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Up Election 2022: क्या मऊ में टूटेगा मुख्तार का तिलिस्म, मायावती ने चला राजभर कार्ड, 2012 में भी हुआ था ऐसा?
Up Election 2022: BSP सुप्रीमो मायावती ने माफिया डॉन मुख्तार अंसारी का टिकट काट दिया है, उनकी जगह प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर को प्रत्याशी घोषित किया...
Up Election 2022: बीएसपी सुप्रीमो मायावती (Mayawati) ने यूपी के सबसे बड़े माफिया डॉन मुख्तार अंसारी (Mukhtar Ansari) का टिकट काट दिया है। उनकी जगह बीएसपी प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर को प्रत्याशी घोषित किया है। लेकिन मुख्तार के खिलाफ भीम राजभर की राह मऊ में इतनी आसान नहीं होने वाली है। क्योंकि वहां मुख्तार का सिक्का चलता है। मऊ सदर विधानसभा सीट पर मुस्लिम मतदाता प्रत्याशी को जिताने की पूरी हैसियत भी रखते हैं। यही वजह है कि मुख्तार चाहे निर्दल लड़े हों या फिर किसी बड़े-छोटे दल से वह आज तक चुनाव हारे नहीं हैं।
मायावती का राजभर कार्ड
बता दें मायावती ने 2012 के चुनाव में भीम राजभर को मुख्तार अंसारी के खिलाफ मैदान में उतार चुकी हैं। भीम राजभर मुख्तार को हरा नहीं पाए थे। हालांकि उन्होंने कड़ी टक्कर जरुर दी थी। वह 5904 वोटों से चुनाव हार गए थे। मुख्तार अंसारी को इस चुनाव में 70210 वोट मिले थे जबकि भीम राजभर को 64306 मत प्राप्त हुए थे। अब एक बार फिर मायावती ने मऊ में मुख्तार के सामने राजभर कार्ड खेला है। देखना होगा कि यह कितना कारगर साबित होता है।
अंसारी परिवार ने मायावती से तोड़ा था नाता
2012 के यूपी चुनाव की तैयारियां जोरों पर थी उस वक्त मुख्तार और उनके बड़े भाई अफजाल ने बसपा से बगावत कर अपनी खुद की पार्टी कौमी एकता दल का गठन किया था। यह मायावती के लिए जोर का झटका था क्योंकि यहां अंसारी बंधुओं का दबदबा चलता है । मायावती की सीट पक्की मानी जाती थी। लेकिन मुख्तार और उनके भाई ने उनका साथ छोड़कर अलग दल बनाकर चुनावी रण में उतरे और मऊ समेत दो सीटों पर दोनों भाईयों ने विजय हासिल की।
मऊ में मुख्तार को मात देना आसान नहीं
बता दें कि 2012 विधानसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले 20 कैंडिडेट में 8 मुस्लिम उम्मीदवार थे। इसके बाद भी बसपा मऊ सीट पर मुख्तार अंसारी के जीत के सिलसिले को रोक नहीं सकी थी। वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी ने करीब 96 हजार वोट हासिल किए थे । दूसरे नंबर बीजेपी गठबंधन से चुनाव लड़ रहे ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से महेंद्र राजभर ने 88 हजार और सपा से अल्ताफ अंसारी ने 72 हजार वोट हासिल किए थे। ऐसे में देखना है कि मायावती का इस बार भीम राजभर का दांव कितना सफल होता है।
मऊ सदर सीट पर मतदाताओं की संख्या
- मुस्लिम वोटर- 1,15,340
- अनुसूचित जाति वोटर- 1,20,735
- यादव वोट- 45,780
- चैहान वोट- 40,335
- भूमिहार- 5,370
- पंडित- 18,740
- राजभर- 45,380
- मल्लाह- 3,760
- राजपूत- 48,380
(नोट- ये आंकड़े पुराने हैं, जनगणना के नए आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं)
आंकड़ों को देखकर मायावती ने लिया फैसला
इन आंकड़ों को देखकर आप भी समझ गए होंगे कि कैसे मायावती ने एक तरफ अपनी साफ सुथरी छवि जनता के बीच पेश करना चाहती हैं । दूसरी राजभर कार्ड खेल कर वह मुख्तार को उनके घर में मात देने का ठोस प्लान भी तैयार किया है। दरअसल, मऊ सदर विधानसभा सीट पर मतदाताओं की संख्या पर गौर करें तो यहां राजभर के लगभग 46 हजार वोट हैं। अनुसूचित जाति के मतदाओं की संख्या लगभग एक लाख 21 हजार है, जो बीएसपी के ज्यादातर वोट बैंक माने जाते हैं। अब अगर राजभर और अनुसूचित जातियों के मत को मिला दे तो वह उनकी संख्या सबसे ज्यादा हो जाती है । मायावती इसी समीकरण के सहारे मऊ में भीम राजभर को फिर से मैदान में उतारा है।
भीम राजभर को जानिए
मायावती ने जिन भीम राजभर को मुख्तार के खिलाफ मैदान में वह भी मऊ के रहने वाले हैं। भीम राजभर का जन्म 3 सितंबर, 1968 में को मऊ जनपद के कोपगंज ब्लॉक के मोहम्मदपुर बाबूपुर गांव में हुआ था। भीम राजभर ने अपनी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा महाराष्ट्र से और सेकेंड्री शिक्षा नागपुर से पाई है। भीम राजभर की एक बहन है और इनके पिता रामबली राजभर कोल्ड फील्ड में सिक्योरिटी इंचार्ज थे। भीम राजभर ने 1985 में ग्रेजुएशन किया और 1987 में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। एलएलबी पास भीम ने एक अधिवक्ता होने के साथ बसपा से ही अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1985 में की थी। वे बसपा के मऊ जिलाध्यक्ष और आजमगढ़ के कोर्डिनेटर बने और मायावती ने मुनकाद अली को हटाकर प्रदेश अध्यक्ष की कमान उन्हें सौंपी है। अब मऊ से एक बार उन्हें मुख्तार अंसारी के खिलाफ प्रत्याशी बनाया है।
मुख्तार अंसारी का सियासी सफर
छात्र राजनीति से शुरुआत करने वाले मुख्तार अंसारी ने अपना सियासी सफर बसपा से ही शुरू किया था। वो पिछले पांच विधानसभा चुनाव में जीतकर विधायक बनते आ रहे हैं। मुख्तार 1996 में पहली बार विधानसभा चुनाव में बसपा के उम्मीदवार के तौर पर उतरे और जीत हासिल की। इसके बाद उन्होंने पलटकर नहीं देखा। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर 2002 और 2007 में चुनाव जीता। इसके बाद 2012 में उन्होंने कौमी एकता दल का गठन करके चुनाव मैदान में उतरे और जीत हासिल की। 2017 विधानसभा चुनाव में बीएसपी से उतरे और मोदी लहर में भी जीतने में कामयाब हुए।
मुख्तार के भाई गाजीपुर से हैं बीएसपी सांसद
मुख्तार अंसारी के बड़े भाई अफजाल अंसारी ने 1985 से 1996 तक लगातार जीत हासिल की। वो विधायक से लेकर सांसद तक बने। अफजाल अंसारी ने वामपंथी पार्टी से लेकर सपा तक से जीत हासिल की। लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में वो बीजेपी उम्मीदवार कृष्णानंद राय से चुनाव हार गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में वह एक बार फिर बसपा के टिकट पर गाजीपुर लोकसभा से चुनाव लड़े और मनोज सिन्हा को हराकर संसद पहुंचे।
पूर्वांचल में मुख्तार का चलता है सिक्का
मुख्तार का सियासी वर्चस्व सिर्फ मऊ विधानसभा तक ही नहीं है। बल्कि मऊ जिले के साथ-साथ गाजीपुर और बलिया की कुछ सीटों पर भी वो खासा प्रभाव रखते हैं। मुख्तार अंसारी 2005 से जेल में बंद हैं। वो जेल में रहते हुए भी पिछले तीन विधानसभा चुनाव जीते हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी वाराणसी से उतरे और बीजेपी के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी के पसीने छुड़ा दिए। मुरली मनोहर जोशी ने बहुत कम वोटों से जीत हासिल की थी। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी के अलावा उनके बेटे और भाई भी चुनाव में उतरे लेकिन उनके अलावा कोई दूसरा नहीं जीत सका। मुख्तार के बड़े बेटे अब्बास अंसारी पिता की सियासी विरासत और बिजनेस दोनों संभाल रहे हैं।
मुख्तार के बड़े भाई सपा में शामिल
मुख्तार अंसारी के बड़े भाई सिबगतुल्लाह अंसारी ने पिछले 28 अगस्त को समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी ज्वाइन कराया था। सिबगतुल्लाह अंसारी 2007 में सपा और 2012 में कौमी एकता दल से गाजीपुर के मोहम्मदाबाद विधानसभा से विधायक चुने गए थे। इसके बाद 2017 में बसपा से मैदान में उतरे। लेकिन पराजय का सामना करना पड़ा। मुख्तार अंसारी काफी समय से बांदा जेल में बंद हैं। ऐसे में अंसारी परिवार से पूर्वी यूपी की राजनीति में रुतबे को बरकरार रखने का जिम्मा उनके भाई सिबकतुल्लाह के सिर है।
मुख्तार की हनक पर योगी का बुलडोजर
यूपी की राजनीति और जायराम की दुनिया में मुख्तार अंसारी एक ऐसा नाम था, जो जहां खड़ा हो जाता था लाइन वहीं से शुरू होती थी। लेकिन बीजेपी की योगी सरकार ने उनके नाक में दम कर रखा है। मुख्तार के धंधे, असलहे, दबंगाई से बनाए गए होटल, घर, मॉल पर यूपी सरकार का जमकर बुलडोजर चला। करोड़ों की उनकी प्रॉपर्टी को सीज कर सरकार ने उन्हें अब तक की सबसे बड़ी चोट पहुंचाई है। बांदा जेल में बंद मुख्तार अंसारी चुपचाप सब देख रहे हैं। आखिर कर भी क्या सकते हैं सरकार के आगे किसकी आज तक चली है।
मुख्तार की पार्टी का सपा में हुआ था विलय
यह बात उस समय की है जब 2017 में अखिलेश यादव दोबार सत्ता पर काबिज होने के लिए फुल फार्म में आ चुके थे। चाचा-भतीजे की लड़ाई भी ठन चुकी थी। अखिलेश जहां साफ-सुथरी छवि लेकर जनता के बीच जाना चाहते थे वहीं उनके चाचा शिवपाल यादव अपने करीबियों को पार्टी से जोड़कर सपा की दोबारा सत्ता की वापसी की कोशिशों में लगे थे। शिवपाल यादव ने मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय कराया था। यह बात अखिलेश यादव को नामंजूर थी लिहाजा उन्होंने भरे मंच से इस बात का ऐलान किया कि वह उन्हें पार्टी में शामिल नहीं करेंगे। इसको लेकर अखिलेश और शिवपाल आमने-सामने भी आए। लेकिन जीत अखिलेश की हुई। जेल में बंद मुख्तार अंसारी के भाई अफजल अंसारी ने इसे धोखा बताया। वह सपा से त्याग पत्र बीएसपी में शामिल हो गए थे।
कांग्रेसी था मुख्तार अंसारी का परिवार
गाजीपुर में जन्मे मुख्तार अंसारी का परिवार पुराना कांग्रेसी रहा है। बाहुबली मुख्तार अंसारी के दादा डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1926-27 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। वे गांधी जी के बेहद करीबी माने जाते थे। मुख्तार के दादा डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के नाम पर दिल्ली में रोड भी है। खानदान की इसी विरासत को मुख्तार के पिता सुब्हानउल्लाह अंसारी ने आगे बढ़ाया। अपनी साफ-सुथरी छवि की वजह से सुब्हानउल्लाह अंसारी 1971 के नगर पालिका चुनाव में निर्विरोध चुने गए थे।
मुख्तार का आपराधिक इतिहास
मुख्तार अंसारी का नाम साल 1988 में पहली बार एक हत्या के मामले में सामने आया । इसके बाद धीरे-धीरे मुख्तार का कद जरायम की दुनिया में बढ़ने लगा। इस बीच 1995 में मुख्तार अंसारी ने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। 1996 में मुख्तार अंसारी पहली बार विधानसभा के लिए चुने गए। इस बीच साल 2002 में मुख्तार और बृजेश पूर्वांचल के सबसे बड़े गैंग के तौर पर सामने आये। मुख्तार अंसारी पर बृजेश गैंग ने हमला कर दिया। इसके बाद साल 2005 में बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय की हत्या कर दी गई। आरोप लगा कि मुख्तार अंसारी ने कुख्यात बदमाश मुन्ना बजरंगी और उसके गुर्गों के जरिए विधायक कृष्णानंद राय की हत्या कराई। कृष्णानंद राय बृजेश सिंह का समर्थक माने जाते थे। जिस समय कृष्णानंद राय की हत्या हुई मुख्तार अंसारी जेल में बंद थे। लेकिन उन पर कृष्णानंद राय की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगा।
40 से ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज
मुख्तार अंसारी पर 40 से ज्यादा मामले दर्ज हैं। बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय हत्याकांड के साथ, बनारस के विहिप नेता नंद किशोर रूंगटा के अपहरण और हत्या के मामले में भी मुख्तार का नाम सामने आया। इसके अलावा 2005 में हुए मऊ दंगे के दाग भी मुख्तार के दामन पर हैं। इसके अलावा बहुचर्चित एलएमजी कांड में भी मुख्तार का नाम सामने आया था। हालांकि बाद में एलएमजी कांड की जांच के दौरान पुलिस ने मुख्तार अंसारी का नाम केस से हटा दिया था।