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UP Elections: यूपी चुनावों में मुस्लिम समुदाय अब नहीं रह गया निर्णायक

UP Elections: चुनावों में मुस्लिम समुदाय का समर्थन अब निर्णायक नहीं रह गया है।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Vidushi Mishra
Published on: 11 March 2022 2:41 PM GMT
Muslim community
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मुस्लिम समुदाय (फोटो-सोशल मीडिया)

UP Elections: चुनावों में मुस्लिम समुदाय का समर्थन, जो यूपी की आबादी का 19 फीसदी से अधिक है, किसी भी पार्टी के लिए सरकार बनाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। ये समुदाय अब निर्णायक नहीं रह गया है।

इस चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 57 मुस्लिम-बहुल सीटों में से 34 और उसके सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल ने दो सीटों पर जीत हासिल की है। वहीं भाजपा ने पिछली बार जहां मुस्लिम बहुल 37 सीटों पर जीत दर्ज की थी वहीं इस बार सिर्फ 20 ऐसी सीटें जीतीं। लेकिन फाइनल टैली में भाजपा की संभावनाओं पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने भारी बहुमत से सत्ता हासिल कर ली।

एक वोट बैंक के रूप में मुस्लिम समुदाय के अप्रासंगिक होने का क्रम 2014 में शुरू हुआ जब बीजेपी लोकसभा चुनावों के लिए हिंदू एकीकरण के हिस्से के रूप में ओबीसी और एमबीसी मतदाताओं तक पहुंच गई। इस क्रम में अल्पसंख्यक वोट को चुनावी रूप से हाशिए पर छोड़ दिया गया था। उस चुनाव में एक भी मुस्लिम सांसद लोकसभा में नहीं पहुंचा।

2012 में यूपी विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की तादाद 68 थी। लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 25 हो गई। ये स्थिति तब है जब कुल 403 विधानसभा क्षेत्रों में से 120 से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जिनकी मुस्लिम आबादी 20 फीसदी या उससे अधिक है।

रामपुर में मुसलमानों की आबादी 50 फीसदी से अधिक है। मुरादाबाद और संभल में यह 47 फीसदी है। बिजनौर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली और अमरोहा में 40 फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। पांच अन्य जिलों में मुस्लिम आबादी 30 से 40 फीसदी के बीच और 12 जिलों में 20 से 30 फीसदी मुस्लिम हैं।

संख्या हो गई बेमतलब

अपनी संख्यात्मक ताकत के बावजूद मुस्लिम समुदाय ने देखा है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार को हराने के लिए सबसे शक्तिशाली उम्मीदवार का समर्थन करने की उसकी रणनीति ने हाल के चार चुनावों - 2014 लोकसभा, 2017 विधानसभा, 2019 लोकसभा और अब 2022 विधानसभा में काम नहीं किया है।

इस बार राजनीतिक दल मुस्लिम मुद्दों पर बिल्कुल खामोश रहे हैं। चाहे वह मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करना हो या नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध का समर्थन करना हो, गैर-भाजपा दल ज्यादातर चुप रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम कल्याण की प्रबल समर्थक सपा ने भी मुस्लिमों के प्रति खुली हमदर्दी नहीं दिखाई और न ये प्रचार किया कि उसने कितने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा।

दूसरी तरफ बसपा ने अपना सोशल इंजीनियरिंग ध्यान दलित-मुस्लिम संयोजन से हटाकर दलित-ब्राह्मण कॉम्बिनेशन में स्थानांतरित कर दिया और उसे इससे कोई फायदा भी नहीं मिला।

मुस्लिम समुदाय के बारे में एक खास बात ये रही कि इस बार किसी भी बड़े विपक्षी दल ने अपने घोषणापत्र में समुदाय विशेष का कोई वादा नहीं किया।

Vidushi Mishra

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