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Women’s Day 2018: समाज-सहनशीलता और अत्याचार
कभी हम देश की कानून व्यवस्था को नारी शोषण के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं तो कभी सामाजिक ढ़ाचें को दोषी मानते हैं। कभी उसके ही कर्मों का फल कह कर उसके क्रिया-कलापों पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाते हैं तो कभी उसके भा
वीना सिंह
कभी हम देश की कानून व्यवस्था को नारी शोषण के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं तो कभी सामाजिक ढ़ाचें को दोषी मानते हैं। कभी उसके ही कर्मों का फल कह कर उसके क्रिया-कलापों पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाते हैं तो कभी उसके भाग्य का हवाला देकर चुप्पी साध लेते हैं।परन्तु हम अपने परिवारों अपने घरों तथा अपने आस-पास ही शोषण की शुरूआत को या तो देख नहीं पाते या फिर देखकर अनदेखा कर देते हैं।भारतीय परिवेश में आज भी लड़कियों का जन्म लेना ही सबसे बड़ी चुनौती है।आज के बदलते समय में भी लड़कियां माता-पिता को पराई तथा बोझ जैसी ही लगती हैं।इसीलिए जन्म से ही भोजन , शिक्षा ए कपड़े,स्वास्थ्य,कार्य आदि सभी में बेटा-बेटी में पूरा भेदभाव होता है।अपने ही माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य सबसे पहले ऐसे शोषक होते हैं जिन पर न संदेह किया जाता है न उगली ही उठाई जाती है।स्त्री को कमजोर बनाने की मुहिम तो अपने ही घर से शुरू हो जाती है।उसे बचपन से ही बताया जाता है कि तुम एक लड़की हो इसलिए तुम कभी भी लड़कों की तरह नहीं रह सकती।अतः वह अपने ही भाईयों से अपने को कमतर आंकने लगती और अपने को अपने दायरे में समेटने लगती है और फिर जीवन भर सिमटती ही रहती है।
हर परिवेश में जैसी ही मानसिकता
ग्रामीण परिवेश हो या शहरी।दोनों ही जगहों पर लड़कियों को लेकर एक जैसी ही मानसिकता है।कोई भी अपने परिवार में लड़की का जन्म नहीं चाहता सब बेटे की ही इच्छा रखते हैं और यदि बेटी का जन्म हो गया तो उसके विवाह होने तक किसी तरह उसे भर ही लेते है। परिवारों में जहां लड़कों को दूध,वादाम तथा अन्य शरीर को बलिष्ठता देनें वाला पौष्टिक आहार दिया जाता है वहीं लड़कियों को सादा भोजन ही दिया जाता है क्योंकि कहीं वे ताकत देने वाली चीजें खाकर समय से पहले परिपक्व न हो जाए। दूसरा कारण यह कि उन्हें कठिन कार्य तो करना नहीं है तो फिर हष्ट पुष्ठ तन की क्या आवश्यकता।इसी तरह लड़कों के पास सुन्दर तथा नये कपड़े भी होने चाहिए क्योंकि उन्हें तो घर से बाहर निकलना है। शिक्षा भी लड़कों के लिए ही आवश्यक है क्योंकि नौकरी करके उन्हें परिवार का भरण पोषण जो करना है।यह कैसी विडंबना- कि बेटा जल्दी ही बलिष्ठ तथा परिपक्व हो जाए तो गर्व की बात और यदि बेटी समय से पहले परिपक्व हो जाए तो शर्म की बात है। इसके अतिरिक्त परिवार में लड़कों को हर तरह की स्वतंत्रता दी जाती है जिससे वे निरंकुश तथा मनमौजी स्वभाव के हो जाते है और बड़े होकर अपनी पत्नी तथा परिवार पर रौब जमाते हैं क्योंकि उसे यह अक्खड़पन विरासत में मिला होता है। इससे तो ऐसा लगता है जैसे जीवन में लड़कियों की कोई भूमिका है ही नहीं, जबकि परिवार में महिलाओं के पास पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कार्य तथा जिम्मेदारियां होती हैं।
Happy Women’s Day 2018: समाज-सहनशीलता और अत्याचार
भेदभाव है या भविष्य के लिए सही सीख
यह महीन दुराव उसको उस छोटी उम्र में समझ में नहीं आते और यदि कुछ आते भी तो अपनों से ही विरोध करने का साहस नहीं होता।अतः वह स्वयं को अपने परिवार के नियमों के अनुसार ढ़ालनें की कोशिश में लगी रहती है।
कभी-कभी तो यह भी समझना मुश्किल होता है कि यह शोषण है भी या नहीं। यह भेदभाव है या भविष्य के लिए सही सीख।उसका छोटा मन इन बारीकियों को समझने में असमर्थ होता है। न कहीं चोट के निशान ,न कोई सबूत,न कोई गवाह।ऐसे में वह कैसे अपने साथ हो रहे उत्पीड़न को या भेदभाव को उजागर करे।वह अन्तर्मन की चोट को कैसे दिखाए ? एक ऐसी पीड़ा जिसकी कसक को व्यक्त नहीं कर सकती।एक ऐसा शोषण जो अदृश्य होते हुए भी छोटी बच्ची के मन मस्तिष्क पर नुकीला प्रहार करता है।सहते समझते जब परिवार की खामिंयों से अवगत हो जाती है तो भी उसे अपनों का भेदभाव अपनों से ही व्यक्त करना दुविधा में ड़ालता है कई बार उसे सहना ही सही लगता है। तो बस एक अनदेखी मार को सहती रहती है और यदि किसी तरह जद्दोजहद करके या भाग्य बस वह किसी लायक बन भी जाए तो भी उसे घर तथा बाहर उत्पीड़न झेलना ही पड़ता है क्योंकि धर के अन्दर भी,घर के बाहर भी वह दोयम दर्जे पर ही रखी जाती है।
हमारे समाज में महिलाओं को बात-बात में डराना,धमकाना,मारना-पीटना बेवजह अपमान करना, खास मौकों से दूर रखना या अकेला छोड़ देना आम बात है। इसके लिए परिवार के सभी सदस्य उत्तरदायी होते हैं अक्सर घरों में स्त्रियों के साथ अनैतिक व्यवहार तथा तरह-तरह की हिंसक घटनाएं घटती रहती हैं और बड़े-बुजुर्ग उसके विरोध में कुछ भी नहीं बोलते। जैसे कि वह मौन स्वीकृति दे रहे हों। अपराध की जड़े हमारे घरों में ही है जोकि वृक्ष की भांति विकसित होकर पूरे समाज तथा देश में फैल रही है ।
शारीरिक शोषण (यौनशोषण) भी अघिकतर अपने घर , रिश्तेदार , पड़ोसी या बहुत ही निकटतम व्यक्ति के द्वारा ही होता है।पीड़िता जिसके विरोध में खुलकर आवाज भी नहीं उठा सकती।यदि कोशिश की भी तो कभी अपने परिवार का सदस्य होने के कारण कभी भविष्य की दुश्वारियों के कारण तो कभी जग हंसाई के कारण उसे समझा- बुझा कर चुप करा दिया जाता।जब अपने ही साथ न देते ए सब कुछ सहने को विवश करते है फिर दूसरों से क्या उम्मीद करें। जबतक माता पिता बेटी को अपने साथ रखते है उसे अपनी सोंच के अनुरूप ढ़ालते है और ससुराल भेजने पर उसे उस घर के अनुरूप ढ़ल जानें की सलाह देंते हैं।जीवन-पर्यन्त सब कुछ सहते रहने का मूलमंत्र उसके कानों में धीरे से फूंक देते है कि बेटी ससुराल में किसी को भी शिकायत का मौका न देना अपने मां बाप के नाम की लाज रखना।
Happy Women’s Day 2018: समाज-सहनशीलता और अत्याचार
बस वह माता- पिता की लाज बचाए रहती है और तिल-तिल घुटती रहती हैं अपने चारो तरफ के वातावरण को देखकर कभी-कभी मन सोचने पर विवश होता है कि आखिर हमारा अपराध क्या है ? आखिर हम किस अपराध का दंड जीवन पर्यन्त सहते रहते है क्या एक औरत होने का इतना बड़ा दण्ड।जोकि हम अपनों के द्वारा ही छले जा रहे है। दूसरे दर्द दें तो अपनों से कहें पर जब अपने ही जख्म दें तो किससे वयां करें । जिनसे हम सबसे ज्यादा सुरक्षा तथा आत्मीयता चाहते हैं वह ही हमारा बंटवारा कर देते है। कहीं लिंगभेद के नाम पर , कहीं अन्धविश्वास के नाम पर , तो कहीं झूठे मान सम्मान के नाम पर वह हम पर शिकंजा कसे ही रहते है और अपनी ही बेटियों तथा बहनों के साथ दुव्र्यवहार करते रहते हैं। यह कैसी ओछी मानसिकता।
बेटी को बेटे के बराबर ही अधिकार
बदलते समय में कुछ परिवारों में जागरूकता आयी है। बदलाव भी हुआ है,बेटी को बेटे के बराबर ही अधिकार प्राप्त हैं। परन्तु यह औसत बहुत ही कम है। जहां स्त्री सुरक्षा तथा स्त्री अधिकारों के लिए बहुत बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है। जिसकी शुरुआत और निजात हमारे अपने परिवारों से ही संभव है। स्त्री उत्पीड़न तथा भेदभाव को रोकने के लिए सबसे पहले माता-पिता को अपनी जटिल मानसिकता को बदलते हुए यह स्वीकार करना चाहिए कि बेटा-बेटी दोनों उनकी अपनी संतानें हैं। दोनों के समान अधिकार हैं तथा दोनों की समान आवश्यकताएं है। अतः देश तथा समाज को दोषी ठहरानें से पहले स्वयं के दोषों को दूर करें। खुद को बदलोगे तो समाज तथा देश खुद बखुद बदल जाएगा।