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सनातन धर्म की रक्षा के लिए बने अखाड़े
इस समय देश और दुनिया में सिर्फ एक नाम गूंज रहा है और वो है कुंभ का। कुंभ को विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन या मेला माना जाता है। इतनी बड़ी संख्या में सिर्फ हज के दौरान ही मक्का में मानव समुदाय इकट्ठा होता है।
प्रयागराज: इस समय देश और दुनिया में सिर्फ एक नाम गूंज रहा है और वो है कुंभ का। कुंभ को विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन या मेला माना जाता है। इतनी बड़ी संख्या में सिर्फ हज के दौरान ही मक्का में मानव समुदाय इकट्ठा होता है। कुंभ लोगों को जोड़ने का एक माध्यम है। इतिहासकारों का कहना है कि कुंभ पर्व डेढ़ से ढाई हजार साल पहले शुरू हुआ था। कुंभ का प्रथम लिखित प्रमाण बौद्ध यात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का वर्णन किया गया है। कुंभ को लेकर लोगों के दिलोदिमाग में तरह-तरह के सवाल उमड़ते हैं जिनका जवाब जानना जरूरी है।
अखाड़ा नाम लेते ही दिमाग में एक अलग छवि उभरती है। वह छवि होती है पुलपुली जमीन पर मिट्टी में सने पहलवान एक-दूसरे पर कुश्ती के दांव आजमाते हुए। हमारे देश में इसकी पुरानी परंपरा रही है। साधु समाज में वही परंपरा दूसरे रूप में आई। इसकी शुरुआत आदि शंकराचार्य ने उस समय की जब सनातन धर्म पर विधर्मी शक्तियां जोर आजमाइश कर रही थीं। शंकराचार्य ने तभी शारीरिक रूप से बलिष्ठ साधुओं को एकत्र कर सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखाड़ा बनाया।
शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा
सधुक्कड़ी भाषा में अखाड़ा उसे कहते हैं जहां साधुओं का जमावड़ा रहता है। सीधे सपाट शब्दों में कहें तो अखाड़े शंकराचार्य की सेना के रूप में थे, जिन्हें धर्म की रक्षा के लिए तैनात किया गया था। एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला वाले सिद्धांत पर इन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा दी गई। व्यवस्था बनाई गई कि शंकराचार्य या उनके द्वारा नामित आचार्य जब कभी सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन अखाड़ों को शस्त्र उठाने का आदेश देंगे, यह अपना काम करेंगे। यानी सेना जैसा आचरण कि सेनापति या मुखिया के आदेश के बिना जैसे अपने विवेक से सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, अखाड़े भी मनमाना निर्णय नहीं ले सकते।
बाद में संत बढ़ते गए, उनके संप्रदाय बढ़ते गए, इनमें शैव और वैष्णव विवाद होता गया। इनकी संख्या में उसी तरह इजाफा होता गया। इन दिनों 13 अखाड़े हैं। इनमें शैवों के सात, वैष्णवों या वैरागियों के तीन और उदासीनों के तीन अखाड़े हैं। ये अखाड़े कुंभ मेले के अवसर पर कुंभ स्थलों पर डेरा डालते हैं और शंकराचार्यों व अपने-अपने अखाड़े के महामंडलेश्वरों की अगुवाई में विशेष स्नान पर्वों पर स्नान करते हैं। इसी को शाही स्नान कहा जाता है। शैव अखाड़ों मे दशनामी, नागा संत, शाक्त आदि उप संप्रदाय भी होते हैं।
1954 में हुआ अखाड़ा परिषद का गठन
1954 के प्रयाग कुंभ मेले में स्नान को लेकर भगदड़ मची। बहुत लोग मारे गए। उसी समय अखाड़ों ने मिलकर अखाड़ा परिषद का गठन किया जिसे अब अखिल भारतीय अखाडा़ परिषद कहा जाता है। इनका एक अध्यक्ष और एक महामंत्री होता है। व्यवस्था यह थी कि अगर अध्यक्ष शैव अखाड़े से होगा तो महामंत्री वैष्णव अखाड़े से, लेकिन समय-समय पर यह व्यवस्था भंग होती रही। जैसे कि इस समय है। इस समय शैव अखाड़े से ही अध्यक्ष भी हैं और महामंत्री भी वहीं से है। इसका भी विवाद चल रहा है।
बड़े पद के लिए बड़ा खर्चा
अखाड़ों के मुखिया के रूप में महंत, श्रीमहंत जैसे पद होते हैं। इनके ऊपर महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर के पद होते हैं। शास्त्रीय पांडित्य और योग्यतानुसार इनको पद दिए जाते हैं। यह परंपरा 18वीं शताब्दी में शुरू हुई थी। महामंडलेश्वर प्राय: बड़े यानी पैसे वाले संत बनाए जाते हैं जो अखाड़ों का खर्च भी उठाते हैं। समाज में उनका सम्मान भी ज्यादा होता है। एक एक अखाड़े में कई महामंडलेश्वर हो सकते हैं पर आचार्य महामंडलेश्वर का पद एक ही होता है। अखाड़ों से जुड़े संतों के अनुसार 2001 तक अखाड़ों में 100 के करीब महामंडलेश्वर थे। 2013 के प्रयाग कुंभ में यह संख्या 300 तक पहुंच गई थी। ऐसे ही वैष्णव अखाड़ों के महामंडलेश्वरों की संख्या 2013 के प्रयाग कुंभ में 700 तक बताई गई है।
शैव अखाड़े
इनमें प्रमुख रूप से सात अखाड़े हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, दारागंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, दारागंज, इलाहाबाद
3-श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, हनुमान घाट, वाराणसी
4-श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा, दशाश्वमेध घाट, वाराणसी
5-श्री पंच अटल अखाड़ा, चौक, वाराणसी
6-श्री पंचदशनाम अग्नि अखाड़ा, गिरिनगर, भवनाथ, जूनागढ़, गुजरात
7-श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती, त्रयंबकेश्वर, नासिक, महाराष्ट्र
वैष्णव या वैरागी अखाड़े
वैष्णव या वैरागी संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं जिन्हें अनी अखाड़ा भी कहा जाता है। भगवान विष्णु इनके इष्ट हैं। इनमें वल्लभ, निम्बार्क, गौड़ीय, सखी संप्रदाय, रामानंद, रामानुज ,माध्व आदि उप संप्रदाय हैं।
1-श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी, अयोध्या
2-श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा, धीर समीर मंदिर बंशीवट,वृंदावन, मथुरा
3-श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, शामला जी खाक चौक मंदिर, सांभरकांठा, गुजरात
उदासीन संप्रदाय
उदासीन संप्रदाय के संतों के अखाड़ों में सिख संत भी शामिल हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन, कृष्णनगर, कीडगंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन, कनखल, हरिद्वार
3-श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल, हरिद्वार
धर्मं और विज्ञान में कुंभ
सनातन हिंदू धर्म में कुंभ मेले का बहुत अत्यंत महत्व है। वेदज्ञों के मुताबिक यही एकमात्र मेला, त्योहार और उत्सव है जिसका आनंद सभी हिंदुओं को मिलकर मनाना चाहिए। कुंभ मेले के आयोजन के पीछे भी विज्ञान है। आपको बता दें, जब-जब कुंभ की शुरुआत होती है सूर्य पर हो रहे विस्फोट बढ़ जाते हैं। ये प्रमाणिक भी है कि प्रत्येक ग्यारह से बारह वर्ष के बीच सूर्य पर परिवर्तन होते हैं। वैज्ञानिकों अनुसार भी कुंभ और बृहस्पति के योग से धरती का जल पहले की अपेक्षा और ज्यादा साफ हो जाता है। कुंभ हर तीन वर्ष में एक बार चार अलग-अलग स्थानों पर आयोजित होता है।
अर्ध कुंभ मेला प्रत्येक छह वर्ष में हरिद्वार और प्रयाग में आयोजित होता है जबकि पूर्ण कुंभ बारह वर्ष बाद प्रयाग में आयोजित होता है। इसी
तरह बारह पूर्ण कुंभ के बाद महाकुंभ 144 वर्ष बाद प्रयाग में आयोजित होता है।
कुंभ कथा
कुंभ का अर्थ होता है घड़ा या कलश। माना जाता है कि संमुद्र मंथन से जो अमृत कलश निकला था उस कलश से देवता और राक्षसों के युद्ध के दौरान धरती पर अमृत छलक गया था। जहां-जहां अमृत की बूंद गिरी वहां प्रत्येक बारह साल में एक बार कुंभ का आयोजन किया जाता है। बारह वर्ष में आयोजित होने वाले इस कुंभ को महाकुंभ कहा जाता है।
कुंभ आयोजन के स्थान
हिंदू धर्मग्रंथ के अनुसार इंद्र के बेटे जयंत के घड़े से अमृत की बंूदें भारत में चार जगहों पर गिरीं- हरिद्वार में गंगा नदी में, उज्जैन में
शिप्रा नदी में, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल पर। धार्मिक विश्वास के अनुसार कुंभ में
श्रद्धापूर्वक स्नान करने वाले लोगों के सभी पाप कट जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषीय महत्व
कुंभ मेला और ग्रहों का आपस में गहरा संबंध है। दरअसल, कुंभ का मेला तभी आयोजित होता है जबकि ग्रहों की वैसी ही स्थिति निर्मित हो रही हो जैसी अमृत छलकने के दौरान हुई थी। मान्यता है कि बंूद गिरने के दौरान अमृत और अमृत कलश की रक्षा करने में सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चंद्र ने कलश की प्रसवण होने से, गुरु ने अपहरण होने और शनि ने देवेंद्र के भय से रक्षा की। सूर्य ने अमृत कलश को फूटने से बचाया। इसीलिए पुराणिकों और ज्योतिषियों के अनुसार जिस वर्ष जिस राशि में सूर्य, चंद्र और बृहस्पति या शनि का संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशि के योग में जहां-जहां अमृत बूंद गिरी थी वहां कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
चार नहीं, बारह कुंभ
मान्यता है कि अमृत कलश की प्राप्ति हेतु देवता और राक्षसों में बारह दिन तक निरंतर युद्ध चला था। हिंदू पंचांग के अनुसार देवताओं के बारह दिन अर्थात मनुष्यों के बारह वर्ष माने गए हैं। इसीलिए कुंभ का आयोजन भी प्रत्येक बारह वर्ष में ही होता है। मान्यता यह भी है कि कुंभ भी बारह होते हैं जिनमें से चार का आयोजन धरती पर होता है शेष आठ का देवलोक में। इसी मान्यता अनुसार प्रत्येक 144 वर्ष बाद महाकुंभ का आयोजन होता है जिसका महत्व अन्य कुंभों की अपेक्षा और बढ़ जाता है।
क्या होती है पेशवाई
कुंभ क्षेत्र में आगमन के समय अखाड़े पेशवाई निकालते हैं। पेशवाई का अर्थ होता है शोभायात्रा। पेशवाई में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में भी शाही खर्च होता है। इसमें युद्ध कौशल की भी प्रस्तुति होती है। पेशवाई में सबसे पहले गुरु महाराज अखाड़े के आचार्य संत, फिर देवता, फिर निशान, इसके बाद डंका, फिर महामंडलेश्वर एवं अंत में संन्यासी चलते हैं। इन पेशवाइयों में अस्त्र-शस्त्रों के प्रदर्शन के साथ ही ऊंट, घोड़े, हाथी भी संतों की सवारी लिए चलते हैं। इस दौरान नागा संन्यासी युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते चलते हैं।
माना जाता है कि पेशवाई में भागीदार संतों के दर्शनमात्र से ही गंगा स्नान के बराबर पुण्य प्राप्त हो जाता है। माघ पूर्णिमा का पर्व 12 वर्ष के बाद एक अनूठे योग में होने से भी इसका माहात्म्य बढ़ गया है।
अखाड़े पहले प्रयाग में नगर प्रवेश करते हैं और उसके कुछ दिन बाद जब मेला क्षेत्र में अखाड़ों को भूमि आवंटित हो जाती है तब पूरी सज-धज के साथ पेशवाई जुलूस निकलते हैं। पेशवाई जुलूस अखाड़े के कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रतीक हैं। हर अखाड़े का अपना एक अलग पेशवाई जुलूस निकलता है। यह जुलूस कुंभ का पहला आकर्षण होता है। पहले के जमाने में इसे शोभायात्रा कहा जाता था। बाद में मुगलों के समय में इसे पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा। पेशवाई हो जाने के बाद अखाड़ों के बसने की प्रक्रिया शुरू होती है।
पेशवाई के निकलने का इतिहास कितना पुराना है, इसका कोई सटीक समय नहीं ज्ञात है। लेकिन इस परंपरा की शुरुआत उस समय हुई थी जब साधु-संत कहीं जाते थे तो वहां के सम्मानित लोग साधु-संतों की अगवानी करते थे। किसी समय में ऐसा हुआ होगा कि अखाड़ों ने शोभायात्रा आदि निकालना शुरू किया होगा और बाद में उसे पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा होगा।
कितना बदल गई पेशवाई
निर्मोही अखाड़े के श्री महंत राजेन्द्र दास के मुताबिक पहले साधुओं की मंडली मेला क्षेत्र से 40 किमी दूरी डेरा डालती थी। पहले साधु समूह में
आते थे। इसे शोभा यात्रा कहा जाता था। बाद में पेशवाई जुलूस कहा जाने लगा। उस समय आस-पास के लोग स्वागत करते थे। आधुनिक युग जब आया तब से संत-महात्मा गाडिय़ों एवं रथों में सवार होकर आने लगे। पहले यह सब कुछ नहीं हुआ करता था। आज काफी विकास हो गया है। काफी सुविधाएं बढ़ गयी हैं। इसलिए अब पेशवाई जुलूस काफी साज-सज्जा के साथ निकलता है। संन्यासियों के अखाड़े थोड़ा पहले अपना पेशवाई जुलूस निकालते हैं। उसके बाद बैरागियों के अखाड़े पेशवाई जुलूस निकालते हैं।
जानिए कैसे जन्मा शाही स्नान
संन्यासी योद्धाओं के कहने पर पृथ्वीराज चौहान ने राष्ट्र ध्वज और धर्म ध्वज को अलग कर दिया। धर्म ध्वज को ज्यादा संवेदनशील माना गया और रक्षा के लिए इसे संन्यासियों को सौंप दिया गया। जबकि राष्ट्र ध्वज को राजा ने अपने पास रखा। संन्यासियों ने धर्म ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया। धर्म ध्वजा की रक्षा किए जाने के सम्मान में राजाओं ने अपनी सम्पदा एक दिन के लिए इनके हवाले कर दी और कुंभ में सबसे पहले स्नान करने का अधिकार दिया। इसी के चलते इस स्नान को ‘शाही’ स्नान नाम दिया गया।
राजा अपनी सम्पदा को देकर साबित करता था कि राज्य में संन्यासियों व बैरागियों का स्थान बहुत ऊंचा है। उनके सामने राजा की अपनी हैसियत भी कुछ नहीं है। बाद के समय में संतों के लिए शाही स्नान में शामिल होना एक महत्वपूर्ण घटना हो गया।
शाही स्नान किसी भी कुंभ का सबसे बड़ा आकर्षण बनते हैं। अखाड़ों से जुड़े संत सोने-चांदी की पालकियों, रथों, हाथी-घोड़ों पर सवार होकर स्नान के लिए जाते हैं।
कुंभ में खूनी संघर्ष
वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई। वर्ष 1760 में शैव संन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ। वर्ष 1796 में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। आपको हैरत होगी कि अवध के नवाबों की सेना में 10 हजार गोसाईं सैनिक भी मौजूद थे।