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कभी भाजपा का गढ़ रहे सोनभद्र की इस सीट ने बीजेपी के लिए खड़ी की मुश्किलें, अंतर्विरोध बना बड़ी चुनौती

यहीं कारण है कि इस सीट को वर्ष 1974 से पूर्व जनसंघ और 1980 के बाद भाजपा के गढ़ के रूप में पहचाना जाता रहा है।

Kaushlendra Pandey
Published on: 22 Feb 2022 11:25 AM GMT (Updated on: 22 Feb 2022 1:15 PM GMT)
UP Election 2022
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यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की तस्वीर (फोटो:न्यूज़ट्रैक)

UP Election 2022: सोनभद्र की राबटर्सगंज एक ऐसी विधानसभा सीट है जहां के वोटरों का मिजाज अक्सर कुछ नया रंग दिखाता रहता है। जब यूपी में कांग्रेस की हवा बहती थी, तब यहां बीच-बीच में जनसंघ का परचम लहराता था। 1980 में भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद भी इस सीट पर वोटरों का यह मिजाज कायम रहा और 80 से लेकर 2017 तक के हुए विधानसभा चुनाव में चार बार भाजपा को जीत दर्ज कराने में कामयाबी मिली है।

यहीं कारण है कि इस सीट को वर्ष 1974 से पूर्व जनसंघ और 1980 के बाद भाजपा के गढ़ के रूप में पहचाना जाता रहा है। यह अलग बात है कि बीच में जब-जब भाजपा उत्तर प्रदेश में कमजोर हुई, तब-तब यहां बारी-बारी से सपा और बसपा का कब्जा होता गया लेकिन जैसे ही 2017 में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने पूरे प्रदेश में परचम लहराया, बसपा और सपा को मिलने वाले मतों का आंकड़ा करीब-करीब उनके पास रहने के बाद भी, 89,992 मत हासिल कर, इस सीट पर अब तक का सर्वाधिक मत पाने का रिकार्ड बना डाला लेकिन इस बार परिस्थितियां अलग हैं। जहां एक तरफ सत्ता की कुछ नीतियों को लेकर लोगों में नाराजगी है। वहीं पार्टी का अंतर्विरोध यहां के उम्मीदवार और संगठन दोनों के सामने बड़ी चुनौती बनकर खड़ा हो गया है।

सत्ता पक्ष के लिए अंतर्विरोध बना सबसे बड़ी चुनौती

सत्ता पक्ष के लिए कुछ मसलों पर वोटरों की नाराजगी तो चिंता का विषय है ही, अंतर्विरोध पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। मंगलवार को सपा जिला कार्यालय पर भाजपा के जिला उपाध्यक्ष रमेश सिंह पटेल के भाई तथा भाजपा से राबटर्सगंज प्रमुख रहे अशोक पटेल सहित पिछड़े वर्ग के कई नेताओं के शामिल होने के मामले ने भी संगठन की बेचैनी बढ़ा दी है।


यह परिस्थितियां तब है, जब रमेश पटेल के खेमे को संगठन के जिला नेतृत्व का करीबी माना जाता है। भाजपा के परंपरागत वोटर खरवार समुदाय में भी सेंध लगाने की कोशिश से भी अंतर्विरोध की बात को बल मिलने लगा है। हालांकि संगठन की तरफ से असंतुष्टों को मनाने और अपने दलों को दूसरे दलों का रूख करने से रोकने की कोशिश तेज हो गई है।

1957 में ही हो गई थी जनसंघ की इंट्री

आंकड़ों पर नजर डालें वर्ष 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में यहां से कांग्रेस के बृजभूषण और रामस्वरूप निर्वाचित हुए थे लेकिन अगले ही चुनाव यानी 1957 में इस सीट पर जनसंघ के आनंद ब्रह्मशाह और शोभनाथ काबिज हो गए। 1962 और 1967 में क्रमशः कांग्रेस के रामनाथ पाठक और रूपनारायण काबिज हो गए लेकिन 1979 में सूबेदार प्रसाद के जरिए एक बार फिर से जनसंघ की इंट्री हुई और सूबेदार प्रसाद ने 1974 में जनसंघ तथा 1977 में जनता पार्टी से जीत का क्रम जारी रखा।

यहां से शुरू हुई भाजपा की पारी

हालांकि वर्ष 1980 में जब भाजपा का उदय हुआ, तब जनसंघ नेपथ्य में चली गई और एक बार फिर से यह सीट 1980 में कांग्रेस के पास आ गई। कांग्रेस के कल्लू राम रत्नाकर ने 1980 और 1985 में जीत का सिलसिला जारी रखा लेकिन 1989 में भाजपा के तीरथराज ने कल्लूराम को तीस प्रतिशत से अधिक मतों के अंतर से हराकर जीत का झंडा गाड़ दिया और 1991 और 1993 के चुनाव में भी जीत का क्रम लगातार जारी रखा। वहीं कभी बीहड़ों के बादशाह रहे हरिप्रसाद खरवार ने निर्दल चुनाव लड़कर 1996 में आदिवासी वोटों की बदौलत तीरथराज को हराकर यह सीट बीजेपी से छिन ली।

2002 में हरिप्रसाद ने बसपा के सिंबल पर चुनाव लड़ा लेकिन कमाल नहीं कर पाए और उन्हें चैथा स्थान हासिल हुआ। इस बार सपा-बसपा की नजदीकी भिड़ंत हुई और 229 मतों से सपा के परमेश्वर ने बाजी मार ली। इस बार की लड़ाई में भाजपा के सूबेदार चुनावी मैदान में रहे जिन्हें तीसरा स्थान मिला। 2007 में बसपा के सत्यनारायण जैसल ने जीत दर्ज कर सपा के खाते से सीट अपने कब्जे में ले ली। 2012 में अविनाश कुशवाहा ने सपा से इंट्री की और विधानसभा की पहली सियासी पारी में ही नजदीकी संघर्ष में जीत हासिल कर लोगों को चैंका दिया लेकिन 2017 के मोदी लहर में यह सीट उनके हाथ से निकल गई और भाजपा के भूपेश चैबे ने 89932 मत हासिल कर सर्वाधिक मत पाने का एक नया रिकार्ड बना डाला।

-इस बार बाजी होगी किसके हाथ, टिकी सभी की निगाहें

2022 के विधानसभा चुनाव में जहां सपा से पूर्व विधायक अविनाश कुशवाहा और भाजपा से विधायक भूपेश चैबे चुनावी मैदान में हैें। वहीं पूर्व विधायक सत्यनारायण जैसल के करीबियों में शामिल रहे अविनाश शुक्ला दम-खम के साथ चुनावी मैदान में डटे हुए हैं। कांग्रेस ने कमलेश ओझा को उतारकर भाजपा के परंपरागत वोटरों में सेंधमारी और नाराज वोटरों को अपने पाले में करने का गेम खेला है। जो हालात दिख रहे हैं यहां लड़ाई त्रिकोणीय दिख रही है। बाजी किसके हाथ लगेगी, मौजूदा परिस्थिति में सियासी पंडितों के लिए भी इसका आंकलन मुश्किल हो गया है। ऐसे में किसे जीत मिलेगी किसे हार, इसको लेकर अटकलों का बाजार गर्म है।

Divyanshu Rao

Divyanshu Rao

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