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आपातकाल: वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी मानते हैं, नौजवानों को आगे बढ़कर पाटनी होगी असामनता की खाई
लखनऊ: 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा- 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की थी। इस दौरान इंदिरा गांधी पर राजनीतिक विरोधियों को कैद कर नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करने के आरोप लगे।
उस समय जयप्रकाश नारायण ने जेपी आंदोलन के नाम से इंदिरा गांधी की मनमानी के खिलाफ मुहिम छेड़ी और इसे भारत के इतिहास की काली अवधि तक घोषित कर दिया। आज इस घटना को 42 साल बीत चुके हैं। ऐसे में हमने जेपी आंदोलन के प्रत्यक्षदर्शी और स्वयं जेल जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी से बातचीत की और उस समय के परिप्रेक्ष्य और वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर उनके विचार जाने।
सवाल: आज आपातकाल को याद कर सबसे ज्यादा कौन सी चीज/बात याद आती है?
रामदत्त त्रिपाठी: देखिए, उन दिनों जेपी आंदोलन चल रहा था। एक व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन चल रहा था। सबसे अहम मुद्दा भ्रष्टाचार था। इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आया, जिसके बाद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी थी। इसके बाद आंदोलन का स्वरूप व्यापक हो गया। जेपी जी की जेल में ही किडनी खराब हो गई और लगभग मौत के मुंह में वो पहुंच गए थे। उस समय भी उनके मनोबल का न टूटना बहुत याद आता है। उनका संकल्प बहुत बड़ी बात थी उनके लिए। ये अपने आप में ऐतिहासिक संकल्प था। इसके बाद जब वह चंडीगढ़ से वायुयान में रवाना हुए, उनकी स्थिति काफी खराब थी। तब भी उन्होंने कहा, कि वह भ्रष्टाचार को हराएंगे। व्यवस्था परिवर्तन लाएंगे। ऐसा संकल्प काफी कम देखने को मिलता है। ये अपने आप में बहुत बड़ी बात है। जेपी जी ने अस्वस्थ होने के बावजूद जिस संकल्प शक्ति से पूरे आंदोलन को लीड किया। ये संकल्प शक्ति याद आती है।
आगे की स्लाइड्स में पढ़ें रामदत्त त्रिपाठी से newstrack.com के पत्रकार सुधांशु सक्सेना की पूरी बातचीत
सवाल: इस दौरान अपनी कौन सी ऐसी स्मृतियां हैं, जो आप हमसे साझा करना चाहेंगे?
रामदत्त त्रिपाठी: आपातकाल के दौरान हम सब लोग संघर्ष समिति के मेंबर थे। पहले दिन से हमारी गिरफ्तारी के प्रयास होने लगे। इसलिए हमलोग पहले दिन से अंडरग्राउंड हो गए। आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए लगातार अपनी जगह भी बदलते रहे। इलाहाबाद में रामबाग रेलवे स्टेशन पर सोए, जहां मेरी घड़ी भी चोरी हो गई। इस तरह लगातार अंडरग्राउंड रहकर जो दो से ढाई महीने का समय गुजारा, वह अपने आप में यादगार है। इसी दौरान जयपुर जाना हुआ और एक ही जोड़ी कपड़ा पहने हुए थे, वहां बारिश में भीग गए। तो वहां कपड़ों को सुखाना और फिर इसी तरह दिन गुजारने से लेकर बनारस में जिस तरह इंटेलीजेंस ने गिरफ्तार किया, ये सब दिन बड़े रोमांचक रहे। हम लोगों ने निश्चित किया कि जब हमारे सारे साथी जेल में हैं तो हमें भी गिरफ्तार होकर जेल जाना चाहिए। फिर गिरफ्तारी हुई। ये सब यादगार पल हैं।
सवाल: आपातकाल के दौरान आप लोग किस तरह से खबरें करते या एक- दूसरे सदस्य से संवाद स्थापित करते थे। किस लाइन ऑफ एक्शन पर आप काम करते थे?
रामदत्त त्रिपाठी: आपातकाल के समय मोबाइल जैसी कोई डिवाइस नहीं उपलब्ध थी। कुछ लोगों के यहां फोन हुआ करते थे। इन फोनों का उपयोग होता था। लेकिन ज्यादातर व्यापक रूप से साधारण डाक ही संवाद स्थपित करने का साधन माध्यम हुआ करती थी। इसके अलावा एक हैंड टाइपराइटिंग की मशीन ली थी, जिससे टाइप करके सर्कुलर आदि बनाते थे और डाक से उसे लोगों के पास भेजते थे।जो बड़े लोग थे, वो सब तो जेल में थे लेकिन अन्य लोगों से इसी तरह संवाद किया करते थे। इन माध्यमों के अलावा माउथ टू माउथ कम्यूनिकेशन भी संवाद का एक माध्यम था। लेकिन ज्यादातर हमने डाक का ही प्रयोग किया।
सवाल: आपातकाल को काफी समय बीत चुका है, तो आपको क्या लगता है कि देश आपातकाल से कितना आगे निकल चुका है?
रामदत्त त्रिपाठी: देश आपातकाल से काफी आगे निकल चुका है। 44 वें संविधान संशोधन के बाद उस प्रकार से इमरजेंसी लगाना भी आसान काम नहीं है। इसके अलावा उस समय तो कोर्ट का रोल बहुत खराब था, अब तो न्यायिक सक्रियता के चलते कोर्ट का रोल काफी मजबूत हुआ है। इससे ऐसा लगता तो नहीं कि दुबारा इमरजेंसी लग सकती है। लेकिन दल बदल कानून के बाद पार्टी में लीडर्स की दादागीरी हो गई है और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो रहा है, उससे कहीं न कहीं ये आशंका लगती है कि ये स्थिति देश के लिए ठीक नहीं है। क्योंकि उस समय भी कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र नहीं था। अगर उस समय आंतरिक लोकतंत्र होता और कैबिनेट की बैठक बुलाई जाती, चीजें डिस्कस की जातीं तो आपातकाल नहीं लगता। आज बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के नाम पर और पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र खत्म होने के चलते जो स्थिति बनी है, ये देश के लिए ठीक नहीं है।
सवाल: क्या आपको लगता है कि आपातकाल के बाद देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं या नहीं?
रामदत्त त्रिपाठी: लोकतंत्र की मजबूती के लिए जिस तरह से सामाजिक, आर्थिक समानता की आवश्यकता है, वह दिख नहीं रही। जिस तरह से विषमता बढ़ती जा रही है। जिस तरह से आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, तो कहीं न कहीं ये सब लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा भी है। लोग खुशहाल नहीं होंगे तो कोई भी राजनीतिक व्यवस्था सुरक्षित नहीं होती, लोग राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ ही बगावत करते हैं। तो हमारी आजादी का जो सपना था और जैसा हमारे संविधान की प्रस्तावना में भी स्प्ष्ट रूप से उल्लेखित है कि समानता, बंधुत्व आदि उद्देश्यों की प्राप्ति में जो देरी हो रही है और गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती जा रही है। शहर और गांव की खाई बढ़ती जा रही है। अगर इस खाई को समय रहते नहीं पाटा गया तो राजनीतिक व्यवस्था के लिए कहीं न कहीं खतरा हो सकता है। क्योंकि लोगों को अगर लगने लगे कि लोकतंत्र जनहित में नहीं है तो बगावत की आशंका बनी रहती है।
सवाल: आप उन नौजवानों को क्या संदेश देना चाहेंगे, जिन्होंने आपातकाल नहीं देखा है। कोई ऐसा खास संदेश जो आप उन लोगों को देना चाहें।
रामदत्त त्रिपाठी: सबसे अहम बात ये है कि वे नौजवान जो तकनीकी या मेडिकल के क्षेत्र में जाते हैं उन्हें समाज और राजनीति के इतिहास की कम जानकारी होती है या कई बार तो वह पूर्णतय: ऐसी जानकारियों से कटे हुए होते हैं। इसके अलावा जेहादी बनने या गुमराह होने वाले नौजवानों में तकनीकी या इसी तरह के क्षेत्र से नौजवानों को 'ब्रेनवॉश' करके गलत काम करने को प्रेरित कर दिया जाता है। क्योंकि ऐसे नौजवानों को समाज की कम समझ होती है। तो समाज में जो जिस पायदान पर है उसे समाजशास्त्र, राजनीति और इतिहास की सही जानकारी होना आवश्यक है। दूसरा नौजवानों को मजहबी दीवारें ढहाकर मिलजुलकर रहने के उदाहरण पेश करने होंगे। जिससे समाज की दिशा सही रहे।
नौजवानों को सह-अस्तित्व कायम रखना और मिलकर आगे बढ़ने की मिसाल पेश करनी होगी। यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है। क्योंकि जिस तरह से मजहब के नाम पर राजनीतिक लामबंदी चल रही है, ये देश के लिए अच्छी बात नहीं है। इधर कई पढे लिखे नौजवान राजनीति में आ रहे हैं, ये अच्छी बात है। लेकिन उन्हें भी लोकतंत्र के आधारभूत मूल्यों को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए। नौजवान राजनीतिज्ञों की इन मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता होनी चाहिए। दूसरा चुनाव का खर्च काफी बढ़ गया है, इस पर भी अंकुश लगना बहुत जरूरी है। इसलिए ऐसे लोगों का राजनीति में आना आवश्यक है जो समाज की समझ रखते हों और समाज के लिए प्रतिबद्धता हो। तभी आपातकाल के मूलभूत उद्देश्यों और लोकतंत्र के मूलभूत उद्देश्यों की प्राप्ति संभव है।