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मोदी के इस मिशन से प्रेरित होकर दो दोस्तों ने शुरू किया था स्टार्ट अप, अब मिली फ़ोर्ब्स में जगह
लखनऊ: कानपुर मुख्यालय से 25 किमी. की दूरी पर भौंती गांव में हेल्प अस ग्रीन कम्पनी का ऑफिस है। यह वह कंपनी है जो कानपुर के 29 मंदिरों से रोज 800 किलों बेकार फूल इकट्ठा करती है, उन्हें अगरबत्तियों और जैविक वर्मिकंपोस्ट में बदलती है। अंकित अग्रवाल और करण रस्तोगी इन दोनों दोस्तों की कम्पनी 'हेल्प अस ग्रीन' की बदौलत मंदिरों में चढ़ाया जाने वाला एक भी फूल नदी-नालों में नहीं फेंका जाता।
इस कम्पनी के फाउंडर अंकित अग्रवाल और करण रस्तोगी है। दोनों का नाम फ़ोर्ब्स मैगजीन में आ चुका है। अंकित ने newstrack.com से बात की और अपने एक्सपीरियेंसेज को शेयर किया।
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ऐसे आया था 'हेल्प अस ग्रीन' का आईडिया
अंकित (28) बताते है, मैं अपने दोस्त के साथ 2014 में बिठूर, कानपुर में मकर संक्रांति के दिन गंगा के किनारे बने मंदिरों के दर्शन करने साथ निकले थे। गंगा तट पर सड़ते हुए फूलों और गंदा पानी पीते हुए लोगों को देखा था।
ये बात सिर्फ नदी में सड़ रहे फूलों की ही नहीं, बल्कि उन पर इस्तेमाल किए गए कीटनाशकों की भी थी। जो जल जीवन पर अपना असर डाल सकते हैं।
मेरे दोस्त ने मुझें गंगा की तरफ दिखाते हुए बोला कि तुम लोग इसके लिए कुछ करते क्यों नहीं हो। तभी मन में ऐसा आइडिया आया कि क्यों न कुछ ऐसा काम शुरू किया जाये।
ताकि नदियों को प्रदूषित होने और लोगों को गंदे पानी पीने से होने वाली बीमारियों से बचाया जा सके। हमने पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छता मिशन से प्रेरित होकर गंगा किनारे ही शपथ ली कि हम गंगा में बेकार -फूल नहीं गिरने देंगे। इसे साफ़ सुधरा बनायेंगे।
लोगों ने पागल कहकर उड़ाया था मजाक
मैंने अपने 11 वीं में साथ ट्यूशन पढ़ने वाले दोस्त करण रस्तोगी(29) से बात की करण उस टाइम फारेन से पढ़ाई करके इंडिया वापस आया था।
हम दोनों ने गंगा में फेके जा रहे फूलों पर बात की। हमने तय कर लिया था कि हमें नदियों को हर हाल में प्रदूषण से बचाने के लिए कुछ अलग करना होगा।
जब लोगों से इस बारे में बात किया कि हम नदियों को फूलों से होने वाले प्रदूषण से बचाने के लिए कुछ अलग काम करना चाहते है। तब लोगों ने हमारा मजाक उड़ाया था। लेकिन हमने किसी की परवाह नहीं की।
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72 हजार रूपये से शुरू की कम्पनी
अंकित बताते है, 2014 तक मैं पुणे की एक साफ्टवेयर कम्पनी में आटोमेशन साइंटिस्ट के रूप में काम कर रहा था। वहीं करन मास्टर्स की पढ़ाई करने के बाद इंडिया आकर अपना खुद का काम कर रहा था।
मैंने और करण ने अपना पुराना काम छोड़कर 2015 में 72 हजार रूपये में हेल्प अस ग्रीन कम्पनी लॉन्च की। तब हर किसी ने सोचा हम पागल हैं। दो महीने बाद अपना पहला उत्पाद वर्मिकंपोस्ट लेकर आए जिसे ''मिट्टी" कहना शुरू किया।
इस वर्मिकंपोस्ट में 17 कुदरती चीजों का मेल है, जिनमें एक कॉफी चेन की स्थानीय दुकानों की फेंकी हुई कॉफी की तलछट भी है। बाद में आइआइटी कानपुर भी कुछ रकम के साथ इससे जुड़ गया।
कुछ टाइम बाद हमारी कंपनी कानपुर के सरसौल गांव में पर्यावरण अनुकूल अगरबत्तियां भी बनाने लगी। अगरबत्ती के डिब्बों पर भगवान की तस्वीरें होने की वजह से उन्हें कूड़ेदानों में फेंकने में श्रद्धालुओं को दिक्कत होती थी, लिहाजा 'हेल्प अस ग्रीन' ने अगरबत्तियों को तुलसी के बीज युक्त कागजों में बेचना शुरू किया।
आज 2 करोड़ से ज्यादा का है टर्न ओवर
अंकित अग्रवाल बताते है, हेल्प अस ग्रीन कम्पनी 22000 एकड़ में फैली हुई है। हमारी कम्पनी में 70 से ज्यादा महिलायें काम करती है। उन्हें कम से कम 200 रूपये की मजदूरी मिलती है।
हेल्प अस ग्रीन कम्पनी का सलाना टर्न ओभर आज सवा दो करोड़ से ज्यादा है। कम्पनी का बिजनेस कानपुर, कन्नौज उन्नाव के अलावा दूसरे शहरों में भी फ़ैल रहा है।
29 मंदिरों से रोज 800 किलो बेकार फूल इकट्ठा करती है, उन्हें अगरबत्तियों और जैविक वर्मिकंपोस्ट में बदलती है, पहले हमारी टीम में दो लोग थे। आज 9 लोग हो चुके है। हमारी कम्पनी को आईआईटी से 4 करोड़ से ज्यादा का आर्डर मिला है।