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सीआरपीएफ के जवानों की कायराना हत्या: असली खिलाड़ी तो पाक सेना
राजीव सक्सेना
लखनऊ: दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जिसकी अपनी सेना न हो पर पाकिस्तान एक ऐसा अजूबा है जहां सेना का अपना देश है। इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान यानी इस्लामी जम्हूरिया-ए-पाकिस्तान में जनता (पब्लिक) अर्थात जम्हूरियत का वास्तविक स्थान अभी भी समझ से परे है।पाकिस्तान पर हमेशा फौज का शिकंजा रहा है और वह अब भी इसे जकड़े हुए है।यदा कदा जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें भी फौज के रहमोकरम पर ही जी पाईं हैं। प्रधानमंत्री इमरान खान की वर्तमान सरकार पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारों में सबसे कमजोर है। उसे पता भी नहीं रहता कि फौज और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) क्या गुल खिला रही हैं।
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जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तोएबा, हिज्बुल मुजाहिदीन आदि कितने ही आतंकी संगठनों को पाक सेना ने जन्म, प्रश्रय और प्रशिक्षण दिया जो आज भी बाकायदा बरकरार है। ये उग्रवादी अधिकतर वे तालिबानी तत्व ही थे जो अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमणकारियों से लड़े थे। उनके मुंह खून लग चुका था। सोवियत सेना के जाने के बाद वे अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज होना चाहते थे पर समय और काल का खेल देखिए, आज तालिबान स्वतंत्र अफगानिस्तान, अमेरिकी सैनिकों और पाकिस्तान से युद्धरत है। पाकिस्तान भस्मासुर से भिड़ रहा है।कई अन्य कारणों से पाकिस्तान आज आर्थिक कंगाली के कगार पर खड़ा है और सऊदी अरब, अन्य इस्लामिक देशों और चीन से मदद की आस लगाए हुए है।
पाक खेल रहा खतरनाक खेल
पाक ‘डीप स्टेट’ भलीभांति जान चुका है कि भारत से आमने-सामने के परंपरागत युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ेगा। सामरिक विशेषज्ञों के अनुसार उसकी परमाणु बम की गीदड़भभकी खोखली है। इसीलिए इस्लामाबाद हजार घावों द्वारा भारतीय रक्त बहाने की अपनी पुरानी नीति को नए रूप देकर इस्तेमाल करता आ रहा है। पुलवामा में १९ वर्षीय कश्मीरी युवक को आत्मघाती फिदायीन बनाकर सीआरपीएफ के जवानों की कायराना हत्या उसी नीति में एक नया कदम है। कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम से कश्मीर के युवाओंका ब्रेन वाश कर पाक सरगना एक खतरनाक खेल रहे हैं और इस्लाम के मूल तत्व का मखौल उड़ा रहे हैं। इस्लाम अपने प्रारम्भ से एक राजनीतिक धर्म रहा है। आज उस मनोवृत्ति की पराकाष्ठा दिख रही है। दूसरों का विनाश करते-करते इस्लाम के कुछ अंधे भक्त अपने मजहब को बर्बाद कर रहे हैं और वैश्विक समाज से अलग-थलग कर रहे हैं। चिंता का विषय यह है कि ऐसे इस्लामी धर्मावलंबियों की संख्या बढ़ती जा रही है और संसार उनपर थू-थू कर रहा है।
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किन्तु क्या पाकिस्तान के आकाओं पर इस सबका कोई प्रभाव है? दिखता तो नहीं। वे तो यह सब नकार रहे हैं। जैश के सरगना मौलाना मुहम्मद मसूद अजहर ने खुलकर पुलवामा नरसंहार की जिम्मेदारी ली है और वह इस समय भी बहावलपुर में पाक सेना के सबसे बड़े अस्पताल में भर्ती है पर पाक प्रधानमंत्री इमरान खान भारत सरकार से सबूत की मांग कर रहे हैं।अब इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि आतंकी सरगना पाक सेना की सरपरस्ती में ही रह रहा है और पाक पीएम भारत से पाकिस्तान के आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का सबूत मांग रहे हैं। पाकिस्तान ने शायद ही कभी ऐसा निरीह और लाचार शासक देखा होगा।उनमें आतंकियों और उनके फौजी मास्टरों के खिलाफ एक सच्चा लफ्जबोलने की हिम्मत नहीं है।
ठोस नीति न होने से समस्या गहराई
पुलवामा के संहार ने भारत में अभूतपूर्व रोष पैदा कर दिया है। आम देशवासी बदले की मांग कर रहा है और वह भी जल्द से जल्द। आरपार के युद्ध की बात करने वालों की भी कमी नहीं है। सोशल मीडिया पर पाक के खिलाफ लोगों का गुस्सा साफ देखा जा सकता है। यह समझाना जरूरी है कि दशकों से चले आ रहे जिहादी आंतकवाद को आनन-फानन में रोकना असंभव है।
ऐसा करना और भी दुष्कर इसलिए है क्योंकि जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार और केंद्र ने लम्बे समय से इस समस्याग्रस्त राज्य की काफी अनदेखी की है। सही इलाज के ऊपर राजनीति हावी रही है भले ही कोई भी पार्टी सत्ता में रही हो। वस्तुत: ठोस एवं दीर्घकालिक कश्मीर नीति का अभाव रहा है। साथ ही साथ कश्मीर घाटी के मुस्लिम बहुल होने के कारण छद्म सेकुलरिज्म भी आड़े आया है। भारतीय सेना एवं अर्धसैन्य बलों को खुला हाथ नहीं मिला, समस्या पेचीदा होती गयी और घाटी में आतंकवादी व अलगाववादी पनपते रहे।
भारत से दुश्मनी पर ही पाक सेना का वजूद
आर्थिक कंगाली के बावजूद पाक सेना कश्मीर में अपनी कातिलाना हरकतों से बाज नहीं आ रही। इसके पीछे एक अहम कारण है। पाक सेना का अस्तित्व ही भारत के साथ दुश्मनी बनाए रखने पर निर्भर है। अनेकानेक बार पाकिस्तान में सैन्य तानाशाही क्यों कायम रहीहै? क्योंकि पाकिस्तानी जनमानस में देश को बचाए रखने की सामथ्र्य केवल सेना में ही है, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में नहीं। ये इसके बावजूद कि सेना 1971 में देश का दोफाड़ नहीं रोक पाई थी। वस्तुत: पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के लिए सेना (जनरल याहया खान) का तानाशाही और बर्बर रवैया ही जिम्मेदार था। पाक सेना के 91,000 सैनिकों और अफसरों ने भारतीय सेना के सामने ढाका में आत्मसमर्पण किया था। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसी भी देश की फौज द्वारा सबसे बड़ा सरेंडर था।
अत: कोई आश्चर्य नहीं कि पाक सेना के हुक्मरान, जो डीप स्टेट के नाम से कुख्यात हैं, भारत से वैमनस्य की आग सुलगाए रखते हैं। जब भी अमन की आशा जगती है तो कारगिल, पठानकोट, उरी जैसे आतंकी कृत्यों द्वारा वह बुझा दी जाती है। लाइन ऑफ कंट्रोल पर फायरिंग, मोर्टार आदि के निरंतर हमलों की आड़ में आतंकी घुसपैठ को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें काम आते हैं जैश व लश्कर जैसे कट्टर जिहादी संगठन जो मात्र एक मुखौटा हैं। पाक सेना के पूर्ण समर्थन के बिना वे टिक नहीं सकते।
क्या कर सकता है भारत
खैबर पख्तूनवा, बलूचिस्तान, सिंध और गिलगित-बाल्टिस्तान की जनता इस्लामाबाद के भेदभाव पूर्ण रवैये से आक्रोशित है। भारत उनको उसी तरह ‘मॉरल सपोर्ट’ दे सकता है जैसा कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी को देने का दावा करता है। पर यह लम्बी लड़ाई होगी और हमें उसके लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा।इंडस वाटर ट्रीटी के तहत भारत का अधिक जल राशि पर अधिकार है पर हमने उस जल के प्रयोग के लिए आवश्यक ढांचा ही कभी नहीं बनाया। समय आ गया है कि हम छोटे-बड़े बांध और सिंचाई के संयंत्र बनाकर जो हमारा हक है उसे वसूलें। इसका सीधा प्रभाव पाकिस्तानी पंजाब की जमींदारियों पर पड़ेगा जिनके मालिक पाकिस्तान सेना, राजनयिक सेवा और सरकार के उच्चतम पदों पर आसीन हैं।यदि पाकिस्तान हजार घाव देकर भारत को रक्तरंजित करने का स्वप्न देखता है तो भारत उसको सपनों से अधिक विकराल वास्तविकता से रूबरू करा सकता है।
पुलवामा की घटना ने दिल्ली को जगाया
पुलवामा प्रकरण ने दिल्ली को जगाया है। पाकिस्तान से व्यापार में मोस्ट फेवर्ड नेशन की एकतरफा सुविधा को वापस ले लिया गया है। इस कदम से पाकिस्तान को कोई बड़ा धक्का नहीं लगने वाला क्योंकि दोनों देशों के बीच व्यापार का स्तर मामूली से भी कम है। हां, अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लेना श्रेयस्कर निर्णय जरूर माना जा सकता है। अब इन देशद्रोही नेताओं को आम कश्मीरी के दु:ख दर्द का एहसास होगा और हो सकता है कि उनके दृष्टिकोण में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आए।
असली स्वागत योग्य निर्णय है सेना और अन्य सरकारी बलों को खुला छूट देना। अब गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा। छूट मिलने के 100 घंटे के भीतर ही सेना ने पुलवामा के मास्टरमाइंड और उसके साथी को ढेर कर दिया। खुले युद्ध की मांग बहादुरी की बात लग सकती है।
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भले ही पाकिस्तान की वर्तमान आर्थिक व सैन्य स्थिति खस्ता हाल जान पड़ती हो पर सामरिक मामलों के विशेषज्ञों एवं सैन्य जानकारों का कहना है कि भारत अभी 10 दिन के लगातार युद्ध के लिए तैयार नहीं है। सामथ्र्य और क्षमता वृद्धि के लिए काफी समय की आवश्यकता है। दशकों से जरूरी शस्त्रों की खरीद बंद ही पड़ी थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिशा में तेजी दिखाई है पर शस्त्र बिक्री के करार और उनकी वास्तविक आपूर्ति में वर्षों का समय लगता है। ध्यान देने योग्य है चीन द्वारा युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश में मोर्चा खोलने की। भारत के लिए विकट स्थिति पैदा हो सकती है। तो क्यों न भारत, पाकिस्तान को उसी की कड़वी दवा पिलाए।
सेना ही असली शासक
इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान में जिस भी जनतांत्रिक सरकार ने फौजी जनरलों की अवहेलना की उसे धूल चाटनी पड़ी। सरकारों का तख्तापलट दिया गया, मार्शल लॉ लागू कर दिया गया, जनता द्वारा चुने गए नेताओं को दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी और जनरलों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। बाकायदा जनतांत्रिक पदनामों के साथ। जनरल अयूब खान, याहया खान, जिया-उल-हक, परवेजमुशर्रफ ने यह कारनामा बखूबी अंजाम दिया।
इस खौफनाक ड्रामे में शामिल है प्रथम प्रधान मंत्री नवाबजादा लियाकत अली खान का 1951 में कत्ल, पूर्व प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को जनरल जिया द्वारा द्वारा 1979 में फांसी, पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का दिसंबर 2007 में फौज के गढ़ माने जाने वाले रावलपिंडी में खून। यद्यपि इस जघन्य अपराध को अंजाम देने का दावा अलकायदा और तहरीक-ए-तालिबान ने किया था, लेकिन फौज और उसकी आईएसआई का हाथ जगजाहिर था। विश्व की प्रमुख गुप्तचर एजेंसिओं और सामरिक विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है कि पाकिस्तान सेना का है, सेना पाकिस्तान की नहीं।
हुक्मउदूली करने वाले जन नेताओं को समय-समय पर सत्ता का स्वाद चखने का मौका दे दिया जाता है बशर्ते वे फौज की कही करते रहें। हील हवाला किया नहीं तो गए। भुट्टो परिवार, नवाजशरीफ तो क्या जनरल मुशर्रफ भी सेना के हुक्मरानों से टकराने का मजा चख चुके हैं, निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। वैसे, चुनी हुई सरकारों ने भी पाकिस्तान के आम आदमी के लिए कुछ खास नहीं किया अपितु उन्होंने भ्रष्टाचार में नए आयाम स्थापित कर सेना द्वारा अपने को अपदस्थ करने के मौके बार-बार दिए। बेनजीर भुट्टो के कारोबारी पति आसिफ जरदारी मिस्टर 10 परसेंट के नाम से बदनाम थे क्योंकि वह प्रत्येक सरकारी डील पर 10 परसेंट कमीशन वसूल लेते थे। नवाजशरीफ स्वयं बड़े उद्योगपति हैं। पारिवारिक व्यापार ही उनकी प्राथमिकता थी।
पाक की नापाक सेना
पाक सेना उन चंद फौजों में हैं जो अपना औद्योगिक साम्राज्य चलाती है, बिना किसी रोक टोक, ऑडिट, विजिलेंस आदि के। पाकिस्तान में भूमि सुधारों के न होने के कारण सेना अधिकारी ही आज के नवजमींदार एवं नव धनाढ्य हैं। सेना में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का वर्चस्व है। यही हाल सरकार के उच्च पदों का है। यद्यपि पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने एक धर्मनिरपेक्ष नए देश की परिकल्पना की थी, किन्तु यह मात्र कल्पना ही रही। जनरल जिया-उल-हक, जिन्होंने 10 वर्षों (1977-1988) का सबसे लम्बा शासन किया, पाकिस्तान के शरीयाकरण के जनक के रूप में जाने जाते हैं।
निजाम-ए-मुस्तफा (मुहम्मद) लागू हुआ और पाकिस्तान को राजनीतिक इस्लाम का वैश्विक लम्बरदार बनाने की तानाशाही मुहिम शुरू हुई। ऐसे में धर्मगुरुओं, मौलानाओं, कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों और साथ ही आतंकवादी तंजीमों की बन आई। तालिबान का जन्म हुआ और उसे अफगानिस्तान में आक्रमणकारी सोवियत सेना से लडऩे का बीड़ा दिया गया। अमेरिका से प्रबल आर्थिक और सैन्य समर्थन प्रारम्भ हो गया। सऊदी अरब से सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए।
साथ ही साथ भारत के साथ सियाचिन में आमना-सामना और पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद का प्रारम्भ हो गया। धर्मांध पाकिस्तान ने जनरल जिया की कमान में भारत के खिलाफ यह नए मोर्चे खोल दिए। भारत ने खालिस्तानी अलगाववाद को तो लम्बे संघर्ष के बाद समाप्त कर दिया पर सियाचिन आज भी भारत और पाकिस्तान के लिए एक नासूर बना हुआ है। 1989 में अफगानिस्तान से सोवियत पलायन के बाद पाकिस्तानी सेना के आकाओं ने आईएसआई को कश्मीर में धार्मिक उन्माद और ‘आजादी’ की ज्वाला भडक़ाने में लगा दिया।
जैश की ढाल क्यों बना है चीन
पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद (मोहम्मद की सेना) करीब दो दशकों में भारत पर अनेकानेक हमले कर चुका है लेकिन इसका सरगना मौलाना मसूद अजहर हमेशा अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों से बच निकलता है।
इसका कारण है चीन। वह अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव पर अपना ‘टेक्रिकल होल्ड’ हटाने को तैयार ही नहीं होता। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव १२६७ में आतंकियों व आतंकी संगठनों के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है। भारत ने २०१६ में पठानकोट हमले के बाद मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने का प्रस्ताव पेश किया था लेकिन तबसे चार बार चीन इसमें अड़ंगा लगा चुका है। चीन का तर्क है कि वह ‘१२६७ कमेटी के अधिकार व उसकी मान्यता को बरकरार रखना चाहता है।’ असल कारण यह नहीं है। चीन दक्षिण एशिया में अपने पुराने दोस्त पाकिस्तान की हिफाजत, सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) में अपने बिजनेस हितों की रक्षा और अपने एशियायी प्रतिद्वंद्वी भारत पर अपनी सुप्रीमेसी दिखाना चाहता है।
मामला सीपीईसी का
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है ‘बीआरआई’ (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) जिसमें एशिया, यूरोप और अफ्रीका को सडक़, रेल व समुद्री मार्ग से जोड़ा जाना है। इसी के तहत है सीपीईसी जो पाकिस्तान होते हुए गुजरता है। यह गलियारा चीन के शियांजिंग प्रांत से शुरू हो कर पाक-ईरान सीमा के निकट अरब महासागर में ग्वादर पोर्ट तक जाता है। सीपीईसी के ४५ प्रोजेक्ट्स में चीनी कंपनियां ४० बिलियन डॉलर निवेश कर चुकी हैं। इन प्रोजेक्ट्स में से आधे का काम पूरा हो चुका है। इस गलियारे के बनने से चीन को अरब महासागर तक पहुंचने में बहुत आसानी हो जाएगी। उसे मलक्का जलडमरूमध्य का लम्बा रास्ता अख्तियार नहीं करना पड़ेगा।
सीपीईसी में चीन ने बहुत धन और समय खर्च किया है, उसके हजारों नागरिक वहां काम कर रहे हैं सो इनकी सुरक्षा बहुत बड़ा मसला है। पाकिस्तान के संग अच्छे रिश्ते और जैश जैसे आईएसआई के मुखौटों को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा दे कर चीन सीपीईसी प्रोजेक्ट्स पर आतंकी हमलों के खिलाफ ‘बीमा’ कवर हासिल किए हुए है। सीपीईसी प्रोजेक्ट्स बलूच अलगाववादियों और पाकिस्तानी तालिबान का निशाना रहे हैं। इन हमलों का मकसद चीन के उइघुर मुसलमानों के साथ हो रही ज्यादतियों का विरोध करना रहा है। सीपीईसी काम सुरक्षित रूप से चलता रहे इसके लिए पाकिस्तान ने २०१५ में बाकायदा एक अलग फोर्स बना दी जिसमें सेना व अर्धसैनिक बलों के २० हजार सैनिक शामिल किए गए हैं।
तुम हमें मत छेड़ो, हम तुमको नहीं छेड़ेंगे
सत्तर के दशक से चीन और अफगान तालिबान में अघोषित समझौता रहा है। सोवियत हमलावरों के खिलाफ लड़ रहे अफगान तालिबान मुजहदीनों को चीनी सेना ट्रेनिंग देती थी। चीन और तालिबान में डील थी कि मुजाहिदीन चीन के शियांजियांग में उइघुरों का समर्थन नहीं करेंगे। दस साल पहले शियांजियांग में एक बम हमला हुआ था जिसमें उइघुर इस्लामिक मूवमेंट के एक टॉप नेता का हाथ था। इस नेता को आननफानन में पाकिस्तान ने पकड़ कर चीन के सुपुर्द कर दिया था। इससे स्पष्ट है कि चीन और तालिबान में हुई डील अब भी कायम है।
चीन को जनसमर्थन
चीन को पाकिस्तान में व्यापक जनसमर्थन मिला हुआ है। एक सर्वे के मुताबिक ८८ फीसदी पाकिस्तानी लोग चीन को अपना हितैषी मानते हैं। भारत के पक्ष में सिर्फ ३३ फीसदी लोग हैं। चीन इसको भी ध्यान में रख कर भारत की मांग को नजरअंदाज करता रहता है।
भारत से चिढ़
चीन को भारत से इस बात से भी चिढ़ है कि भारत उसकी ‘बीआरआई’ (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) में शामिल नहीं हुआ है। भारत की आपत्ति इस बात पर है कि सीपीईसी पाक अधिकृत कश्मीर से हो कर गुजरता है। चूंकि चीन भारत को प्रतिद्वंद्वी मानता है सो वह अजहर मसूद जैसे मसलों पर भारत की खिलाफत करता है। चीन एक संदेश अमेरिका को भी देना चाहता है कि वह भारत के साथ बहुत ज्यादा दोस्ती न करे।
भारत के खिलाफ हमेशा जहर उगलता है हाफिज
लश्कर-ए-तैयबा दक्षिण एशिया के सबसे बड़े इस्लामी आतंकवादी संगठनों में से एक है। हाफिज मोहम्मद सईद ने इसकी स्थापना अफगानिस्तान के कुनार प्रांत में की थी। मौजूदा समय में हाफिज पाकिस्तान के लाहौर से अपनी आतंकी गतिविधियां चलाता है। हाफिज पाक एवं पाक अधिकृत कश्मीर में अनेक आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चलाता है। अपने आरंभिक दिनों में इसका उद्येश्य अफगानिस्तान से सोवियत शासन हटाना था मगर अब इसका सबसे बड़ा मकसद कश्मीर को भारत से मुक्त कराना है।
हाफिज सईद हमेशा भारत के खिलाफ साजिश रचता रहता है। भारत में कई बड़ी वारदातों को अंजाम देने वाले इस आतंकी के संगठनों जमात-उद-दावा और लश्कर-ए-तैयबा को संयुक्त राष्ट्र ने 2008 में प्रतिबंधित कर दिया था। पाकिस्तान सरकार ने कई बार दबाव में आकर उसे गिरफ्तार तो किया, लेकिन हर बार वह अदालत के सहारे छूटकर बाहर आ गया। भारत के आग्रह पर उसके खिलाफ इंटरपोल ने 25 अगस्त 2009 को रेड कार्नर नोटिस जारी किया था। इसके बावजूद वह आज भी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहा है। हाफिज अक्सर हर रैली में भारत के खिलाफ जहर उगलता है और भारत को सबक सिखाने की धमकी देता है। उसके ऊपर अमेरिका ने एक करोड़ डॉलर का इनाम घोषित कर रखा है, लेकिन वह पाकिस्तान में बेखौफ घूम रहा है।
लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक और वर्तमान में जमात-उद-दावा का सरगना हाफिज सईद का जन्म पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के सरगोधा में 10 मार्च 1950 को हुआ था। हाफिज ने सबसे बड़ी आतंकी वारदात मुंबई में की थी। मुंबई में 26/11 हमले में उसका हाथ होने की बात सामने आई थी जिसमें छह अमेरिकी नागरिकों समेत 166 लोग मारे गए थे। भारत तब से पाकिस्तान से लगातार उसे सौंपने को कहता रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने मुंबई आतंकी हमलों के तुरंत बाद दिसंबर 2008 में जमात-उद-दावा को आतंकी संगठन घोषित किया था। मुंबई हमलों के बाद सईद को छह महीने से कम समय तक नजरबंद रखा गया था। लाहौर हाईकोर्ट के आदेश के बाद उसे 2009 में रिहा कर दिया गया था।
मसूद अजहर को मिलती है आईएसआई से मदद
पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान का जेहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद काफी चर्चाओं में है। इसका मकसद कश्मीर को भारत से अलग करना है। इसकी स्थापना मौलाना मसूद अजहर ने मार्च 2000 में की थी। भारत में हुए कई बड़े आतंकवादी हमले करने वाला यह संगठन भारत, अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से जारी आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल है। पुलवामा में हमले के बाद जैश-ए-मोहम्मद ने इसकी जिम्मेदारी ली थी। मसूद अजहर में कश्मीर में भी सक्रिय रह चुका है। मसूद अजहर 1994 में पुर्तगाल के पासपोर्ट पर बांग्लादेश के रास्ते भारत में दाखिल हुआ था। इसके बाद वो कश्मीर पहुंचा। अनंतनाग से उसे फरवरी 1994 में गिरफ्तार किया गया था। हालांकि 1999 में कंधार विमान अपहरण के बाद यात्रियों की सलामती के लिए मसूद अजहर को तत्कालीन भाजपा सरकार ने छोड़ दिया था। सिक्किम पुलिस के पूर्व महानिदेशक अविनाश मोहनाने का कहना है कि अजहर हमेशा दावा करता था कि पुलिस उसे ज्यादा दिन तक हिरासत में नहीं रख पाएगी क्योंकि वह पाकिस्तान और आईएसआई के लिए महत्वपूर्ण है।
अजहर से कई बार पूछताछ कर चुके मोहनाने का कहना है कि अजहर का कहना था कि आईएसआई यह सुनिश्चित करेगी कि मैं जल्द से जल्द सुरक्षित पाकिस्तान पहुंच जाऊं। आतंकी अजहर का जन्म पाकिस्तान के बहावलपुर में 1968 में हुआ था। ग्यारह भाई-बहनों में अजहर 10वें नंबर पर है। अजहर के पिता सरकारी स्कूल में हेडमास्टर थे। उसका परिवार डेयरी का करोबार भी करता था। मौलाना मसूद अजहर की शिक्षा कराची में जामिया उलूम अल इस्लामिया में हुई। बाद में अजहर हरकत-उल अंसार संगठन से जुड़ गया। दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद अजहर को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन लाहौर हाईकोर्ट के आदेश पर 2002 में उसे रिहा कर दिया गया। 2002 में अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या और उसके अपहरण के बाद अमेरिका ने अजहर मसूद को सौंपने की मांग की थी। 2003 में परवेज मुशर्रफ पर हुए आत्मघाती हमले के मामले में भी उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।