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जन्म के बाद दरवाजे से नहीं, दीवार में छेद कर बच्चे को निकालते है कमरे से बाहर

Aditya Mishra
Published on: 9 Aug 2018 4:41 PM IST
जन्म के बाद दरवाजे से नहीं, दीवार में छेद कर बच्चे को निकालते है कमरे से बाहर
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गिरिडीह/धनबाद : केंद्र सरकार देश में बढ़ते अंधविश्वास और अजीबोगरीब परम्पराओं के कारण होने वाली मौत की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए तमाम तरह के प्रयास कर रही है लेकिन इस पर नकेल नहीं लग पा रही है। धनबाद से सटे गिरिडीह जिले में 'बिरहोर टंडा' नाम का ऐसा गांव है, जहां बच्चे के जन्म के बाद उसे अंधविश्वास के चलते कमरे के दरवाजे से नहीं, बल्कि दीवार में छेद कर बाहर निकाला जाता है। इस अजीबोगरीब परंपरा को मानने के कारण कई बार बच्चों की जान पर भी बन आती है। लेकिन यहां के लोग आज भी इसे मान रहे हैं।

newstrack.com आज आपको गिरिडीह जिले के 'बिरहोर टंडा' से जुड़े इस अजीबोगरीब परम्परा के बारे में विस्तार से बता रहा है।

बिरहोर जनजाति से जुड़ा है ये मामला

बिरहोर टंडा में काफी बड़ी संख्या में बिरहोर रहते हैं। विलुप्त हो रही बिरहोर जनजाति के लोग खुद भी अपना अस्तित्व बचाए रखने को लेकर प्रयासरत हैं। वे शादी भी अपने परिवार या समुदाय में ही करते हैं। उनके यहां सदियों से अजीबोगरीब परम्पराओं को निभाने का चलन है। लेकिन परंपरा के नाम पर दकियानूसी प्रथाएं नवजातों की जान ले रही हैं।

नहाने के बाद पास के जंगल में कराई जाती भूत की पूजा

परंपरा के अनुसार प्रसूता एवं बच्चे को नहलाने के बाद पास के जंगल में ले जाकर भूत की पूजा कराई जाती है। पूजा के बाद खाने-पीने की व्यवस्था भी यहीं की जाती है। यहां जो खाना बच जाता है, उसे घर लाने की बजाय वहीं गाड़ दिया जाता है। यहां के लोगों का ऐसा मानना है कि यदि बच्चे को इस परंपरा के अनुसार बाहर नहीं निकालते हैं तो उसका भूत गड़बड़ा जाता है। इससे बच्चे की पूरी जिन्दगी खराब हो जाती है। यहीं नहीं नवजात को दीवार काटकर बाहर निकाला जाता है एवं नहाने के बाद चेंगना पाठा (कबूतर) काटकर पूजा की जाती है।

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10 साल में एक भी संस्थागत प्रसव का रिकॉर्ड नहीं

सरकार की ओर से सरकारी अस्पतालों में प्रसव कराने के लिए स्वास्थ्य विभाग पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग की बैठक में सिविल सर्जन को महिलाओं का प्रसव अस्पताल में कराने के लिए बार-बार निर्देश मिलता है। स्वास्थ्य विभाग के साथ ही समाज कल्याण विभाग के कर्मियों को भी इस अभियान में शामिल किया गया है। इसके बावजूद बिरहोर महिलाओं का प्रसव अस्पताल में कराने का कोई रिकॉर्ड नही है। संस्थागत प्रसव के लिए सरकार इलाज का खर्च उठाती है। प्रोत्साहन राशि का भुगतान भी किया जाता है। इसके बावजूद पिछले 10 सालों में एक भी बिरहोर महिला का संस्थागत प्रसव नहीं कराया जा सका है।

क्या कहते है चिकित्सक

यहां के डाक्टरों का कहना है कि आज भी परंपरा के नाम पर बिरहोर जनजाति के लोग प्रसूता को अस्पताल लाने से कतराते हैं, जबकि यही परंपरा कई बार नवजात की जान पर भी बन आती है। विलुप्त हो रही इस जनजाति के लोगों के घरों में आज भी बच्चे के जन्म के समय अजीब ढंग की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। महिलाओं का प्रसव घर में कराया जाता है। इतना ही नहीं प्रसव करने के बाद नवजात को घर के दरवाजे से निकालने के बजाय उसे उस घर की दीवार को एक कोने को तोड़कर छेद बनाकर उसी छेद से बच्चे को बाहर निकाला जाता है। जब तक उस बच्चे के साथ प्रसूता को नहाया नहीं जाता, तब तक बच्चे के साथ ही प्रसूता को भी उसी स्थान पर सुलाया जाता है।

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परंपरा पड़ रही जान पर भारी

नवजात को दीवार के छेद से बाहर निकालने में कई बार उसकी जान पर बन आती है। इसके बाद भी न तो बच्चे को अस्पताल ले जाया जाता है और न ही कोई दवा दी जाती है। यहां की ग्रामीण महिलाओं का कहना इस समाज की महिलाएं कोई दवा भी नहीं खाती। इसके साथ ही उन्हें स्वास्थ्य विभाग की तरफ से जो भी सामग्री उपलब्ध कराई जाती है, उसका उपयोग करने की बजाय उसे बेच देती हैं। आज भी बिरहोर अंधविश्वास में जी रहे हैं। बच्चे के जन्म लेने के बाद दीवार तोड़कर उसे कमरे से बाहर निकाला जाता है। इससे कई बार बच्चों की मौत भी हो जाती है।



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Aditya Mishra

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