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निकाय चुनाव: पत्नी का तो बस नाम, पतियों के हाथ ही है सारा काम
सुशील कुमार
मेरठ: मेरठ नगर निगम महापौर और पार्षद चुनाव बुधवार (22 नवंबर) को होना है। उम्मीदवारों ने चुनावी जंग जीतने के लिए पूरी ताकत लगा दी है। चुनावी जंग में सबसे अहम बात यह है कि सरकारी कागजों में बेशक महिलाएं चुनावी अखाड़े में हैं लेकिन युद्ध उनके पति ही लड़ रहे हैं।
नगर निगम महापौर चुनाव की ही बात करें तो अनुसचित जाति महिला की इस सीट पर बीजेपी की तरफ से पार्टी की प्रदेश उपाध्यक्ष कांता कर्दम चुनावी अखाड़े में हैं। सपा के टिकट पर दीपू मनोठिया, कांग्रेस के टिकट पर ममता सूद तथा राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर सुनीता रानी चुनावी अखाड़े में हैं। इनमें कांता कर्दम को छोड़कर चुनाव लड़ रही अन्य महिलाओं की कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। आलम यह है, कि भाषण से लेकर मीडिया के सवालों-जवाबों तक चुनाव लड़ रही महिलाओं के पति ही दे रहे हैं।
..जीत भी जाएं तो कैसे करेंगी काम?
ऐसे में ये सवाल उठ रहे हैं कि आखिरकार महिला के लिए आरक्षित सीट होने से महिलाओं को क्या फायदा मिला? इस सवाल पर बीटेक छात्रा शिवानी कहती है, 'महिलाओं को आज बराबरी का दर्जा दिया गया है। यदि कोई दमदार महिला उम्मीदवार है तो वह पुरुषों के बीच भी जीत हासिल कर सकती है। महापौर पद पर जो उम्मीदवार हैं,उनके पति ही चुनाव में नजर आ रहे हैं और वही जवाब दे रहे हैं। ऐसे में चुनने के बाद कैसे काम करेंगी, इस पर संदेह ही है।'
पहले भी कमान रही है पतियों के ही हाथ
मसलन, 2006 के ही चुनाव की बात करें, तो यह महिला पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित था। इस चुनाव में बीजेपी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता सुशील गुर्जर की पत्नी मधु गुर्जर को टिकट दिया था। कांग्रेस ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेता की मां इन्द्रा भाटी को टिकट दिया था। यूडीए ने पूर्व मंत्री हाजी याकूब कुरैशी की पत्नी संजीदा को टिकट दिया था। चुनाव में लीला (सपा), शाइस्ता बेगम (रालोद) समेत आठ महिलाएं चुनाव लड़ी थीं। इसमें भी चुनावी प्रचार की कमान चुनाव लड़ रही महिलाओं के पति के हाथों में रही। इस चुनाव में मधु गुर्जर यूडीएफ की संजीदा को करीब एक लाख मतों से हराकर महापौर बनी थीं।
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बस हस्ताक्षर लायक महापौर!
साल 2006 के चुनाव में खड़ी महिला उम्मीदवार हकीकत में अपने-अपने पति के हाथों मोहरा मात्र थी। यही वजह रही कि चुनाव जीतने के बाद नगर निगम के महापौर पद की बागडोर पर्दे के पीछे मधु गुर्जर के पति सुशील गुर्जर के हाथों में ही रही। यानी, नगर निगम से संबंधित तमाम फैसलों पर हस्ताक्षर महापौर की हैसियत से भले ही मधु गुर्जर ने किये, लेकिन इन फैसलों के पीछे सुशील गुर्जर ही थे।
यही वजह ओझल होने की
दूसरी तरफ, चुनाव में हारने के बाद शेष सभी महिला उम्मीदवार राजनीतिक मैदान से ओझल होकर अपने-अपने कामों में लग गईं। अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद मधु गुर्जर भी आज राजनीतिक पटल से ओझल हो चुकी हैं। यह हाल तो तब है जबकि नगर निगम हो या नगर पालिका या फिर नगर पंचायत सभी में महिलाओं की संख्या करीब-करीब पुरुष मतदाताओं के बराबर ही है। वर्तमान की बात करें तो मेरठ नगर निगम में पुरुष मतदाताओं की संख्या 591361 है। जबकि महिला मतदाताओं की संख्या 530984 है।
महिला आरक्षण के खिलाफ नहीं, लेकिन..
नगर महिला संघर्ष समिति की अध्यक्षा रेखा कहती है, महिला आरक्षण गलत नहीं है। लेकिन जातिगत आधार गलत है। सही मायनों में वह मिलता नहीं है। जैसे, कि 2006 के चुनावों की तरह इस चुनाव में भी महिला उम्मीदवार अपने बूते जनता के सवालों के जवाब देना तो दूर प्रचार तक नहीं कर पा रही हैं। उनके पति ये काम कर रहे हैं। फिर ऐसे महिला आरक्षण का क्या लाभ? मेरठ शहर के जाने-माने चिकित्सक नरेन्द्र पाहवा कहते हैं, 'मैं महिलाओं के आरक्षण के खिलाफ नहीं हूं। लेकिन ऐसे किसी आरक्षण का भला क्या लाभ जिसका वास्तविक लाभ पुरुष को ही मिले। इस चुनाव को लें। चुनाव में अधिकांश गृहिणी हैं। उन्हें राजनीतिक अनुभव नहीं है। उनके पति ही चुनाव लड़ा रहे हैं। उम्मीदवार को तो साथ रखना मजबूरी है। यानी पत्नी का तो बस नाम है।'