संसदीय चुनावों की कामयाबी से कमान संभाली है। हालांकि इसी के साथ वहां उनके उतरते जादू और घटते करिश्मे की भी चर्चा चलती रही है पर उनकी राजनीतिक छवि गढऩे में इन दो इलाकों के चुनावों ने खास भूमिका अदा की है। वह भीड़ खींचती हैं। मीडिया उनके पीछे भागता है। इन दोनों के बीच प्रियंका की सूती साड़ी में भारतीय वेश-भूषा,बोलने का सौम्य अंदाज, लोगों से जुडऩे का बेहतरीन कौशल, आम आदमी से अपनत्व का संवाद तो विपक्षी पर बेलाग प्रहार। लोग उनकी सूरत और शैली में इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं। तमाम लोगों को लगता है कि वह ही पार्टी को दुर्दशा से उबार सकती हैं।

कामयाबी में संवाद शैली की बड़ी भूमिका

अमेठी-रायबरेली के चुनावों तक सीमित रहने के बाद भी वह वहां के जरिये देश के पैमाने पर अपनी छवि विकसित करने में सफल रही हैं। इसमें उनके राजनीतिक परिवार से जुड़े होने का योगदान है,लेकिन उनकी राजनीतिक काबिलियत और संवाद शैली की भी बड़ी भूमिका है। 2019 में वह अमेठी-रायबरेली से इतर भी नजर आएंगी। प्रदेश में पस्त हाल पड़ी पार्टी के लिए कम वक्त में वह कोई बड़ा चमत्कार कर सकेंगी, इसकी उम्मीद उनके साथ ज्यादती हो सकती है पर बड़े नामों के सुख हैं तो उनके लिए चुनौती भी बड़ी होती हैं। वह समर्थकों को लम्बा इंतजार कराके औपचारिक रूप से राजनीति में सक्रिय हुई हैं। उन्ही समर्थकों को उनसे अनुकूल नतीजों की ख्वाहिश है। पार्टी उन्हें ट्रंप का पत्ता बता प्रचारित करती रही है। पार्टी ने उन्हें ऐसे दौर में आगे किया है,जब उत्तर प्रदेश में हालात खिलाफ हैं। 2019 के लिहाज से उनके पास वक्त बहुत कम है पर उनकी बन्द मु_ी के करिश्मे की अर्से से शोहरत है। इसके खुलने का वक्त पास है। तभी तय होगा कि यह सही वक्त है या फैसला लेने में बहुत देर हुई।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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