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मौज में आउटसोर्सिंग घोटालेबाज, अधर में लटका पीएम का स्वच्छता अभियान
राजकुमार उपाध्याय की स्पेशल रिपोर्ट
लखनऊ: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान में राज्य सरकार किस तरह पलीता लगा रही है इसकी बानगी देखनी हो तो आपको प्रदेश के पंचायतीराज विभाग की पड़ताल करनी होगी। यहां गांव में चलने वाले स्वच्छ भारत मिशन में लोगों की तैनाती में खुलकर खेल खेला गया। इस मिशन के लिए आला हुक्मरानों ने पहले तो आउटसोर्सिंग के जरिए कर्मचारियों की भर्ती करने का फैसला किया और फिर मनमुताबिक कंपनियों को काम देकर दाम कमाया। हद तो यह हुई कि चार दिन पहले पंजीकृत कंपनी को भी भर्ती का अधिकार दे दिया गया।
अखिलेश यादव सरकार में हुए गोलमाल पर जब शोरशराबा तेज हुआ तो उन्होंने इस आउटसोर्सिंग घोटाले की जांच के आदेश दिए। जांच में आरोपी अफसरों पर कार्रवाई की सिफारिश भी हुई, लेकिन मोदी के मिशन को पलीता लगाने वाले इन अफसरों के हाथ इतने लम्बे हैं कि सत्ता बदलते ही जांच रिपोर्ट फाइलों में न जाने कहां दबा दी गई। जिन्होंने इस गोलमाल में हाथ काले किए थे उन्हें ही फिर इस सरकार में मौज का मौका मुहैया करा दिया गया।
नियमों में किया बदलाव
पिछली सरकार में पंचायतीराज निदेशक के पद पर उदयवीर सिंह यादव तैनात थे। केंद्र सरकार की योजनाओं को लागू कराने का काम उपनिदेशक (पं.)/नोडल अधिकारी एसबीएम (जी) एसएन सिंह के पास था। गांव में मोदी सरकार के इस अभियान को अंजाम देने के लिए राज्य, मंडल, जिला और ब्लाक स्तर पर कन्सलटेंट, डाटा इंट्री ऑपरेटर और लेखाकार भर्ती किए जाने थे।
सेवा प्रदाता एजेंसी के माध्यम से विकासखंड स्तर पर खंड प्रेरकों की भी तैनाती होनी थी। 19 नवम्बर 2014 को निदेशक उदयवीर सिंह यादव ने जनपद स्तर पर इन पदों की तैनाती के लिए व्यवस्था करने के आदेश सभी जिला पंचायत अधिकारियों को दिए। लेकिन फिर अचानक न जाने किन कारणों से नियमों में बदलाव कर दिया गया और 13 फरवरी 2015 को एक विज्ञापन निकाला गया।
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इसमें राज्य स्तर पर सेवा प्रदाता एजेंसियों के चयन के लिए निविदाएं आमंत्रित कर ली गयीं। 23 एजेंसियों ने टेंडर डाले। दो मार्च 2015 को टेंडर खोले गए। इसमें आठ संस्थाओं का चयन किया गया। यह काम विभाग के उपनिदेशक एसएन सिंह की देखरेख में हो रहा था। यही वजह है कि आठ पेज की जांच रिपोर्ट में जांच कमेटी ने एसएन सिंह से उनका पक्ष मांगा।
उन्होंने अपने दो पेज के पत्र के पहले पन्ने पर कहा है कि सेवा प्रदाता कंपनी के लिए अवधि निर्धारित नहीं की गई थी। हालांकि जांच रिपार्ट में उनकी इस सफाई को दरकिनार कर दिया गया है क्योंकि एक ऐसी संस्था को काम मिला, जिसका पंजीकरण सिर्फ चार दिन पहले हुआ था। अगर संस्था का पंजीकरण चार दिन पहले हुआ तो निविदा के लिए अनिवार्य अनुभव की योग्यता आखिर उसने कैसे पूरी की।
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हद तो यह हुई कि अपनी मनचाही कंपनी को उपकृत करने के लिए सामान्य से अधिक दर पर सॢवस चार्ज भी दिया गया। टेंडर में 2.08 फीसदी और अधिकतम नौ फीसदी सॢवस चार्ज कोट किया गया। हुनरमंद अफसरों ने मनचाही कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सीवीसी की गाइडलाइन एल-1 की जगह औसत सॢवस चार्ज 5.54 फीसदी देने का फैसला कर लिया।
अफसरों पर नहीं हुई कार्रवाई
इस मामले में लेन-देन के साक्ष्य के तौर पर शिकायतकर्ता की ओर से जांच कमेटी को दी गई थी मगर कमेटी इस ओर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी। उसने अपने बचाव में यह आड़ ली कि सिर्फ आडियो सीडी के आधार पर निष्कर्ष निकालने में कमेटी तकनीकी रूप से सक्षम नहीं है।
इस कमेटी में संयुक्त निदेशक आरडी सिंह बतौर अध्यक्ष थे। जबकि मुख्य वित्त एंव लेखाधिकारी केशव सिंह को सदस्य और उपनिदेशक (पं.) गिरीश रजक को सदस्य सचिव नामित किया गया था। बीते साल नौ जून 2016 को इस मामले में कार्रवाई की सिफारिश की गई थी। विशेष सचिव महेन्द्र कुमार ने निदेशक पंचायतीराज को लिखे अपने पत्र में साफ तौर पर यह कहा था कि जिम्मेदार अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करके शासन को अवगत कराएं, लेकिन योगी आदित्यनाथ सरकार में भी घोटालों की यह सिफारिश औधें मुंह पड़ी हुई है।
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अफसरों को नहीं जांच रिपोर्ट की जानकारी
अपर मुख्य सचिव पंचायतीराज से जब इस बारे में जानकारी की गई तो उन्होंने कहा कि यह मामला उनकी जानकारी में नहीं है। निदेशक पंचायतीराज ही इस बारे में कुछ बता सकते हैं। निदेशक पंचायतीराज विजय किरन आनन्द ने इस बाबत पूछे जाने पर बताया कि यह प्रकरण अभी उनके संज्ञान में नहीं है। जब उन्हें यह बताया गया कि जांच रिपोर्ट पर शासन की तरफ से 9 जून 2016 को ही पत्र लिखकर कार्रवाई के लिए कहा गया है तो उन्होंने कहा कि वह इसे दिखवाएंगे।