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Up Election 2022 : जब बड़ी पार्टियों को क्षेत्रीय क्षत्रपों ने दी कड़ी टक्कर
Up election 2022: यूपी चुनाव को लेकर सभी पार्टियां तैयारियों में जुट गई हैं। सभी दल एक दूसरे को कड़ी चुनौती दे रहे हैं...
Up Election 2022: उत्तर प्रदेश की राजनीति को लेकर एक किंवदंती बेहद सटीक बैठती है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता इसी राज्य से होकर गुजरता है। 1990 के दशक में भी एक तरफ जहां देश में मंडल-कमंडल की राजनीति चरम पर थी, तो वहीं देश के सबसे बड़े प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन सियासी तूफान मचाए हुए था। इस तूफान की भेंट चढ़ी तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार। बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने की धमकी के बाद कार सेवकों पर हुई गोलीबारी से गुस्सायी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपना समर्थन वापस ले लिया। फलस्वरूप, मुलायम सिंह यादव की सरकार गिर गई।
1991 में राज्य में मध्यावधि चुनाव हुआ और पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में प्रदेश में पूर्ण बहुमत से बीजेपी की सरकार बनी। आज जिस राम मंदिर और धार्मिक ध्रुवीकरण के रास्ते बीजेपी एक बार फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी की सत्ता हासिल करना चाहती है जिसकी नींव 90 के दशक में ही पड़ी थी।
यूपी की आबादी सबसे अधिक
उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार करीब 20 करोड़ थी, जो अब बढ़कर अनुमानित तौर पर 23 करोड़ से अधिक आंकी गयी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश की आबादी देश की कुल आबादी का 16.50 प्रतिशत है। जबकि यहां लिंगानुपात 912 है। देश के इस सबसे बड़े राज्य की कुल साक्षरता दर 67.68 प्रतिशत है। इसमें पुरुष साक्षरता 77.26 प्रतिशत तो महिला साक्षरता 57.20 फीसदी है।
शिक्षा और सत्ता पर सवर्णों का रहा दबदबा
बात उत्तर प्रदेश की हो, चुनाव की हो और जाति की चर्चा ना हो तो बात अधूरी रह जाएगी। सूबे की राजनीति आजादी के बाद से ही धार्मिक और सामाजिक तौर पर बंटी रही है। देश के अगड़े या सवर्ण जाति के सबसे ज्यादा लोग इसी राज्य में बसते हैं। सवर्णों की कुल आबादी जनसंख्या का 20 प्रतिशत के आस-पास है। इनमें ब्राह्मणों की आबादी 10 फीसदी के करीब है। जबकि ठाकुरों यानि क्षत्रिय का प्रतिशत 7.50 है। वैश्य और कायस्थ का भी 3 प्रतिशत दखल रहा है। ये भी सच है कि इन्ही सवर्णों का प्रदेश की शिक्षा, नौकरियों और सत्ता आदि में भागीदारी रही है।
40 प्रतिशत दलित आबादी
इन सबके बाद बात हो पिछड़ों की। राज्य की कुल जनसंख्या का करीब 40 प्रतिशत दलित आबादी है। जहां तक बात यादवों की है तो यूपी की कुल आबादी के 9 प्रतिशत पर इन्हीं का कब्ज़ा है। इस लिहाज से यादव पिछड़े वर्ग की सबसे बड़ी आबादी बन जाती है। अब इन आंकड़ों से ये समझना आसान हो गया होगा कि प्रदेश की दो बड़ी पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का राजनीति में बोलबाला क्यों रहा है। जाट 7 प्रतिशत आबादी के साथ यहां बास्ते हैं। इनका दबदबा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। कुर्मी आबादी 3 प्रतिशत के साथ कम दिखती है लेकिन यहां की राजनीति में मायने रखती है। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल इसी जाति से आती हैं। इसके बाद अति पिछड़ा वर्ग आता है जिसमें राजभर, निषाद, बिन्द, कुम्हार, मल्लाह आदि आते हैं। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री रहते हुए इसी अति पिछड़े वर्ग को साधने में सफल रहे थे। अति पिछड़ी जातियों की आबादी सम्मिलित तौर पर 15 प्रतिशत के करीब है।
मुस्लिम वोट क्यों है खास
इसके बाद राज्य की सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों की है। यूपी की कुल जनसंख्या के 18 फीसदी पर इनकी धमक है। ऐसा नहीं है कि इनका एकमुश्त वोट किसी खास पार्टी को मिलता है। इनके वोट भी विभिन्न पार्टियों में बंटते रहे हैं जिनमें सपा और बसपा अव्वल रही है। मुस्लिम वोट यहां की राजनीति में कितना मायने रखता है अगर इसे समझना है तो इस आंकड़े से समझें कि राज्य की कुल 403 विधानसभा सीटों में से 125 पर इन्हीं की पैठ है। इसीलिए कोई भी पार्टी इन्हें नाखुश करने का जोखिम नहीं लेना चाहती है
1991: राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को दिलायी सत्ता
उत्तर प्रदेश की राजनीति के मद्देनजर यह चुनाव बेहद अहम माना जाता है। क्योंकि बीजेपी राम मंदिर आंदोलन के जरिए प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर आ चुकी थी। राज्य के कुल 425 सीटों (तब उत्तराखंड भी यूपी का ही अंग था) में बीजेपी ने कुल 221 सीटों पर जीत हासिल की थी। यह कुल मत प्रतिशत का 31.76 था। इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर जनता दल रही थी जिसे 92 सीटें मिली थी। राजनीति विश्लेषकों की मानें तो यही वह चुनाव था जब यह तय हो गया था कि जनता दल अपनी ढलान पर है। मतों के लिहाज से देखें तो जनता दल को मात्र 21.05 प्रतिशत मत ही हासिल हुए थे। जबकि तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस उभरी थी। कांग्रेस को लोगों ने पूरी तरह नकार दिया था। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 17.59 रहा था। ज्ञात हो कि इस चुनाव में कुल नौ राष्ट्रीय पार्टियां, चार क्षेत्रीय पार्टियों सहित 48 पार्टियां चुनाव मैदान में थीं।
1993: बीजेपी बाहर, बना सत्ता का नया समीकरण
6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। कल्याण सिंह की सरकार की आयु मात्र डेढ़ साल ही रही। इसके बाद प्रदेश की राजनीति ने करवट ली। इस बार मुलायम सिंह यादव और बसपा प्रमुख कांशीराम ने हाथ मिलाया और नई सरकार का गठन हुआ। मुलायम सिंह यादव दोबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री नियुक्त हुए। हालांकि, इस चुनाव में लोगों के सिर से बीजेपी का वो बुखार उतर चुका था, ये भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि बीजेपी का वोट प्रतिशत अब बढ़कर 33.30 हो चुका था। बावजूद वह सत्ता का स्वाद नहीं चख सकी। इस चुनाव में बीजेपी को जहां 177 सीट हासिल हुई,वहीं समाजवादी पार्टी को 109 तो बहुजन समाज पार्टी को कुल 67 सीटें मिली। लेकिन इन सब के बीच एक बार फिर कांग्रेस का जनाधार और कम हुआ। इस चुनाव ने एक बात तो साबित किया कि बीजेपी से जो जनाधार खिसका वह समाजवादी पार्टी और जनता दल से जुड़ गया। हालांकि इस चुनाव में कुल 71 पार्टियां और निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में उतरे थे।
1995: प्रदेश को मिली पहली दलित महिला मुख्यमंत्री
साल 1995 एक बार फिर नए राजनीतिक बदलाव के साथ आया। इस साल प्रदेश को मायावती के रूप में पहली दलित महिला मुख्यमंत्री मिलीं। दरअसल, सपा और बसपा का गठजोड़ टूट गया। चर्चित गेस्ट हाउस कांड ने दलित,पिछड़े और मुस्लिम गठजोड़ को आघात पहुंचाया था। 3 जून 1995 को एक नए घटनाक्रम के तहत बीजेपी के समर्थन से मायावती ने प्रदेश में मुख्यमंत्री की गद्दी संभाली।
1996: बीजेपी की बढ़त बरकरार
बीजेपी ने एक बार फिर अपने वोट प्रतिशत 32.50 के थोड़े अंतर के साथ बरकरार रखते हुए 174 सीटें हासिल की। दूसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी रही जिसने 110 सीटें हासिल की। सपा को कुल 21.80 प्रतिशत वोट मिले जो पिछली चुनाव से करीब एक प्रतिशत अधिक था। तीसरे नंबर पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) रही,जिसे 67 सीटें मिली। चौथे स्थान पर एक बार फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस रही। इस चुनाव में कांग्रेस को 33 सीटें मिली। लेकिन अगर वोट प्रतिशत के लिहाज से देखा जाए तो कांग्रेस को 5 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले थे। इस वर्ष चुनाव में 13 निर्दलीय प्रत्याशियों ने भी अपनी सीट पक्की की। इसके अलावा किसान कामगार पार्टी ने 8, जनता दल ने 7, माकपा ने 4, आल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) ने 4, समता पार्टी ने 2, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 1 तथा समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रिय) ने भी 1 सीट हासिल किया।
1997: मायावती ने बीजेपी को दिया झटका
बीजेपी और बसपा अब एक साथ सवारी पर थे। सब कुछ सामान्य लग रहा था, लेकिन तभी मायावती ने बीजेपी को झटका दिया। दरअसल, इन दोनों ही पार्टियों में छः-छः महीने मुख्यमंत्री रहने का करार हुआ था। मगर बसपा अपने शुरुआती छः महीने सत्ता पर काबिज रहने के बाद वादे से मुकर गयी। मायावती छः महीने मुख्यमंत्री रहीं लेकिन जब कल्याण सिंह अभी दो महीने ही सीएम रहे थे,उन्होंने समर्थन वापस ले लिया।
1998: जगदम्बिका बने 48 घंटे के सीएम
जगदम्बिका पाल ने 21 फ़रवरी 1998 को यूपी के सीएम पद की शपथ लेते हैं। 48 घंटे बाद ही हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह को फिर बहाल करने का आदेश दिया। कहते हैं 23 फ़रवरी 1998 वो दिन था जब सचिवालय में कल्याण सिंह और जगदम्बिका पाल दोनों ही मुख्यमंत्री के रूप में विराजमान रहे। खैर, ये ऐसे घटनाक्रम थे जो राजनीति में कम ही देखने को मिलते हैं।
2002: बड़ी पार्टियां फुस्स, क्षेत्रीय क्षत्रपों की बल्ले-बल्ले
इस दशक में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। देश में बदलाव का दौर था। वहीं उत्तर प्रदेश इन सबसे अलग क्षेत्रीय क्षत्रप मुलायम सिंह यादव को आगे बढ़ा रहा था। ये वो दौर था जब प्रदेश में बीजेपी की लोकप्रियता गिरने लगी थी। इसका असर वोट प्रतिशत से समझा जा सकता है। इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने 26.27 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 143 सीटें हासिल की। जबकि बहुजन समाज पार्टी ने 23.19 प्रतिशत वोट के साथ 98 सीटें हासिल की। वहीं, सालों से अव्वल रहने वाली बीजेपी अब तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी थी। बीजेपी 25.31 प्रतिशत वोट के साथ 88 सीटें ही हासिल कर पायी थी। लेकिन कांग्रेस पार्टी अब तक के सबसे बुरे दौर में पहुंच चुकी थी। कांग्रेस को जनता का 8.99 प्रतिशत वोट के साथ मात्र 25 सीटें ही मिली। इस साल के चुनाव में मतदाता ने अपने वोट को बर्बाद नहीं किया। कहने का मतलब है कि उन्होंने जिसे भी वोट दिया वह एकमुश्त दिया। इसी वजह से अन्य छोटी पार्टियों या निर्दलीय विधायकों की संख्या कम ही रही। बीजेपी और कांग्रेस के मत प्रतिशत का गिरना साफ दिखा रहा था कि किस प्रकार क्षेत्रीय क्षत्रप इन बड़ी पार्टियों को कांटे की टक्कर दे रहे थे।
2007: दो दशक बाद पूर्ण बहुमत की सरकार
लगातार दो दशकों तक उठापटक और गठबंधन की सरकारों के बाद उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार आई। बहुजन समाज पार्टी ने लंबी छलांग लगाते हुए 30.46 प्रतिशत वोट के साथ 206 सीटें जीतने में सफलता पायी। इसकी दो वजहें हो सकती है। एक, समाजवादी पार्टी को लेकर निराशा और दूसरी बीजेपी में नेतृत्व संकट। कांग्रेस पहले ही बुरे दौर से गुजर रही थी जो इस इस बार भी जारी रहा। मायावती के अचानक इस चमत्कारिक परिणाम के पीछे दलित-ब्राह्मण गठजोड़ को देखा गया । यही वजह है कि वर्तमान समय में भी मायावती उसी पुराने फॉर्मूले को दोहराना चाहती हैं। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी सीधे 97 सीटों पर सिमट गई। सपा को 27.05 प्रतिशत ही वोट मिले थे। तीसरे नंबर पर बीजेपी रही जिसे 19.62 प्रतिशत वोट के साथ मात्र 51 सीटें हासिल हुई। जबकि कांग्रेस को 8.84 प्रतिशत वोट के साथ 22 सीटें मिली। इस साल सभी छोटी-बड़ी पार्टियों को मिलाकर करीब 130 दल मैदान में थे। चुनाव के नजरिये से इस वर्ष को एक और वजह से याद रखा जाएगा, जो थी कम मतदान। इस चुनाव में करीब 46 प्रतिशत ही कुल मतदान हुआ। माना जाता है कि इसी का फायदा क्षेत्रीय पार्टियों को मिला। उनके मतदाता लामबंद होकर मतदान किए। इसका सीधा नुकसान बीजेपी को हुआ।
2012: माया से मोहभंग, अब अखिलेश की बारी
साल 2012 आते-आते राज्य की जनता का मायावती से मोहभंग हो चुका था। लेकिन जिस राज्य ने कई गठबंधन और सियासी कलाबाजियां देखी, वहां राजनीतिक पंडितों को भी यह अनुमान नहीं था कि समाजवादी पार्टी इतना बड़ा दल बनकर उभरेगी। समाजवादी पार्टी ने सबको चौंकाते हुए 29.29 प्रतिशत वोट के साथ 224 सीटों पर कब्ज़ा किया। मायावती को लेकर लोगों की नाराजगी का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि जिस बसपा ने 2007 में 206 सीटें हासिल की थी उसे जनता ने करीब 26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 80 सीटों पर पैक कर दिया। बीजेपी का भी बुरा दौर जारी। बीजेपी 15.21 प्रतिशत के साथ महज 47 सीटों पर सिमट गई। हालांकि इस बार भी कांग्रेस ने अपने परफॉर्मेंस से निराश ही किया। कांग्रेस 13.26 प्रतिशत वोट के साथ 28 सीटों पर सफलता पाई। इसके अलावा एक और बात गौर करने की है कि इस चुनाव में मतदाता एक बार फिर घरों से निकले और अच्छी वोटिंग की। इस बार कुल मतदान तकरीबन 60 प्रतिशत के करीब रहा। यूं कहें तो साल 2002 से 2012 तक की प्रदेश की पूरी राजनीति क्षेत्रीय पार्टियों के नाम रहा। देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी बैक बेंचर ही रही।
2017: प्रचंड बहुमत के साथ बीजेपी की वापसी
इस चुनावी साल में बीजेपी ने वो शीर्ष हासिल किया जो राम जन्मभूमि आंदोलन के समय में भी उसे नहीं मिली थी। केंद्र की मोदी सरकार की योजनाओं, उनमें लोगों का बढ़ता भरोसा और क्षेत्रीय पार्टियों से ऊबन ने मतदाताओं को एक बार फिर बीजेपी की तरफ आकर्षित किया। नतीजा सबके सामने था। बीजेपी ने 41.57 प्रतिशत वोट के साथ अकेले 312 सीटें हासिल की। जबकि बीजेपी गठबंधन ने कुल 325 सीटों पर कब्ज़ा किया। पहली बार बीजेपी ने बिना किसी सीएम फेस के मैदान में उतरी थी। लेकिन चुनाव करीब आते समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने हाथ मिलाया। समाजवादी पार्टी ने जहां 298 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे तो वहीं कांग्रेस ने 105 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। बावजूद ये गठबंधन सफल नहीं रहा। सपा 28.32 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 47 सीटें ही जीत पाई, जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस 6.25 फीसदी वोट के साथ मात्र 7 सीट ही जीत सकी। वहीं बहुजन समाज पार्टी 22.23 प्रतिशत वोट के साथ 19 सीटों पर कब्ज़ा किया। एक बार फिर मतदाताओं ने इन्हीं चार पार्टियों को फोकस किया, जबकि चुनावी मैदान में कुल 322 पार्टियां अपना किस्मत आजमाने उतरीं थी।
फिलहाल देश के सबसे बड़े सूबे में एक बार फिर चुनाव होने जा रहा है। इन पांच सालों में देश और मौजूदा सरकार ने कई चुनौतियों का सामना किया है। मतदाता उन्हें ध्यान में रखकर ही वोट करेगी। इस बार चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगी ये वक़्त ही बताएगा।