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Prayagraj News: संगम तट पर क्यों है झंडों का जंजाल, अलग अलग रंग के झंडों का क्या है रहस्य

Prayagraj News: प्रतीक चिन्ह या कहें की निशान इसलिए बनाए जाते जाते है की जजमान इन्हें देखकर अपने तीर्थ पुरोहितों तक पहुंच जाएं। अगली पीढ़ी (Next Generation) अपने तीर्थ पुरोहित के पास पूजा पाठ के लिए आते हैं।

Syed Raza
Report Syed RazaPublished By Shashi kant gautam
Published on: 23 Nov 2021 10:58 AM GMT
Prayagraj News: Why is there a network of flags on the Sangam coast, what is the secret of different colored flags
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प्रयागराज: धार्मिक नगरी प्रयागराज के संगम क्षेत्र में झंडों का क्या है रहस्य

Prayagraj News: धार्मिक नगरी प्रयागराज (Religious City Prayagraj) एक ऐसा शहर जिसकी हर क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है। ऐसे में संगम तट पर पहुंचते ही अलग अलग तरह के झंडों का जंजाल देखने को मिलते हैं। अलग-अलग रंग के झंडे का रहस्य आखिर क्या है यह भी लोगों के जेहन में कौतूहल का विषय बना रहता है। आज आपको हम बताएंगे कि आखिर संगम क्षेत्र (Sangam Kshetra) में लगाए गए अलग-अलग रंग के झंडे (Flag) और अलग-अलग प्रतीक चिन्ह का क्या रहस्य है। ये झंडे संगम तट पर तीर्थ पुरोहितों (Tirth Purohit) की असल पहचान के लिए लगाए गए हैं।

प्रयाग के पंडों को तीर्थ पुरोहितों के नाम से जाना जाता है सारे धार्मिक कार्य यहीं किये जाते हैं, भारी संख्या में समूह होने के कारण इन्हें बाद में प्रयागवाल कहा जाने लगा तरह तरह के निशा (प्रतीक चिन्ह ) (Logo) वाले अनोखे झंडे इनकी पहचान होते हैं।

अपने तीर्थ पुरोहितों तक पहुंचने के लिए प्रतीक चिन्ह लगाये जाते हैं

प्रतीक चिन्ह या कहें की निशान इसलिए बनाए जाते जाते है की जजमान इन्हें देखकर अपने तीर्थ पुरोहितों तक पहुंच जाएं। संगम किनारे बैठे यह सभी तीर्थ पुरोहित अपने प्रतीक चिन्ह से ही पहचाने जाते हैं जैसे हाथी, घोड़ा, गाय बछड़ा वाले, नीम का पेड़ वाले, ढोलक वाले पंडा यह सभी तीर्थ पुरोहित कई सौ साल से संगम की रेती पर बैठकर श्रद्धालुओं के कर्म काण्ड और पूजा पाठ करते हैं।


विशेषता यह है कि पूरे देश से श्रद्धालु संगम नगरी आते हैं और धार्मिक पूजा (Religious Worship) तीर्थ पुरोहितों से ही कराते हैं। लोगों का कहना है कि कई सालों से ये परंपरा चली आ रही है। शिक्षा के आभाव के चलते ये झंडों को पहचान के लिए लाया गया था। देश के कोने कोने से आए श्रद्धालु अगर भाषा नहीं समझ पाते तो झंडे के निशान से अपने तीर्थ पुरोहितों की पहचान करते हैं।

इन झंडों का रहस्य 200 साल से भी अधिक पुराना

संगम की रेती पर हर साल लगने वाले माघ मेले में तो लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं लेकिन पूरे विश्व में संगम की अलग पहचान होने के चलते हर दिन संगम क्षेत्र में श्रद्धालुओं का हुजूम देखने को मिलता है। जैसे जैसे संगम तट के करीब आप आएंगे वैसे वैसे आपको अलग-अलग रंग के और अलग-अलग निशान के झंडे देखने को मिलेंगे। इन झंडों का रहस्य 200 साल से भी अधिक पुराना बताया जाता है।


दशकों साल पहले जब लोगों में शिक्षा का अभाव था साथ ही साथ भाषा का ज्ञान नहीं था ऐसे में तीर्थ पुरोहितों को अपनी पहचान बताने के लिए कि कोई भी श्रद्धालु भटक ना जाए उसके लिए संगम तट पर रहने वाले तीर्थ पुरोहित किसी न किसी प्रतीक चिन्ह के नाम से झंडा लगा देते थे। ताकि जो भी श्रद्धालु देश के कोने-कोने से आते हैं वह अपने तीर्थ पुरोहित के पास झंडे के निशान या फिर प्रतीक चिन्ह को देख कर के पहुंच जाएं। सालों से चली आ रही यह परंपरा आज भी संगम क्षेत्र में देखने को मिलती है।


तीर्थ पुरोहितों के पास बाकायदा रिकॉर्ड बक्सा होता है

तीर्थ पुरोहितों के पास बाकायदा रिकॉर्ड बक्सा होता है जिसमें अलग अलग श्रद्धालुओं के परिवार की फाइलें मौजूद रहती हैं जिसमें उन्होंने या उनके पूर्वजों ने यहां आकर के अपने परिवार का कर्मकांड और मोक्ष की प्राप्ति के लिए पूजा-अर्चना करवाई थी। इसी को ध्यान में रखते हुए उनके उनकी अगली पीढ़ी (Next Generation) अपने तीर्थ पुरोहित के पास पूजा पाठ के लिए आते हैं।


जितेश खरे का कहना है कि प्रतीक चिन्ह के आधार पर ही अपने तीर्थ पुरोहित के पास आए थे

जबलपुर से आए श्रद्धालु जितेश खरे का कहना है कि सबसे पहले वह खुद प्रतीक चिन्ह के आधार पर अपने तीर्थ पुरोहित के पास आए थे। हालांकि अब फोन के माध्यम से साथ ही साथ ऑटो -टैक्सी की सुविधा से वह आराम से अपने तीर्थ पुरोहित पर पहुंच जाते हैं। कुछ साल पहले जब फोन की सुविधा के साथ-साथ ऑटो की सुविधा नहीं रहती थी तब अपने तीर्थ पुरोहितों को पहचानने का केवल एक ही रास्ता था और वह था झंडे का निशान।


गौरतलब है कि जो भी शख्स पहली बार संगम क्षेत्र आएगा वह रंग-बिरंगे झंडों के जंजाल को देख कर के सोचने पर मजबूर होगा कि आखिर इतने रंग-बिरंगे और प्रतीक चिन्ह के झंडे क्यों लगाए गए हैं। हालांकि अब तीर्थ पुरोहित भी मानते हैं की सालों से चली आ रही यह परंपरा डिजिटल ना हो और इसी तरह लोग अपने तीर्थ पुरोहितों को ढूंढ करके आसानी से पहुंच जाएं।

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