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परम्परा निभाती रामलीलाएं

raghvendra
Published on: 18 Oct 2018 2:00 PM IST
परम्परा निभाती रामलीलाएं
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लखनऊ: दशहरा उत्सव में रामलीला का महत्वपूर्ण स्थान है। रामलीला यानी राम, सीता और लक्ष्मण के जीवन का वर्णन किया। देश के विभिन्न हिस्सों में रामलीला अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। सिर्फ भारत ही नहीं, दक्षिण-पूर्व एशिया में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। इसके भी अलग-अलग स्वरूप हैं। मुखौटा रामलीला मुख्यत: इंडोनेशिया, मलेशिया कंपूचिया और म्यांमार में मंचित होती है। इसमें कलाकार विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। एक अन्य प्रकार की रामलीला है ‘छाया रामलीला’ जो शैडो यानी छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाती है। ऐसी रामलीला का प्रदर्शन पहले तिब्बत और मंगोलिया में भी होता था। समूचे उत्तर भारत में आज रामलीला का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसके जनक गोस्वामी तुलसीदास ही माने जाते हैं, और यह भी सच है कि इन सभी रामलीलाओं में रामचरितमानस का गायन, उसके संवाद और प्रसंगों की एक तरह से प्रमुखता रहती है। रामलीला में दर्शकों का जितना संपूर्ण सहयोग होता है उतना और किसी भी नाट्यरूप में मिल पाना कठिन ही है। यूपी में कई जगह तो सैकड़ों साल से रामलीला मंचन की परम्परा चली आ रही है।

प्राचीन परम्परा को संजोए है रामनगर की रामलीला

धर्म और संस्कृति की नगरी काशी अपने अंदर कई परंपराओं को समेटे हुए है। यहां हर त्यौहार पर अलग रंग दिखता है। इसकी एक बानगी देखने को मिलती है यहां की रामलीला में। जो आज भी अपनी प्राचीन परंपरा को समेटे है। वैसे तो पूरे शहर में कई जगह पर रामलीला का आयोजन होता है लेकिन गंगा पार बसे रामनगर की रामलीला की बात ही कुछ और है। माना जाता है कि रामनगर की रामलीला की शुरुआत काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह (1796-1835) के समय में हुई थी।

रामनगर की रामलीला रंगकर्म नहीं बल्कि संपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है। इसके विधि-विधान सावन कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को प्रथम गणेश पूजन को चयनित पंच स्वरूपों की पूजा अर्चना कर प्रशिक्षण से शुरू हो जाते हैं। लगभग दो किमी के दायरे में होने वाली इस लीला को देखने के लिए सात समंदर पार से लोग आते हैं। शाम होते ही पूरा इलाका लोगों से पट जाता है। लीला के पात्रों के चयन बेहद बारीकी से होता है।

लीला के पांच स्वरूपों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता समेत प्रमुख पात्र आज भी ब्राह्मण जाति के ही होते हैं। ये सभी 16 साल से कम उम्र के होते हैं। चेहरे की सुन्दरता, आवाज की सुस्पष्टता और मधुरता का संगम ही मुख्य पात्र के लिए योग्य माना जाता है। चूंकि यहां लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता इसलिए तेज बोलने की क्षमता जांचने के लिए संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण कराया जाता है। पात्रों के चयन पर अंतिम स्वीकृति परम्परागत ढंग से कुंवर अनंत नारायण सिंह देते हैं। मुख्य पात्र तैयारी के बाद संन्यासी जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। घर-परिवार से मिलने की मनाही होती हैं। यहां प्रशिक्षण का काम दो व्यास कराते हैं।

पूर्व बनारस रियासत के महाराजाओं और उनकी विरासत संभाल रहे उत्तराधिकारियों ने आज भी रामलीला का प्राचीन स्वरूप बनाए रखा है। पात्रों की सज्जा-वेशभूषा, संवाद-मंच आदि सभी स्थलों पर गैस और तीसी के तेल की रोशनी, पात्रों की मुख्य सज्जा का विशिष्ट रूप, संवाद प्रस्तुति के ढंग और लीला का अनुशासन ज्यों का त्यों बरकरार है। यहां की रामलीला में आज भी बिजली की रोशनी एवं लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता और न ही भडक़ीले वस्त्र तथा आभूषण प्रयुक्त होते हैं।

(प्रस्तुति - आशुतोष सिंह)

142 वर्ष से होता आ रहा है कानपुर के परेड मैदान में मंचन

कानपुर की सबसे बड़ी और पुरानी रामलीला कमेटी का इतिहास अंग्रेजों के समय का है। सन 1877 में कानुपर वासियों ने शहर के परेड मैदान में रामलीला कराने का मन बनाया था। अंग्रेज हुकूमत ने भी इसकी अनुमति दे दी। जब रामलीला का मंचन हुआ तो अंग्रेज अफसर भी अपने परिवार के साथ रामलीला देखने के लिए पहुंचे। ये परम्परा आगे भी कायम रही। 1877 से लेकर 1946 तक अंग्रेज अफसर भी रामलीला कराने में सहयोग करते थे और रामलीला कमेटी के सदस्यों को चंदा मुहैया कराते थे। बताया जाता है कि 142 साल पहले पंडित प्रयाग नारायण तिवारी, लाला शिव प्रसाद खत्री, लाला फक्की लाल, राय बहादुर जैसे लोगों ने पूरे शहर से रामलीला कराने के लिए 20 रुपए चंदा इकठ्ठा किया था।

रामलीला कमेटी परेड के मंत्री कमल किशोर अग्रवाल के मुताबिक आज परेड रामलीला का बजट 42 लाख रुपए तक पहुंचता है। ये कमेटी मथुरा से कलाकारों को बुलाती है। लगभग 10 दिनों तक रामलीला का मंचन होता है और भारत मिलाप के साथ समापन होता है। रामलीला की शुरुआत राम लक्षण की सवारी निकलने के साथ होता है। इसके बाद मंच पर पहुंचने पर आरती होती है फिर रामलीला का मंचन शुरू होता है।

(प्रस्तुति - सुमित शर्मा)

साम्प्रदायिक सदभाव का संदेश देती है गोरखपुर की रामलीला

गोरखपुर में 156 वर्ष पुरानी बर्डघाट रामलीला समिति अपनी भव्यता के लिए पूर्वांचल में प्रसिद्ध है जिसमें अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार व बिहार के कलाकार प्रस्तुति देते हैं। बर्डघाट समिति की रामलीला के किरदारों और 100 वर्ष पुरानी दुर्गा पूजा समिति के मिलन के बाद ही गोरखपुर का दशहरा पूरा होता है। बर्डघाट की रामलीला स्वर्गीय कृष्ण किशोर प्रसाद के प्रयास से वर्ष 1862 में शुरू हुई थी। संरक्षक सुशील गोयल बताते हैं कि तब बमुश्किल 100 रुपये में रामलीला मंचन हो जाता था। अब बजट 2 लाख के पार पहुंच गया है। वर्ष 1940 से बसंतपुर चैराहे पर राघव-शक्ति मिलन का कार्यक्रम होता है। गोरखपुर की दूसरी सबसे पुरानी रामलीला आर्यनगर की है जो 1914 में गिरधर दास व पुरुषोत्तम दास रईस के प्रयासों से शुरू हुई थी। रामलीला के लिए जमीन इन दोनों के अलावा जाहिद अली सब्जपोश ने भी दी थी। लंबे समय तक रावण का चरित्र निभाने वाले पूर्णमासी बताते हैं कि शुरूआत में स्थानीय कलाकारों द्वारा शुरू हुई रामलीला के मंच को जगतबेला के नंद प्रसाद दुबे ने व्यापक स्वरूप दिया। कमेटी के अध्यक्ष रेवती रमण दास बताते हैं कि 50 साल पहले 500 रुपये में रामलीला हो जाती थी, अब यह खर्च 8 लाख से अधिक पहुंच चुका है। तीसरी सबसे पुरानी रामलीला विष्णुमंदिर की है। इसके अलावा राजेन्द्र नगर और धर्मशाला बाजार की रामलीला भी पूरी भव्यता से होती है।

सामाजिक समरसता का तानाबाना नजर आता है मेरठ में

मेरठ शहर की रामलीलाओं में सामाजिक समरसता का तानाबाना नजर आता है। जहां मुस्लिम कारीगर रावण, मेघनाद, कुंभकरण आदि के पुतले बनाते हैं वहीं कई मुस्लिम कलाकार मंच और पर्दे के पीछे की भूमिका सालों से निभाते आ रहे हैं। इनमें एक नाम शहर के ऐतिहासिक रामलीला मेले के पिछले 71 वर्षों से अभिन्न हिस्सा रहे मुन्ने मियां का भी है। हालांकि उम्र अधिक हो जाने के कारण अब अपनी विरासत एक मुस्लिम युवक अली अहमद को सौंपने की तैयारी में हैं।

मुन्ने मियां को इस बात का गर्व है कि वो रामलीला कलाकारों के वस्त्र तैयार करते हैं। वे कहते हैं कि यह सिर्फ कपड़े नहीं हैं बल्कि इनमें उनकी ७१ वर्षों की आस्था जुड़ी है। वे तो अपने को रामलीला का ही एक हिस्सा मानते हैं।

वहीं रामलीलाओं के लिए पुतले तैयार करने वाले कारीगर असलम का कहना है कि वे हर बार अलग तरह का पुतला बनाने की कोशिश करते हैं। पिछली बार भैसाली मैदान की रामलीला के लिए बनाए उनके द्वारा तैयार किये गये 110 फीट के पुतले लोगों को बहुत पसंद आए थे। असलम के अनुसार उनकी तरह कई मुसलमान कारीगर शहरभर की रामलीलाओं के लिए पुतले ही नहीं कांवड़ बनाने का काम भी करते हैं।

रामलीला कमेटी बदलते परिवेश के मद्देनजर दर्शकों को आकर्षित करने के लिए प्रतिवर्ष नई प्रस्तुति लेकर आती हैं। इसके लिए समितियां आयोजन पर चालीस से नब्बे लाख रुपये तक खर्च करती हैं। हाल के वर्षों में लोगों का रुझान रामलीला के प्रति खासा बढ़ा है। इसके चलते अब दिल्ली, मथुरा और मुंबई तक के कलाकार मेरठ की रामलीलाओं में दिखने लगे हैं। समय के साथ-साथ रामलीलाएं हाईटेक भी हो गई हैं। शहर के ऐतिहासिक भैसाली मैदान पर होने वाली रामलीला के मंच के पृष्ठ में 30 फुट ऊंचे और 60 फुट चौड़े एलईडी स्क्रीन पर रामलीला के दृश्यों का वीडियो प्रेजेंटेंशन किया जाता है।

(प्रस्तुति - सुशील कुमार)

लालटेन की रोशनी में शुरू हुई थी सहजौरा की रामलीला

गोंडा के परसपुर क्षेत्र के सहजौरा गांव में रामलीला की शुरुआत 1985 में की गई थी। गांव में बिजली न होने से लालटेन की रोशनी व कंडे पर मिट्टी का तेल डालकर उसी की रोशनी में रामलीला का मंचन किया जाता था और दशहरा के दिन गांव में झांकी निकाली जाती थी। उस वक्त रामलीला कमेटी की कमान अध्यापक प्रताप नरायन मिश्र, सत्य नरायन पांडेय, भवानी पांडेय, लक्ष्मी नरायन पांडेय व नकछेद पांडेय ने संभाली थी। बाद में रामलीला कमेटी की जिम्मेदारी प्रमोद मिश्र, आनंद पांडेय, तारकेश्वर चौबे आदि लोगों ने संभाली। रामलीला में महिलाओं की भूमिका निभाने के लिए बाहर से कलाकार बुलाई जाती हैं जबकि पुरुष पात्रों की भूमिका स्थानीय कलाकार निभाते हैं।

सहजौरा की रामलीला का मुख्य आकर्षण शोभायात्रा है। दशहरे के दिन दर्जनों ट्रैक्टर ट्रालियों में भगवान राम, लक्ष्मण, सीता, रावण व अन्य पात्रों की झांकी विभिन्न स्थानों पर घुमाई जाती है।

रामलीला कमेटी के प्रमोद मिश्र का कहना है कि पहले की रामलीला और आज की रामलीला में काफी अंतर हो गया है। पहले रामलीला की तैयारी में पूरा गांव जुटा रहता था। लोग दिन-रात एक करके रामलीला का मंचन करते थे। समय के बदलाव के साथ-साथ अब लोग भी बदल गए। अब रामलीला का मंचन मात्र तीन-चार दिनों का रह गया। दशहरे के दिन ही लोग एकत्र होते हैं।

(प्रस्तुति - तेज प्रताप सिंह)

बलरामपुर में 100 सालों से होता आ रहा है मंचन

बलरामपुर नगर क्षेत्र में होने वाली रामलीला लगभग 100 वर्ष पुरानी है। यहां भगवान प्रसाद गुप्ता ने रामलीला का मंचन शुरू कराया था, और उसका नाम ‘श्री 108 सत्य प्राचीरिणी’ रखा था। जब यहां रामलीला का मंचन होता था तो दूर दराज से लोग रजाई गद्दों के साथ रामलीला मैदान आते थे और पूरी रात मंचन का आनंद लेते थे। रामलीला कमेटी के पास अपना निजी भवन, मैदान और कुछ दुकानें भी हैं जिनको किराए पर देकर रामलीला में आने वाले खर्च को वहन किया जाता है।

श्री 108 सत्य प्राचीरिणी कमेटी के अध्यक्ष राजकुमार श्रीवास्तव ने बताया कि करीब 40 वर्ष पूर्व रामलीला कमेटी आर्थिक तंगी से गुजर रही थी, रामलीला बन्द होने के कगार पर आ चुकी थी। तब कमेटी व समाज के कुछ प्रबुद्ध लोगो ने पेशे से वकील राजकुमार जी से आग्रह किया कि आप रामलीला कमेटी की अगुवाई करें। जिसके बाद सर्वसम्मति से उन्हें कमेटी का अध्यक्ष चुना गया।

प्रथम दिन से 9 दिन तक लगातार प्रभु श्री राम के जन्म से सीता के हरण उसके बाद लंका के दहन तक की पूरी कहानी मंचन के माध्यम से उपस्थित दर्शकों और श्रद्धालुओं को दिखाया जाता है। साथ ही स्थानीय बड़े परेड ग्राउंड में करीब 100 फिट ऊंचे रावण, मेघनाथ, कुम्भकर्ण के पुतलों का दहन किया जाता है। जिसके बाद भारत मिलन का कार्यक्रम भी रामलीला ग्राउंड में सम्पन्न कराया जाता है।

(प्रस्तुति - सुशील कुमार)

देवरिया की रामलीला में शाकिर निभाते हैं सीता का चरित्र

देवरिया जिले के भागलपुर में पिछले 68 वर्षों से हो रही रामलीला गंगा जमुनी संस्कृति की मिसाल है। इसमें मुस्लिम कलाकार रामलीला के प्रसंगों का जीवंत चित्रण करते हैं। बलिया में प्रिंटिंग प्रेस संचालित करने वाले शाकिर अली सीता की भूमिका निभाते हैं। 30 वर्षीय शाकिर कहते हैं कि आंसुओं के साथ भावुक होते दर्शकों का प्रेम हमें हर साल सीता मां की भूमिका निभाने की प्रेरणा देता है। भरत का किरदार निभाने वाले अहमद अली का कहना है कि पहले तो आसपास की मुस्लिम आबादी इसमें जोर शोर से शिरकत करती थी। पहले लालटेन की रोशनी में लीला का मंचन होता था, पात्र खुद घर से साड़ी-धोती लेकर मंचन करने के लिए आते थे। रामचरित मानस की अधिकांश चौपाई जुबान पर याद रखने वाले अहमद कहते हैं कि धर्म के ठेकेदारों ने सौहार्द को बिगाड़ा है। वरना सभी धर्म प्रेम और सदभाव का ही संदेश देते हैं। रामलीला में शमशाद लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का तो मोहम्मद अली मुनि का चरित्र निभाते हैं।

(प्रस्तुति - पूर्णिमा श्रीवास्तव)

अयोध्या में अब दुर्गा पूजा की चमक ज्यादा

राम की नगरी में वैसे तो सैकड़ों वर्षों से राम लीलाओं का मंचन हो रहा है लेकिन हाल के वर्षों में दुर्गा पूजा का प्रचलन बढऩे से रामलीलाएं औपचारिकता पूरी करने के साथ अपने वजूद व पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं। पूरेेे जिले में करीब १०० जगह रामलीला का मंचन किया जा रहा है जबकि 1166 स्थानों पर दुर्गा प्रतिमा स्थापित की गईं हैं। अयोध्या में राज सदन, तुलसी स्मारक सदन, अयोध्या शोध संस्थान,चौक, साहब गंज, कोठा पारचा, हैदरगंज, फतेहगंज में प्रमुख रूप से रामलीला का मंचन होता है। चौक में रामलीला की शुरुआत वर्ष 1885 में हुई थी। इस रामलीला से जुड़े संजय रस्तोगी बताते हैं कि रामलीला का कार्यक्रम पिछले 122 सालों से लगातार जारी है। इसी तरह फतेहगंज की रामलीला 93 साल पूर्व शुरू हुई थी। इसे गल्ला व्यापार मंडल संचालित करता है।

(प्रस्तुति - नाथ बख्श सिंह)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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