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Holi 2022: यूपी के इस जिले में प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है होली, द्वापर युग से चली आ रही परंपरा

Sonbhadra: उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर रचा -बसा आदिवासी समाज पुरातन संस्कृति और प्राकृतिक रंगों की होली खेलने की परंपरा अब तक संजोए हुए है।

Kaushlendra Pandey
Published on: 9 March 2022 2:37 PM IST
Tesu flowers in forests of Sonbhadra
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सोनभद्र के जंगलों में खिले टेसू के फूल

Sonbhadra: लोकतंत्र का पर्व संपन्न होने के बाद, अब लोगों के सिर पर 19 मार्च को मनाए जाने वाले होली पर्व की खुमारी चढ़ने लगी है। आधुनिकता के रंग से सरोबार लोग जहां होली पर चमक-दमक (केमिकल युक्त) भरे रंग-गुलाल और चमकीले कपड़ों को प्राथमिकता देने लगे हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर रचा -बसा आदिवासी समाज पुरातन संस्कृति और प्राकृतिक रंगों की होली खेलने की परंपरा अब तक संजोए हुए है। इसी के साथ द्वापर युग से चली आ रही टेसू के फूलों से बने रंगों और गुलाल से होली खेलने की परंपरा बनी हुई है।

उद्योग प्रधान होने के बावजूद प्रदेश के सबसे पिछड़े क्षेत्र की पहचान रखने वाले दुद्धी तहसील के दुरूह और पहाड़ी इलाके में स्थित करहिया, बोधाडीह, औराडंडी, बगरवा नगवां आदि गांवों में प्राकृतिक रंगों से होली खेलने का उत्साह देखते ही बनता है। यहां के मूल निवासी चेरो, गोंड, खरवार, परहिया जैसी आदिवासी जातियां पलास (टेसू), फुलझड़ी, सेमल आदि के फूलों से बनाए गए रंगों से होली खेलते हैं। इस रंग को वह स्वस्थ अपने हॉथों से तैयार करते हैं।

एक सप्ताह पहले से शुरू हो जाती है तैयारीः

इसके लिए एक सप्ताह पहले से ही आदिवासी युवक-युवतियां फूलों को तोड़कर एकत्रित करने और रंग बनाने के कार्य की प्रोसेसिंग शुरू कर देते है। इस काम में उनके बड़े भी उनका साथ देते हैं। ताकि होली के दिन तक रंग-गुलाल पर्याप्त मात्रा मे तैयार हो जाए।

सोनभद्र के जंगलों में खिले टेसू के फूल

इस पर आदिवासियों का कहना होता है कि वह अपने पूर्वजों के जमाने से अपने हाथों से प्राकृतिक फूलों से बनाए रंगो से ही होली खेलते आए हैं। यह परंपरा अनवरत कायम है।

औद्योगिकीकरण और बढ़ते प्रदूषण का का लगने लगा है ग्रहणः

हालांकि बढ़ते प्रदूषण और अंधाधुंध पेड़ों की कटाई के चलते साफ होते जा रहे जंगल पुरातन काल से चली आ रही इस परंपरा के लिए ग्रहण साबित होने लगे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध में रंगा समाज इस परंपरा से तो दूर हो ही चुका है,

कटते जंगलों के कारण, इस परंपरा को संजोते चले आ रहे आदिवासी समुदाय के लिए भी, होली के रंग के लिए पर्याप्त मात्रा में फूल जुटाना मुश्किल बनने लगा है। किसी तरह से अभी तक यह परंपरा बची हुई है लेकिन आगे भी प्रदूषण और जंगल कटान में बढ़ोतरी बनी रही तो आने वाले समय में यह परंपरा हमेशा के लिए अतीत बन सकते हैं।

टिकाऊ और त्वचा के लिए फायदेमंद होते हैं प्राकृतिक फूलों के रंग:

आदिवासी समुदाय के लोग बताते हैं कि एक तरफ जहां प्राकृतिक फूलों से बने रंग लंबे समय तक टिकाऊ होते हैं। वहीं त्वचा के लिए भी यह फायदेमंद माने जाते हैं।

यहीं कारण है कि प्राकृतिक रंगो से खेली गई होली से किसी को कोई नुकसान या चेहरे पर कोई दाग़ नहीं पड़ता। अलबत्ता आयुर्वेद में दावा किया जाता है कि इससे चेहरे की चमक बढ़ती है। बता दें कि टेसू के फूलों से बने रंग-गुलाल से होली खेलने की परंपरा ब्रज क्षेत्र में भी कायम है और वहां खेली जाने वाले लट्ठमार होली में इसका प्रयोग भी देखने को मिलता है। -



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Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

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