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मानवता: बेसहारों का सहारा बन रहे राजधानी के अस्पताल
आदित्य मिश्र
लखनऊ: बुजुर्गों को बोझ समझकर घर से निकाल देने और लावारिस हालात में छोड़ देने के किस्से आपने फिल्मों में तो अक्सर देखे और सुने होंगे, लेकिन मानवता को शर्मसार कर देने वाला पश्चिमी देशों का यह ट्रेंड अब भारत में भी दिखाई देने लगा है। इसका उदाहरण राजधानी लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल, सिविल अस्पताल और किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) में साफ तौर पर देखा जा सकता है। आइए आपको बताते है बेसहारों के लिए ये अस्पताल किस तरह सहारा बने हुए हैं।
बलरामपुर में आठ मरीज
बलरामपुर अस्पताल में इस समय 8 लावारिस मरीज भर्ती हैं। ये सभी पुरुष हैं। इनमें से तीन मरीजों को छोडक़र बाकी मरीज एक माह से अधिक समय से भर्ती हैं। न्यू बिल्डिंग स्थित फस्र्ट फ्लोर में 20 नंबर वार्ड में पांच मरीज भर्ती हैं। एक बेड पर दो बच्चे और तीन अन्य मरीज हैं। सीतापुर निवासी लगभग 60 साल के रहमान यहां पिछले लगभग एक माह से भर्ती हैं। उनके पैरों में सडऩ के कारण कीड़े पड़ गए थे जिसके कारण उन्हें किसी ने बलरामपुर अस्पताल में भर्ती करा दिया। वह यहां पर पिछले एक माह से इलाज करा रहे हैं।
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उन्होंने बताया कि वह लखनऊ के ही हैं और फल का कारोबार करते थे। उनके चार बेटे हैं, लेकिन समय के साथ बच्चों ने साथ देना छोड़ दिया। यहां पर अस्पताल के कर्मचारी ही इलाज और सारी मदद करते हैं। उनके बगल में हरदोई निवासी मुकेश (55) भर्ती हैं। उन्होंने बताया कि पिता का इलाज कराते- कराते जमीन बिक गई। एक्सीडेंट के बाद परिवार भी साथ नहीं दे रहा है। घर वाले उन्हें तीन महीने पहले लाकर चारबाग स्टेशन के बाहर छोड़ गये थे। वहां से किसी ने जीआरपी को सूचित किया जिसके बाद जीआरपी चारबाग पुलिस की मदद से उन्हें जीप में लेकर बलरामपुर अस्पताल लाई। तब से वह यहीं पर भर्ती है।
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इसी वार्ड में एक तीसरे बुजुर्ग व्यक्ति भी भर्ती हैं, लेकिन वह अपने बारे में कुछ बता न सके। यहां ड्यूटी कर रहे वार्ड ब्वाय ने उनके बारे में बताया कि वह भी कई दिन से भर्ती हैं, लेकिन कुछ बता नहीं पा रहे हैं।
नर्स और वार्ड ब्वाय ही बने परिवार
राजधानी के हार्ट में स्थित डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (सिविल) में मेन बिल्डिग के फस्र्ट फ्लोर पर 19 ए, 20 ए, 21, 35 ए व 40 नंबर बेड पर 5 लावारिस मरीज भर्ती हैं। सबको भर्ती हुए एक माह से अधिक हो गया है। ड्यूटी पर मौजूद नर्स ने बताया कि जो मरीज ठीक हो जाते हैं वह इधर-उधर घूमने चले जाते हैं और फिर आकर सोने के लिए यहां शाम को आ जाते हैं। ज्यादातर के परिजन ही नहीं हैं। यह सब इतने बूढ़े हैं कि अक्सर बीमार हो जाते हैं जिन्हें या तो पुलिस गंभीर हालत में इमरजेंसी में भर्ती कराती है या फिर 108 एंबुलेंस भर्ती कराती है। यहां पर वार्ड ब्वाय ही उन्हें नहलाता और सफाई करता है। सबको खाना भी दिया जाता है।
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केजीएमयू ट्रॉमा बन रहा सहारा
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के डाक्टरों के मुताबिक हर माह 30 से 35 मरीज ट्रॉमा सेंटर में लावारिस हालत में भर्ती होते हैं। इनमें से 5 से 6 मरीज ऐसे होते हैं कि जिनका अपना कोई उन्हें लेने नहीं आता। ये ऐसे मरीज होते है, जिनके घर वाले या तो इलाज के पैसे की तंगी के कारण या जानबुझकर इन्हें ट्रामा के बाहर छोडक़र चले जाते हैं। इलाज के बाद ठीक होने पर भी इस तरह के मरीज यहां से जल्दी जाना नहीं चाहते है। जबकि शेष मरीज एक्सीडेंटल होते हैं और उनके परिजन उन्हें ले जाते हैं।
मरीजों को मदद पहुंचाना बन रहा चुनौती
हालत यह है कि सिविल अस्पताल. बलरामपुर अस्पताल और केजीएमयू में ऐसे मरीज रोजाना भारी तादाद में इलाज के लिए पहुंच रहे हैं जिन्हें भगवान भरोसे या यूं कहें उनकी नियति के हवाले छोड़ दिया गया है। बीमारी की हालत में सडक़ किनारे पड़ा देखकर अगर कोई राहगीर या पुलिस ऐसे बुजुर्गों को अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती करा देती है तो यह मरीज स्वस्थ होने के बाद भी वहां से जाने को तैयार नहीं है। ऐसी हालत में हॉस्पिटल प्रशासन और पुलिस को भी समझ नहीं आ रहा कि जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके ऐसे बुजुर्गो को आखिर मदद पहुंचाई भी जाए तो कैसे?