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गुड़ियों को पीटकर न करें उनका अपमान, झुलाकर झूला बिखराएं मुस्कान
SANDHYA YADAV
लखनऊ: एक नई नवेली दुल्हन अपने मायके फोन करती है ख़ुशी से चिल्लाते हुए कहती है “मां, भाई या पापा को भेजो वो आ रहे हैं न मुझे लेने? मां, क्या आप भूल गईं कि गुड़िया का त्योहार आ गया है? मुझे मायके आना है.. मां आपको याद है न कि बचपन में मैं अपनी छोटी सी टोकरी में छोटी-छोटी सी प्यारी गुड़ियां बनाकर भैया के साथ चौराहे पर डालने जाया करती थी और फिर भैया अपने दोस्तों के साथ मिलकर उन गुड़ियों को तब तक पीटते थे, जब तक वो तितर-बितर नहीं हो जाती थी। इतना कहना था कि अचानक से वह रोने लगती है और यह कहकर फोन काट देती है कि “मां, मैं इस गुड़िया के त्योहार पर भी भाई के आने का इंतजार करूंगी।”
ये उस लड़की के जज्बात थे, उस लड़की की ख़ुशी थी, जिसने कभी शायद गुड़िया के त्योहार को हकीकत में समझा ही नहीं था। यह एक ऐसा त्योहार है, जिसके आते ही हर औरत फिर चाहे उसकी नई शादी हुई हो या फिर उसकी शादी को 30 साल भी बीत गए हों, आते ही चहकने सी लगती हैं जानते हैं क्यों?
सिर्फ इसलिए कि उसे एकबार फिर से उस आंगन में झूला झूलने को मिलेगा, जिसे वह ससुर से पर्दा करने के कारण नहीं झूल पाती। वह फिर से उस भाई के साथ हंसना चाहती है, जिसे वह ससुराल में खो चुकी होती है, लेकिन अगर हकीकत को समझने की कोशिश करें, तो इसका दूसरा ही पहलू नजर आता है।
क्या है वो दूसरा पहलू
त्योहार तो ख़ुशी देने का नाम है। एक लड़की जब मायके आती है, वो खुशियों के लिए आती है। पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि जिस दिन उसने इस ‘गुड़िया’ के त्योहार की हकीकत को समझ लिया, तो क्या वह उस दिन उस आंगन में कदम रखना पसंद करेगी, जहां उसे पीटा जाता है? उसी के सामने कपड़ों की बनी गुड़िया को उसका भाई तब तक पीटता है, जब तक उसके चीथड़े नहीं उड़ जाते।
जरा उस वाक्ये को याद करिए, जब एक लड़का गुड़िया को पीटता है। तब वो बेजुबान अपने मन में शायद यही कहती होगी “भाई.. मुझे मत पीटो। मैं वही गुड़िया हूं जिसे आप चोरी-छिपे अपनी चाकलेट देते हो.. पापा.. मुझे मत पीटो..मैं वही गुड़िया हूं, जिसने आपकी गोद में आखें खोली थी..” आज परंपरा के नाम पर आप मुझे पीट रहे हो।
कैसी है यह परंपरा
हां, माना कि ये एक परंपरा है कि हमेशा से इस त्योहार पर गली-मोहल्ले और चौक-चौराहों पर लोग गुड़िया को पीटते चले आ रहे हैं। पर आप जरा सोचिए कि एक ज़माने में हमारे समाज में सती प्रथा भी थी। क्यों उसे बंद कर दिया गया, इसलिए क्योंकि उससे समाज में गलत संदेश जा रहा था। तो अब क्या हुआ है लोगों को? कहां चली गई है उनकी वह आधुनिक सोच?
जिसमें वह आज बेटियों को आसमान में उड़ान भरने का हौसला तो दे रहे हैं पर ऐसे कुछ त्योहारों पर खुद ही समाज में उनकी महत्ता को दबा रहे हैं। सरेआम गली-चौराहों पर इन गुड़ियों को इतनी बेरहमी से पीटकर समाज में उनके कमजोर और बेबस अस्तित्व को दिखाने का जो गलत संदेश समाज में जा रहा है, उसकी भरपाई कौन करेगा?
वैसे भी समाज में बेटियों को उनके हक के लिए हमेशा से लड़ाई करनी पड़ी है। ऐसे में जब बड़े-बुजुर्ग ही त्योहारों पर खुद ही बेटों से गुड़ियों को पिटवाएंगे। तो लड़कों के दिमाग में अपने आप ही उनके दिमाग में लड़कियों की कमजोर छवि बनेगी ही बनेगी।
कहने को यह त्योहार भले ही गुड़िया मतलब लड़की के लिए है, पर क्या फायदा जब इसमें उनके सम्मान को ही ठेस पहुंचाई जाए। अगर आप वाकई इस त्योहार को मनाना चाहते हैं, तो इस बार कुछ ऐसा करें कि समाज की हर गुड़िया (बेटी) के चेहरे पर मुस्कान आ सके।
इस बार गली-मोहल्ले के लड़कों के हाथों से डंडे छीनकर उनके हाथों में गिफ्ट या चाकलेट पकड़ाएं लड़कों को समझाएं कि गुड़ियों (लड़कियों) की रेस्पेक्ट करें। ना कि उन्हें पीटें। ऐसा करने से न सिर्फ बेटियों को समाज में सम्मान मिलेगा बल्कि उनके लिए बढ़ रहे क्राइम को भी काफी हद तक रोका जा सकेगा। महिलाओं को चाहिए कि वह अपनी बेटियों के लिए घर में झूले डलवाएं ताकि उनकी बेटी पर मुस्कान आ सके और इस त्योहार की सार्थकता साबित हो।