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फिराक गोरखपुरी की जयंती: फिराक गोरखपुरी के नाम से जाना जाता है यह शहर

गोरखपुर के जन्में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुर अपने धुन के पक्के थे...

Purnima Srivastava
Report Purnima SrivastavaPublished By Ragini Sinha
Published on: 28 Aug 2021 9:49 AM GMT (Updated on: 28 Aug 2021 9:51 AM GMT)
Firaq gorakhpuri jyanti
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ऐसी थी फिराक गोरखपुरी की शख्सियत (social media)

गोरखपुर। गोरखपुर के जन्में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुर अपने धुन के पक्के थे। वे किसी की भी नहीं सुनते। जब देश आजादी के 75वें साल के जश्न को मना रहा है तो उन्हें करीब से जानने वाले आजादी को लेकर फिराक की दीवानगी को याद करते हैं। चौरीचौरी कांड के बाद महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा की तो फिराक ने विरोध में इस्तीफा दे दिया। गांधी को भेजे संदेश में कहा कि '..बंदगी से कभी नहीं मिलती, इस तरह जिंदगी नहीं मिलती। लेने से ताजो-तख्त मिलता है, मांगे से भीख भी नहीं मिलती।' इन पंक्तियों के साथ उन्होंने लिखा- मैं कांग्रेस से इस्तीफा देता हूं।

जानेमाने शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी की शनिवार को 125वीं जयंती है। 28 अगस्त 1896 को जन्मे फिराक गोरखपुरी का जीवन विद्रोही तेवरों वाला रहा। फिराक गोरखपुरी के शिष्य डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव 'जुगानी भाई' कहते हैं, 'फिराक गोरखपुरी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए डिप्टी कलेक्टर की नौकरी छोड़ दी थी। आईसीएस में चयन की लिखित सूचना आई लेकिन राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने के कारण उन्हें लंदन नहीं भेजा गया। फिराक कहते थे कि पैसे का बंटवारा हो सकता है, जमीन का बंटवारा भी हो सकता है लेकिन भाषा और संस्कृति को कैसे बांटेंगे।'

गांधी की ही प्रेरणा से डिप्टी कलेक्टरी छोड़ दी

गांधी के भाषण से प्रेरित होकर अंग्रेजी हुकूमत से अधिकारी का पद त्यागने वाले फिराक गोरखपुरी ने प्रिंस ऑफ वेल्स के विरोध में 12 दिसम्बर 1920 को प्रदर्शन किया था। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। नैनी सेंट्रल जेल में उन्होंने डेढ़ वर्ष तक सजा काटी। वहां से बाहर निकलने के बाद जवाहर लाल नेहरू उनसे मिले और आल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया। गांधी के असहयोग आंदोलन वापस लेने के साथ ही कांग्रेस के नरम दल और गरम दल के बीच टकराव भी उनके इस्तीफे का कारण था। वर्ष 1930 से वे अध्यापन के कार्य में लग गए। उसके बाद आजीवन शैक्षणिक व साहित्यिक गतिविधियों में संलिप्त रहे।

'मौत का भी इलाज हो शायद, जिंदगी का कोई इलाज नहीं'

गोला क्षेत्र के बनवारपार गांव में जन्में फिराक गोरखपुरी ने आगरा विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय से एमए टॉप किया। आजीवन अंग्रेजी के शिक्षक रहे। लेकिन उनकी उर्दू में लिखी शायरी ने उन्हें पूरी दुनिया में मुकाम दिलाया। उनकी शायरी लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है। मौत का भी इलाज हो शायद, जिंदगी का कोई इलाज नहीं। ये दुनिया छूटती है, कोई हसरत न रह जाए। बता ए गमे हस्ती, तेरा कितना निकलता है। जैसी उनकी कालजयी शायरी आज भी लोगों के जेहन में जिंदा हैं। फिराक को गहराई से समझने के लिए फारसी और उर्दू के अलावा अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य की गंभीर जानकारी भी रखनी जरूरी है। खुले मंच से उनकी शायरी लोगों में जोश पैदा कर देती है तो एकांत में गंभीरता से पढ़ने वाले के भीतर भी हलचल पैदा हो जाती है। हिन्दी में उनकी कविता 'कोमल पदगामिनी की आहट तो सुनो, गाते कदमों की गुनगुनाहट तो सुनो। मद में डूबा हुआ है जिसमें राणा, रस के बूंदों की झमझमाहट तो सुनो' हर युग में प्रासंगिक रहेगी। उनका दोहा- 'निर्बल-निर्धन के लिए धन-बल का क्या काम। निर्धन के बल राम हैं, निर्बल के बलराम। फिराक गांव से उपजे, पले, बढ़े गंवई कवि हैं। कभी-कभी समूचा भोजपुरी लोकगीत ही उनकी शायरी में तर्जुमा करके बैठ जाता है।

Ragini Sinha

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