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सर्वोच्च न्यायालय में जज विवाद: आखिर इस मर्ज की दवा क्या है!

raghvendra
Published on: 19 Jan 2018 12:51 PM IST
सर्वोच्च न्यायालय में जज विवाद: आखिर इस मर्ज की दवा क्या है!
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अनुराग शुक्ला

लखनऊ: सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह से चार जजों ने बगावत का बिगुल फूंका उससे सारा देश सकते में आ गया। वैसे तो यह पहला मामला नहीं है पर हां यह पहला मौका इसलिए जरूर है कि स्वर उठाने वाले सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जज हैं। इससे पहले जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री को 20 भ्रष्ट जजों की सूची भेजी थी। उन्होंने सर्वोच्च अदालत के सात न्यायाधीशों को एससी-एसटी एक्ट के तहत पांच साल की सजा सुना दी थी। न्यायाधीश दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए 75 सांसदों के पत्र की कहानी अभी पुरानी नहीं पड़ी है।

उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त के नाम के चयन के मामले में सर्वोच्च अदालत को गलत जानकारी देकर मनमाफिक फैसले करवाने के खिलाफ उत्तर प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड को भारत के प्रधान न्यायाधीश को लंबा खत लिखना पड़ा। देश के कानून मंत्री रहे शांतिभूषण ने हलफनामा दाखिल कर कहा कि 16 न्यायाधीश ठीक नहीं हैं। इस सबके बीच सबसे खास बात यह भी है कि इस बार उंगली चीफ जस्टिस आफ इंडिया पर उठ रही है। चीफ जस्टिस के कामकाज के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने तो याचिका दायर कर दी है। ‘अपना भारत’ से एक्सक्लूसिव बातचीत में प्रशांत भूषण ने कहा, ‘यह बहुत ही गंभीर मामला है। अब उंगलियां अगर सीधे चीफ जस्टिस आफ इंडिया की तरफ उठी हैं तो इसका समाधान होना चाहिए। हमने इसीलिए शिकायत की है। हम चाहते हैं कि इस शिकायत की निष्पक्ष जांच हो जिससे न्यायपालिका पर लोगों का विश्वास बना रहे।’

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कैंपेन फार जुडीशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफाम्र्स (सीजार) एक्जीक्यूटिव कमेटी की सदस्य अंजलि भारद्वाज के मुताबिक अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायत हो तो चीफ जस्टिस के यहां सुनवाई हो सकती है पर खुद चीफ जस्टिसके खिलाफ शिकायत का कोई तंत्र ही नहीं है। कोई जरूरी नहीं कि यह सिस्टम बाहर का हो। यह अंदर से भी बन सकता है। न्यायपालिका में सबसे बड़ी जरूरत पारदॢशता की है। अंजलि के मुताबिक कोई तय प्रक्रिया न होने की वजह से हमने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत उनके बाद के सबसे वरिष्ठ पांच जजों की बेंच से की है। उनके मुताबिक सबसे पहले जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता होनी चाहिए। जजों की नियुक्ति के मेमोरेन्डम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) यानी नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में कोई जानकारी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहज न्यायपालिका भी आती है पर जजों की नियुक्ति, मेडिकल एक्सपेंस, जजों के आपस के पत्र व्यवहार की सूचना आदि के बारे में कोई भी जानकारी नहीं दी जाती है।

न्यायमूर्ति डीपी सिंह ने कहा कि आपका अनुभव न्याय नहीं है। कानून जो कहता है वह न्याय है, संविधान जो कहता है न्याय है। कोर्ट में बैठकर सारे रिश्ते सारे नाते भूल जाइए। कोर्ट से बाहर आप सबके जैसे हैं लेकिन गरिमा को बरकरार रखते हुए। उन्होंने कहाकि यदि पारदर्शिता के लिए अखंडता के लिए बोलना पड़े तो इसमें क्या गलत है। उन्होंने कहा कि विरोध न करना भी गलत है, आप विरोध क्यों नहीं करेंगे। अगर आप हर मामले के लिए कोर्ट जाएंगे तो न्यायाधीश कितने फैसले सुनाएंगे। वहां तो अम्बार लगता जाएगा। अन्य देशों में हजारों लोग सडक़ पर उतरकर विरोध जताते हैं। और अपनी जायज मांग रखते हैं। अपने अधिकारों को बहाल करवाते हैं।

कुछ संविधानविद कहते हैं कि जजों की बगावत ने न्यायपालिका का सिर झुका दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के सीनियर वकील आई.बी. सिंह कहते हैं कि इन चार जजों ने जो प्रेस में इंटरव्यू दिया है वह ज्यूडीशियल सिस्टम का मर्डर है। न्याय व्यवस्था की इतनी बदनामी कभी नहीं हुई। कोई भी न्यायाधीश कौन होता है कि वह यह तय करे कि वह कौन से मुकदमे सुनेगा और कौन से नहीं। न्यायपीठ पर बैठे व्यक्ति का काम होता है कि उसे जो भी मुकदमा मिले उसे वह निॢवकार भाव से सुने और न्याय दे।

इन न्यायाधीशों ने ‘न्याय होते दिखना भी चाहिए’ की अवधारणा की हत्या भी कर दी। वे कहते हैं कि अब जज न्यायिक काम से ज्यादा प्रशासनिक काम करने लगे हैं। अब जजों को सत्ता की लत लग गई है। उनका दावा है कि अब लोग न्यायपालिका से दूर हो रहे हैं। कहते हैं कि साल 2011 में जितने मुकदमे दर्ज हुए थे उससे कम 2016 में हुए है। वे कहते हैं कि मुकदमों का अंबार इसलिए लगा है कि जज खुद ही मुकदमा लटका रहे हैं।

साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित

राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की साल 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे। इनमें सर्वोच्च न्यायालय में 66,713, उच्च न्यायालयों में 49,57,833 और निचली अदालतों में 2,75,84,617 मुकदमे लंबित थे। 2016 के अंत तक अलग-अलग उच्च न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों की तादाद करीब 54 लाख है। बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षों में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी।

जजों का टोटा

सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल प्रधान न्यायाधीश समेत 31 पद स्वीकृत हैं। इनमें से छह पद खाली हैं। इस साल छह जज रिटायर होंगे। एक मार्च को जस्टिस अमिताव रॉय और 4 मई को जस्टिस आर.के.अग्रवाल रिटायर हो जाएंगे। मतलब यह कि मई तक कुल आठ पद खाली हो जाएंगे। इसके बाद जस्टिस जे.चेलामेश्वर 22 जून को, जस्टिस ए.के.गोयल 6 जुलाई को, प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को, जस्टिस कुरियन जोसेफ 29 नवंबर को और जस्टिस मदन बी लोकुर 30 दिसंबर को रिटायर होंगे।

जजों की नियुक्ति पर रस्साकशी

जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका में रस्साकशी लगातार जारी है। एनजेएसी और कोलेजिएम के मुद्दे पर विवाद वैसे का वैसा ही है। जजों की नियुक्ति के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर को भी अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है। 1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में न्यायपालिका की राय को सर्वोच्चता देने की बात कही। इससे पहले संविधान में यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। अनुच्छेद 124 और 217 में राष्ट्रपति से जरूर यह अपेक्षा की गई थी कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय देश के मुख्य न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वहां के राज्यपाल से भी मशविरा करें।

क्यों है मुकदमों का अंबार

देश की अदालतों में ज्यादातर स्वत्ववाद यानी टाइटिल सूट नीलामी की प्रक्रिया को चुनौती देने को लेकर है। निचली अदालतों में जाली दस्तावेजों की जांच करने की प्रक्रिया बहुत लंबी और उबाऊ है। लिहाजा कानून के साथ खिलवाड़ करने और सुनवाई लटकाने वालों को एक सुनहरा मौका मिल जाता है। देशभर की अदालतों में लंबित करीब 3.14 करोड़ मुकदमों में से 46 फीसदी सरकार के हैं। संवैधानिक विशेषज्ञ अखिलेश कालरा के मुताबिक मुकदमों के अंबार के लिए बार, बेंच और सरकार सब दोषी हैं। निचली अदालतों की बदहाली तो सबके सामने है। नायब तहसीलदार के पास भी जीप होती है पर तकनीकी तौर पर मुंसिफ मजिस्ट्रेट, एजीडे, सिविल जज को तो सरकार ने कोई सुविधा नहीं दी है। ऐसे में पूरे वातावरण में ही बदलाव आएगा तो स्थिति सुधरेगी।

क्या हो सकते हैं उपाय

सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज बी.सुदर्शन रेड्डी ने एक बार कहा था कि उच्च न्यायालयों की खंडपीठ की तर्ज पर सर्वोच्च न्यायालय की भी खंडपीठ होनी चाहिए। उन्होंने जोर दिया था कि अदालतों का आधुनिकीकरण बहुत जरूरी है। फर्जी दस्तावेजों की जांच के लिए प्रयोगशालाएं स्थापित हों तथा मुकदमे से जुड़े सभी दस्तावेजों का डिजिटलीकरण हो। कुछ जानकारों का मानना है कि जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ानी चाहिए। इजराइल, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 साल के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिए कोई आयु सीमा तय नहीं है। भारत में ही हाईकोर्ट जजों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 वर्ष तथा सुप्रीम कोर्ट में 65 वर्ष है।

24 हाईकोर्ट में 9 जगह मुख्य न्यायाधीशों के पद खाली

देश के 24 हाईकोर्ट में 9 हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं। दिल्ली, बॉम्बे, कलकता, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल और मणिपुर में हाईकोर्ट में भी कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश से काम चल रहा है। इस साल मई तक जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट और त्रिपुरा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रिटायर हो जाएंगे।

देश के 24 हाईकोर्ट में जजों के कुल 1079 पद हैं। इनमें से 398 खाली हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच मिलाकर) में जजों के कुल 160 पद हैं। जजों की यह संख्या इलाहाबाद स्थित मुख्य पीठ और लखनऊ बेंच दोनों को मिलाकर है। फिलहाल दोनों जगह कुल 90 जज ही हैं जिनमें से 22 इस साल रिटायर हो जाएंगे। दिल्ली हाईकोर्ट में जजों के कुल 60 पद स्वीकृत हैं और इनमें से 23 खाली हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट में 72 पद हैं लेकिन तैनात सिर्फ 39 जज हैं। कर्नाटक हाईकोर्ट में कुल 62 पद हैं,लेकिन 37 जज ही काम कर रहे हैं।

जजों के लिए चार्टर

सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ द्वारा 1997 को एक चार्टर स्वीकार किया गया था जिसे रिस्टेटमेंट ऑफ वेल्यूज ऑफ जूडिशियल लाइफ कहा गया। इसे न्यायाधीशों पर निगरानी के लिए एक गाइड के रूप में माना गया। यह न्याय के प्रशासन की निष्पक्षता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मजबूती और सम्मान के लिए आवश्यक माना गया।

  • न्याय केवल किया नहीं जाना चाहिए बल्कि न्याय किया गया,यह दिखना भी चाहिए।
  • न्यायपालिका की निष्पक्षता में लोगों के विश्वास को बनाए रखने के लिए उच्च न्याय व्यवस्था के सदस्यों का आचरण और व्यवहार उसके अनुरूप होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को व्यक्तिगत या आधिकारिक रूप से कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे इस सोच को ठेस पहुंचती हो।
  • किसी न्यायाधीश को किसी संस्था, एसोसिएशन, क्लब या आफिस का चुनाव नहीं लडऩा चाहिए। न्यायाधीश को किसी ऐसी सोसायटी या आफिस में नहीं चुना जाना चाहिए जिसका संबंध विधि से न हो।
  • किसी भी न्यायाधीश को बार के व्यक्तिगत सदस्यों या एसोसिएशन से निकट संबंधों से बचना चाहिए, खासकर उन लोगों से जो उसी कोर्ट में प्रैक्टिस करते हों।
  • एक न्यायाधीश को अपने निकटतम परिवार के सदस्यों जैसे पत्नी, पुत्र, बेटी, दामाद, बहू या निकटतम संबंधी को अनुमति नहीं देनी चाहिए कि वह बार के सदस्य के रूप में उनके सामने पेश हो या किसी भी रूप में उनके सम्मुख आने वाले प्रकरण से संबद्ध हो।
  • किसी न्यायाधीश को एक न्यायाधीश के रूप में उन्हें दिये गए परिसर या सुविधाओं के इस्तेमाल की अनुमति अपने परिवार के उस किसी व्यक्ति को नहीं देनी चाहिए जो किसी बार का सदस्य हो।
  • एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा बरकरार रखने के लिए दूरी बना कर रखनी चाहिए।
  • एक न्यायाधीश को किसी ऐसे मामले की सुनवाई या निर्णय नहीं करना चाहिए जिससे उनके परिवार का सदस्य या निकट संबंधी जुड़ा हुआ हो।
  • एक न्यायाधीश को किसी भी राजनीतिक या सार्वजनिक मामले पर सार्वजनिक बहस में अपने विचार नहीं व्यक्त करने चाहिए या ऐसे विषयों पर सार्वजनिक राय नहीं देनी चाहिए जो कि उनके समक्ष न्यायिक प्रक्रिया के अधीन लंबित हों।
  • एक न्यायाधीश से अपेक्षा की जाती है कि उनके फैसले ही उनकी आवाज बनें। उन्हें मीडिया को कोई साक्षात्कार नहीं देना चाहिए।
  • एक न्यायाधीश को अपने मित्रों, निकट संबंधियों या परिवार के सदस्यों के अलावा किसी से भी कोई भेंट उपहार स्वीकार न करने की अपेक्षा की जाती है।
  • एक न्यायाधीश को ऐसे किसी मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए जिसमें किसी कंपनी में उसके शेयर हों। जब तक कि उसने अपने हितों की घोषणा करके उठाए गए निर्णयाधीन मामले और उनके सुनवाई करने पर किसी ने कोई आपत्ति न उठाई हो।
  • एक जज को शेयर, स्टाक या इस तरह के अन्य मामलों में सट्टïेबाजी नहीं करनी चाहिए।
  • एक न्यायाधीश को स्वयं या किसी व्यक्ति के साथ मिलकर किसी कारोबार या व्यापार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं जुडऩा चाहिए।
  • एक न्यायाधीश को किसी भी प्रकार का फंड न तो मांगना चाहिए और न स्वीकार करना चाहिए। उसे किसी ऐसे अभियान से खुद को नहीं जोडऩा चाहिए।
  • एक न्यायाधीश को हमेशा इस बात के लिए सतर्क रहना चाहिए कि वह जनता की निगाह में है। उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जो कि उनके पद की गरिमा के अनुकूल न हो या जो जनता में उनके पद की गरिमा गिराए।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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