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प्रत्याशीमुक्त होता चुनाव, लोकतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी

बीते कुछ चुनावों से ये देखा जा रहा है कि लोग राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह को देखकर ही वोट कर रहे हैं. प्रत्याशियों के नाम और चेहरे से लोगों को मतलब नहीं रह गया है.

Raj Kumar Singh
Written By Raj Kumar SinghPublished By Vidushi Mishra
Published on: 24 Feb 2022 11:19 AM GMT
UP Election 2022
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UP Election 2022

बीते कुछ चुनावों से ये देखा जा रहा है कि लोग राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह को देखकर ही वोट कर रहे हैं. प्रत्याशियों के नाम और चेहरे से लोगों को मतलब नहीं रह गया है. उत्तर प्रदेश में चल रहे विधानसभा चनाव में यह बात और खुलकर सामने आ गई है. सभी दलों के वोटर सीधे सीधे दलों को वोट कर रहे हैं. उनके क्षेत्र का प्रत्याशी कौन है, कैसा है इससे उन्हें ज्यादा मतलब नहीं है. ज्यादातर वोटर्स ने ये जानने की भी इच्छा नहीं की कि उनके क्षेत्र से कौन लड़ रहा है.

प्रत्याशियों ने भी इसे समझ लिया है और उन्होंने भी ज्यादा संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इस बार कोरोना की गाइडलाइन के चलते ये ट्रेंड और तेजी से आगे बढ़ा. हालांकि इससे पहले भी 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही ट्रेंड देखा गया था. इन तीनों चुनावों में बीजेपी को शानदार सफलता मिली थी. वोटर्स ने कमल निशान और नरेंद्र मोदी को देखकर वोट दिया था.

अब सवाल ये उठता है कि प्रत्याशियों का हाशिए पर जाना लोकतंत्र के अच्छा है या बुरा. हम इस लेख में दोनों ही पक्षों पर विचार करेंगे.

पहले बात करते हैं कि चुनाव में प्रत्याशी की भूमिका घटना क्या अच्छा है?

इसका एक तो सकारात्मक असर ये है कि इससे बाहुबली और आपराधिक पृवृत्ति के प्रत्याशियों पर अंकुश लगता है. पार्टी की विचारधारा और पार्टी के सर्वोच्च नेता के नाम पर वोट पड़ने से प्रत्याशी कोई भी हो वोट पा जाता है. ऐसे में धनबल और बाहुबल पर रोक लगती है.

दूसरे इससे विचारधारा पर आधारित राजनीति को बढ़ावा मिलता है. जैसे जैसे ये पृवृत्ति बढ़ेगी हम मान सकते हैं कि क्षेत्र विशेष में भड़काऊ स्थानीय मुद्दों से मुक्ति मिल सकती है. इसके साथ ही पार्टियां नेताओं के बेजा दबाव से मुक्त होंगी.

अब हम बात करते हैं कि प्रत्याशियों की भूमिका गौण होने के नुकसान क्या हैं-

पार्टियों के अंदर लोकतंत्र खत्म होगा-

सबसे पहले तो यह पार्टियों के अंदर लोकतंत्र को खत्म करता है. नेता अपनी बात या अपना विरोध पार्टी के अंदर नहीं कर पाएंगे. उनके पास पार्टी आलाकमान के इशारों पर चलने के अलावो कोई चारा नहीं होगा.

जनता की समस्याओं के लिए नेता नहीं लड़ेंगे, लोग प्रशासन के दबाव में रहेंगे-

इससे समाज में अच्छे नेताओं का अकाल हो जाएगा. लोगों की आवाज उठाने वाले नेता नहीं होंगे. नेताओं को भी लगेगा कि वे सिर्फ आला कमान की चमचागिरी करते रहें. क्षेत्र में काम करने और जनता की समस्याओं के लिए लड़ने का कोई फायदा नहीं होगा. संघर्ष की राजनीति की जगह ड्राइंग रूम की राजनीति पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर हावी जाएगी. इसका सबसे अधिक नुकसान आम जनता का होगा. उन पर प्रशासन का शिकंजा कसता जाएगा.

छोटे दलों और निर्दलीयों की भूमिका कम होगी-

प्रत्याशियों की भूमिका कम होने से कम संसाधन वाले छोटे दलों का असर घटने लगेगा. सिर्फ बड़े दलों के हाथ में चुनाव सीमित हो जाएगा. निर्दलीय प्रत्याशियों का जीतना तो असंभव हो जाएगा. वैसे भी बीते कई चुनावों से साल दर साल निर्दलीय विधायकों की संख्या कम हो रही है.

लोकतंत्र शक्तिशाली दलों तक सिमट जाएगा-

इस व्यवस्था में स्पर्धा बड़े दलों के बीच ही रह जाएगी. इनमें भी जो जितना बड़ा दल होगा वो उतना अधिक चुनाव को प्रभावित कर पाएगा. केंद्रीय प्रचार प्रसार की भूमिका बढ़ जाएगी. हम धीरे धीरे अमेरिकी लोकतांत्रिक प्रणाली की ओर बढ़ जाएंगे.

स्थानीय मुद्दे नहीं उठाए जाएंगे- स्थानीय समस्याएं हाशिए पर चली जाएंगी. जैसे कि क्षेत्र में स्कूल, अस्पताल, बिजली, कानून व्यवस्था, गंदगी, परिवहन आदि की समस्याओं को उठाने वाला कोई न होगी. चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर सिमट जाएंगे. इससे जनता का स्थानीय विकास प्रभावित होगा.

कुल मिलाकर भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में प्रत्याशियों का प्रासंगिक रहना ही लोकतंत्र के हित में है और जनता के लिए भी यही बेहतर है. चाहते या न चाहते हुए चुनाव जीतने की आस में पूरे पांच साल तक सभी दलों के प्रत्याशी जनता के सुख दुख में खड़े रहते हैं. यदि उन्हें लगेगा कि इसका कोई फायदा नहीं है तो वे जनता से दूर हो जाएंगे. जनता एक प्रशासनिक लालफीताशाही के बीच अकेली पड़ जाएगी.

Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

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