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UP Election 2022: छोटे दलों के सहारे बड़े दल, देखें Newstrack की चुनावी रिपोर्ट
UP Election 2022: उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh Chunav 2022) के चुनाव में बड़े दलों के साथ-साथ तमाम छोटे दल भी अपना भविष्य तलाश रहे हैं। इन छोटे दलों की हैसियत इसी से पता चलती है कि बड़े दलों से किसी न किसी छोटे दल का सहारा लिया है।
UP Election 2022: उत्तर प्रदेश (uttar pradesh chunav 2022) के चुनाव में बड़े दलों के साथ-साथ तमाम छोटे दल भी अपना भविष्य तलाश रहे हैं। इन छोटे दलों की हैसियत इसी से पता चलती है कि बड़े दलों से किसी न किसी छोटे दल का सहारा लिया है। छोटी पार्टियां तब महत्वपूर्ण हो जाती हैं जब चुनावों में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है। इनको बटोर कर साथ लाने का मतलब है कि बड़े दलों को अपनी अकेले की ताकत पर भरोसा नहीं है या पूर्ण बहुमत के चुनावी आउटकम पर संदेह है। अब छोटे दलों के बड़े-बड़े दावों की परीक्षा की भी घड़ी है।
जातीय मतों के दम पर बड़े दलों का साथ पाने वाले इन दलों के सामने दल और गठबंधन के प्रत्याशियों के पक्ष में बिरादरी को एकजुट खड़ा करने की बड़ी चुनौती है। जहाँ भाजपा (BJP) के साथ अपना दल (एस) और निषाद पार्टी (Nishad Party) है वहीं समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party के साथ राष्ट्रीय लोक दल (RLD), सुभासपा (SBSP), अपना दल (के) (Apna Dal (K)) और महान दल जैसी पार्टियां हैं। और तो और बहुजन समाज पार्टी ने 10 छोटे दलों से गठबंधन किया है, जिनमें इंडिया जनशक्ति पार्टी, पच्चासी परिवर्तन समाज पार्टी, विश्व शांति पार्टी, संयुक्त जनादेश पार्टी, आदर्श संग्राम पार्टी, अखंड विकास भारत पार्टी, सर्वजन आवाज पार्टी, आधी आबादी पार्टी, जागरूक जनता पार्टी, सर्वजन सेवा पार्टी शामिल हैं। कांग्रेस ने इत्तेहाद-ए-मिल्लत कौंसिल से हाथ मिलाया है।
पिछले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नज़र डालें तो एक बात के संकेत मिलते हैं कि उत्तर प्रदेश में मतदाता किसी एक पार्टी को बहुमत देते आये हैं। 2007 के चुनाव ने मायावती को 206 सीटों के साथ सत्ता पर पहुंचाया, 2012 के चुनाव ने अखिलेश यादव को 224 सीटों के साथ मुख्यमंत्री बनाया और 2017 में 312 सीटों के साथ योगी आदित्यनाथ यूपी के सीएम बने।
पिछले चुनावों में बड़ी पार्टियों ने स्पष्ट बहुमत हासिल ज़रूर किया है लेकिन इस बार बड़े दलों के नेता छोटी पार्टियों को अपने साथ लाने की कोशिशें काफी पहले से करते रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 के चुनाव नतीजे देखने पर पता चलता है कि छोटे दलों में से ज्यादातर को एक प्रतिशत से भी कम वोट मिले। कुल वोट को अगर छोड़ दें तो छोटी पार्टियां अपने-अपने इलाकों में काफी वोट ले जाती हैं और इनकी अपनी जातियों के अंदर पकड़ भी है इसीलिए बड़े दलों को इनकी दोस्ती अच्छी लगती है। बहरहाल, अब चुनावी प्रदर्शन के आधार पर ही इन दलों के नेताओं को सरकार में शामिल होने या अपने आगे की राजनीति की दिशा करने का रास्ता मिलेगा।
भाजपा ने की शुरुआत
उत्तर प्रदेश में छोटे दलों के साथ गठबंधन अमूमन बहुत कम हुआ करते थे, लेकिन भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में इस दिशा में कदम उठाया और अपना दल तथा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसे छोटे दलों से गठबंधन किया। वहीं समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस और रालोद से हाथ मिलाया। भाजपा की सहयोगी अपना दल नौ सीटें जीतकर आई तो सुभासपा ने चार सीटें जीतीं। जबकि सपा को गठबंधन से कोई फायदा नहीं हुआ। दरअसल, बड़े दलों के वोट एक-दूसरे में बड़े पैमाने पर भले ही न ट्रांसफर होते हों लेकिन छोटे दलों के वोट जाति आधारित होते हैं और मना जाता है कि वे एकजुट होकर वोट करते हैं। इसीलिए छोटे दलों की अहमियत तेजी से बढ़ी है। यही वजह है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इस बार क्षेत्र के आधार पर छोटे दलों से गठबंधन किया है।
सपा का भी छोटे दलों से गठबंधन जोर
पिछले विधानसभा चुनाव में पहले कांग्रेस और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन के बावजूद सफलता नहीं मिलने के बाद अखिलेश यादव ने साफ कर दिया था कि वह किसी बड़े दल से गठबंधन नहीं करेंगे और छोटे दलों को साथ जोड़कर बड़ी ताकत खड़ी करेंगे। सपा ने इस बार रालोद, सुभासपा, प्रसपा, जनवादी सोशलिस्ट पार्टी, महान दल, अपना दल (कृष्णा), और सावित्री बाई फूले की पार्टी कांशीराम बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ किया है। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी समाजवादी पार्टी को सहयोग कर रही है।
बसपा का दस दलों से गठबंधन
बहुजन समाज पार्टी ने दस छोटे दलों से गठबंधन किया है। पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा (Satish Chandra Mishra) ने कहा है कि बसपा को इंडिया जनशक्ति पार्टी, पच्चासी परिवर्तन समाज पार्टी, विश्व शांति पार्टी, संयुक्त जनादेश पार्टी, आदर्श संग्राम पार्टी, अखंड विकास भारत पार्टी, सर्वजन आवाज पार्टी, आधी आबादी पार्टी, जागरूक जनता पार्टी, सर्वजन सेवा पार्टी समर्थन मिला है। सतीश चंद्र मिश्रा का कहना है कि हमें पूरा विश्वास है कि सभी के समर्थन व सहयोग से बहुजन समाज पार्टी को और ऊर्जा व गति मिलेगी।
अपना दल (सोनेलाल) का दावा
जातीय मतों में पैठ के कारण ही 2014 आम चुनाव से ही अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (सोनेलाल), भाजपा का हिस्सा है। इस दल के पास 9 विधायक, दो सांसद व एक एमएलसी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में अनुप्रिया पटेल की पार्टी को काफी कामयाबी मिली है। अनुप्रिया पटेल खुद केंद्र सरकार में मंत्री हैं। इनकी पार्टी का दावा है कि प्रदेश की 148 सीटें ऐसी हैं, जहां पर स्वजातीय वोटर चुनाव में नतीजे तय करते हैं। इनमें से भी 89 सीटें ऐसी हैं, जहां कुर्मी मतदाताओं की संख्या 60 हजार से अधिक है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से विशेषत: वाराणसी और इसके आसपास के क्षेत्र में कुर्मी वोटरों का प्रतिनिधित्व करने वाली अपना दल इस समय भाजपा के साथ गठबंधन में है। कांशीराम के साथ काम कर चुके डॉक्टर सोने लाल पटेल ने साल 1995 में अपना दल की स्थापना की थी अब उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल पार्टी प्रमुख हैं। अपना दल का दूसरा गुट अपना दल (कृष्णा), समाजवादी पार्टी के साथ है जिसका प्रतिनिधित्व अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल करती हैं। इन दोनों ही गुटों का दारोमदार कुर्मी मतदाताओं पर है। यूपी में करीब 6 फीसदी कुर्मी वोटर हैं। जिनकी मौजूदगी बाराबंकी, बहराइच, फतेहपुर और बुंदेलखंड में भी ठीक-ठाक संख्या में है।
सुभासपा
प्रदेश के राजभर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा इस चुनाव में सपा के साथ है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन में रहने पर इस दल से चार विधायक चुने गए थे। वर्ष 2019 आमचुनाव से ठीक पहले भाजपा से अलग होने के बाद राजभर ने पूर्वांचल की कई सीटों पर प्रत्याशी उतारे। कई सीटों पर इस दल के प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे। इस दल के नेता राजभर बिरादरी की संख्या 4 फीसदी होने का दावा करते हैं। इसके अलावा अर्कवंशी और कई अन्य छोटी जातियों को भी अपनी ताकत में जोड़ते हैं। सुभासपा का दावा है कि यूपी की करीब 100 सीटों पर इसका प्रभाव है और इनमें से 62 सीटें ऐसी हैं जहां राजभर समुदाय 35 से 90 हजार के बीच है। सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में करीब दो दर्जन सीटों पर इस समुदाय की संख्या 15-20 फीसदी है जिनमें वाराणसी, जौनपुर, आजमगढ़, देवरिया, बलिया और मऊ जैसे जिले शामिल हैं।
निषाद पार्टी
निषाद समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली निषाद पार्टी का असली नाम निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल है। बहरहाल, इसके नेता हैं डॉ. संजय निषाद जिन्होंने पहली बार विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया है। डॉ. संजय निषाद का दावा है कि प्रदेश में मछुआरा प्रभाव वाली 165 सीटें हैं, जिनमें से 70 सीटें ऐसी हैं जहां पर यह बिरादरी निर्णायक है। डॉ. संजय निषाद यूपी में इस बिरादरी की तादाद 10.05 फीसदी होने का दावा करते हैं। वैसे, हर जगह निषाद एक महत्वपूर्ण समुदाय है जो कि राजनीति को प्रभावित करता है इसीलिए निषाद हर दल के लिए महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश में निषाद समाज की हिस्सेदारी करीब 5 फीसदी की है। इस समाज में निषाद के अलावा मल्लाह, मांझी, धीवर, बिंद, कहार और कश्यप जातियां भी शामिल हैं। इनका असर गोरखपुर, मऊ, गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, इलाहाबाद, जौनपुर, फतेहपुर और यमुना ने सटे गाजियाबाद-नोएडा में भी है। 2017 विधानसभा चुनाव में निषाद पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ा था और 0.62 फीसदी वोटों को साथ 1 सीट पर जीत दर्ज की थी।
महान दल
2008 में बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) से अलग होकर महान दल की स्थापना करने वाले केशव देव मौर्य ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है। उत्तर प्रदेश के मौर्य, भगत, भुजबल, सैनी और शाक्य जैसी कई जातियों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले महान दल को को 2017 में 0.11 फीसदी वोट मिला था। केशव देव मौर्य का पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ विधानसभाओं में अच्छा दखल माना जाता है। केशव देव मौर्य उसी ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके नेता केशव प्रसाद मौर्य और स्वामी प्रसाद मौर्य हैं, लेकिन तीनों के अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं इसीलिए समाजवादी पार्टी ने भी दोनों मौर्य नेताओं को अपने साथ मिलाया है।
राष्ट्रीय लोक दल
जब - जब यूपी में राष्ट्रीय पार्टियां मजबूत होती हैं तो इसका नुकसान क्षेत्रीय पार्टियों को उठाना पड़ता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से लेकर मेरठ, मुजफ़्फ़रनगर और बिजनौर आदि इलाकों में प्रभाव रखने वाला राष्ट्रीय लोकदल इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। 2014 और 2017 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की धमक का सबसे ज़्यादा राजनीतिक नुकसान राष्ट्रीय लोकदल को ही उठाना पड़ा है। चौधरी अजीत सिंह ने साल 1996 में इस पार्टी का गठन किया था। इसके बाद से धीरे-धीरे पार्टी ने मजबूती हासिल की। 2002 की बसपा सरकार में आरएलडी को दो कैबिनेट मंत्री पद हासिल हुए थे। इसके बाद साल 2004 के चुनाव में आरएलडी ने तीन लोकसभा सीटें हासिल कीं। 10 साल बाद 2014 में रालोद ने यूपीए के झंडे तले चुनाव लड़ा और सारी सीटें गंवा बैठी। इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने सिर्फ 1 सीट जीती और आख़िर में उस सीट से भी हाथ धो बैठी।
रालोद
2017 के चुनाव में राष्ट्रीय लोक दल को 2 फीसदी से भी कम वोट मिले थे। मुस्लिम-जाट समीकरण के सहारे चलने वाली रालोद को 2014 में बड़ा झटका लगा जब दंगो के बाद जाट-मुस्लिमों के बीच खाई बढ़ गई और इनका वोट बैंक खिसक गया। इस बार पार्टी सुप्रीमो जयंत चौधरी दावा कर रहे हैं कि उनका जनाधार मजबूत हुआ है। उत्तर प्रदेश में जाटों की आबादी करीब 4 फीसदी है, लेकिन पश्चिमी यूपी में जाट आबादी सबसे ज्यादा है जिसपर जयंत चौधरी को ज्यादा भरोसा है। इसके अलावा समाजवादी के गठबंधन से उन्हें फायदा हो सकता है क्योंकि कि पश्चिमी यूपी में मुसलमानों की संख्या करीब 32 फीसदी है। जाट और मुसलमान मिल गए तो जयंत का दावा सच हो सकता है। राष्ट्रीय लोक दल का सबसे ज्यादा असर सहारनपुर, मेरठ, मुजफ्फर नगर, शामली और बिजनौर जैसे जिलों में है।
प्रसपा, तृणमूल और एनसीपी
शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी इस बार समाजवादी पार्टी के न केवल साथ है बल्कि उसके प्रत्याशी सपा के सिंबल पर ही चुनाव लड़ेंगे। दोनों ही पार्टियों के वोटर एक ही हैं। जहाँ तक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी का सवाल है तो यूपी में इनकी नाममात्र की मौजूदगी है।
2017 में पार्टियों का प्रदर्शन
2017 में भाजपा के साथ चुनाव लड़ी अपना दल (एस) को 0.98 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने 9 सीटें जीती थी। इस बार भाजपा के साथ निषाद पार्टी भी है जिसे 2017 में 0.6 प्रतिशत वोट मिले थे और इन्होंने एक सीट जीती थी। भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में 39.67 फीसदी वोट लेकर 312 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी।
2017 में राष्ट्रीय लोक दल ने अकेले चुनाव लड़ा था और उसे 1.78 फीसदी वोट मिले थे और एक सीट पर जीत मिली थी। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 2017 में 0.07 फीसदी वोट मिले थे और उसने 4 सीटें जीती थीं। महान दल को 0.11 प्रतिशत वोट मिले थे।
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